क्षणेनाग्नौ क्षणेनाप्सु / kshanenagnau kshanenapsu shloka niti

 क्षणेनाग्नौ क्षणेनाप्सु / kshanenagnau kshanenapsu shloka niti

क्षणेनाग्नौ क्षणेनाप्सु / kshanenagnau kshanenapsu shloka niti

क्षणेनाग्नौ क्षणेनाप्सु लोहसन्दशको यथा।

सुखदुःखात्मकं तद्वद् द्वन्द्वचनं शरीरिणाम् । ७५ ।।


प्रसंग :- सर्वेषां शरीरिणां सुखदुःखात्मकं जीवनमिति निर्दिशति।


अन्वय:- लोहसन्दशकः यथा क्षणेन अग्नौ, क्षणेन अप्सु च (निधीयते) तददेव शरीरिणां सुखदुःखात्मकम् द्वन्द्वचनं वर्तत इति शेषः । ७५।।


व्याख्या - लोहसन्दशकः = ज्वलदंगारदिनिष्कासनयन्त्रम यथा = येन प्रकारेण, क्षणेन = क्षणमात्रार्थमित्यर्थः अग्नौ = वह्नौ, क्षणेन = क्षणमात्रार्थेचअप्सु = जलेषु निधीयते, तद्वदेव = तथैव शरीरिणां = देहिनां, सुखदुःखात्मकं = सुखदुःखस्वरूपं द्वन्द्वचक्रं वर्तत इति शेषः । ।७५ ।।


भाषा - जैसे लोहे की मोटी सड़सी को क्षण में आग में और अगले क्षण में पानी में डुबाया जाता है, उसी तरह सुख दुःख तो जोड़ें का चक्र है जो प्राणियों को कभी सूख का तो कभी दुःख का अनुभव कराया करता है । ७५ ।।

नीति संग्रह- मित्रलाभ: के सभी श्लोकों की लिस्ट देखें नीचे दिये लिंक पर क्लिक  करके। -clickNiti Sangrah all Shloka List

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