मनस्यन्यद्वचस्यन्यत् /manasyanyad vachasyanyat shloka niti

 मनस्यन्यद्वचस्यन्यत् /manasyanyad vachasyanyat shloka niti

मनस्यन्यद्वचस्यन्यत् /manasyanyad vachasyanyat shloka niti

मनस्यन्यद्वचस्यन्यत्कर्मण्यन्यद् दुरात्मनाम्।

मनस्येकं वचस्येकं कर्मण्येकं महात्मनाम् ।।५८ ।।


प्रसंग :- महात्मदुरात्मनोरन्तरं प्रतिपादयति-


अन्वयः- दुरात्मनाम्-मनसि अन्यद्, वचसि अन्यत्, कर्माणि अन्यद् (भवति) महात्मना-मनसि एक, वचसि एक, कर्मणि एकम (भवति)।।५८ ।।


व्याख्या- दुरात्मनां = दुष्टात्मनां, मनसि = हृदये, अन्यत् = अन्यप्रकारक, वचसि = वचने, अन्यत = ततो भिन्नं, कर्मणि = कर्तव्ये, अन्यत = वाङमनसयोरुभयोरपि विपरीतं भवति । एवमेव महात्मनां = सच्चरितानां, मनसि एक- एकप्रकार, वचसि, एकम एवं कर्मणि अपि एकमेव प्रकारं (कर्म) तिष्ठति। दुरात्मनाः यच्चिन्तयन्ति बहिस्ततो विपरीतं प्रकटयन्ति, कार्यकाले च ततोऽप्यन्यदेव किमप्याचरन्ति, महात्मनस्तु यच्चिन्तयन्ति तदेव बहिः प्रकटन्ति कार्यकाले च तदेव आचरन्त्यपीति भावः । ।५८ ।।


भाषा - दुष्ट मोग मन में कुछ सोचा करते हैं और बाहर कुछ कहा करते हैं और काम पड़ने पर उन दोनों के विपरीत ही कुछ किया करते हैं। ठीक इस के विपरीत महात्मा लोग मन में जो सोचते हैं वही कहते हैं और काम पड़ने पर वही करके भी दिखाते हैं। ।५८ ।।

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