परोक्षे कार्यहन्तारं /parokshe karya hantaram shloka niti

परोक्षे कार्यहन्तारं /parokshe karya hantaram shloka niti

परोक्षे कार्यहन्तारं /parokshe karya hantaram shloka niti

परोक्षे कार्यहन्तारं प्रत्यक्षे प्रियवादिनम्।

वर्जयेत्तादृशं मित्रं विषकुम्भं पयोमुखम् ।।४५।।


प्रसंग :- वर्जनीयमित्रलक्षणमुदाहरति ।


अन्वयः- परोक्षे कार्यहन्तारं प्रत्यक्षे प्रियवादिनं तादृशं मित्रं पयोमुखं विषकुम्भमिव वर्जयेत् ।।४५।।


- व्याख्या - परोक्षे = अप्रत्यक्षे गुप्तरूपेण इत्यर्थः, कार्यस्य हन्तारं कार्यहन्तारम् = कार्यव्याघातकरमित्यर्थः प्रत्यक्षे = सम्मुखे, प्रियं = मधुरं वदतीति तं प्रियवादिनं तादृशं = तथाविधं मित्रं पयः = दुग्धं, मुखे = उपरिभागे यस्य सः तं पयोमुखं, विषस्य, कुम्भं = घटमिव वर्जयेत् = त्यजेत् ।।४५ ।।


भाषा - परोक्ष में कार्य को बिगाड़ने वाले और प्रत्यक्ष या सम्मुख में हितकारक और मधुर बातें बोलनेवाले मित्र को, ऊपर दूध दिखलाई पड़ने वाले विष भरे घड़े के समान त्याग देना चाहिये ।।४५।।

 

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परोक्षे कार्यहन्तारं /parokshe karya hantaram shloka niti


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