F कीटोऽपि सुमनःसंगा /kitopi sumanah sanga shloka niti - bhagwat kathanak
कीटोऽपि सुमनःसंगा /kitopi sumanah sanga shloka niti

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कीटोऽपि सुमनःसंगा /kitopi sumanah sanga shloka niti

कीटोऽपि सुमनःसंगा /kitopi sumanah sanga shloka niti

 कीटोऽपि सुमनःसंगा /kitopi sumanah sanga shloka niti

कीटोऽपि सुमनःसंगा /kitopi sumanah sanga shloka niti

कीटोऽपि सुमनःसंगादारोहति सतां शिरः ।

अश्मापि याति देवत्वं महद्भिः सुप्रतिष्ठितः ।।३२।।


प्रसंग:- सत्सग्ङतिमहत्वमुपस्थापयति-


अन्वयः- सुमनः संगात कीट: अपि सतां शिर: आरोहति, अश्मा अपि महद्भिः सुप्रतिष्ठितः (सन्) देवत्वं याति ।।३२।।


व्याख्या - कीटोऽपि तुच्छजन्तुरपि सुमन:संगात् = पुष्पसम्बन्धात् विद्वत्सम्बन्धाच्च, सतां देवानां सज्जानानांच शिरः मस्तकं आरोहति, अश्माऽपि पाषाणोऽपि, महदभिः श्रेष्ठजनैः विद्वदभिः सुप्रतिष्ठितः स्थापितः सन देवत्वं याति।


भाषा- पुष्पों के संग से कीड़ा भी देवता और महापुरूषों के मस्तक पर चढ़ जाता है एवं पत्थर भी महापुरुषों द्वारा प्राण प्रतिष्ठित किये जाने पर देवत्व को प्राप्त होता है।।३२।।

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 कीटोऽपि सुमनःसंगा /kitopi sumanah sanga shloka niti


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