रोगी चिरप्रवासी /rogi chira pravasi shloka niti

 रोगी चिरप्रवासी /rogi chira pravasi shloka niti

रोगी चिरप्रवासी /rogi chira pravasi shloka niti

रोगी चिरप्रवासी परान्नभोजी परावसथशायी।

यज्जीवति तन्मरणं यन्मरणं सोऽस्य विश्रामः ।।७३।।


प्रसंग :- पराधीनदरिद्रस्य निन्दामुपस्थापयति-


अन्वयः- रोगी, चिरप्रवासी, परान्नभोजी, परावसथशायी, यत् जीवति तत् मरणं, यत् मरणम् अस्य सः विश्रामः । ७३||


व्याख्या - रोगी, चिरं प्रवसति = चिराय दूरदेशे निवसति इति चिरप्रवासी बहुकालपर्यंन्त तथाभूतः चिरकालविदेशवासी इत्यर्थः । परान्नं भुङ्क्ते इति परान्नभोजी, परस्य आवसथः तस्मिन् शेते इति परावसथशायी = परगृहशयनशील: यत् जीवति = यावत कालं जीवति तन्मरणं = तावत्कालं तस्य मरणं मत्यरेवेति भावः । यत् = यच्च मरणम् अस्य सः विश्रामः = शान्तिकालः । ।७३।।


भाषा - रोगी, सदा परदेश रहनेवाला, परान्नभोजी और दूसरे के घर सोनेवाले पुरुष का जीवन ही मृत्युतुल्य है और जो वास्तविक मरता हैं वहीं उसका विश्राम है।

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