स हि गगनविहारी/sa hi gaganvihari shloka niti

 स हि गगनविहारी/sa hi gaganvihari shloka niti

स हि गगनविहारी/sa hi gaganvihari shloka niti

स हि गगनविहारी कल्मषध्वंसकारी,

दश्शतकरधारी ज्योतिषां मध्यचारी।

विधुरपि विधियोगात् ग्रस्यते राहुणाऽसौ,

लिखितमपि ललाटे प्रोज्झितुं कः समर्थः ।।७।।


प्रसंग :- ललाटलिखितस्यावश्यम्भावित्वं सोदाहरणं ब्रूते-


अन्वयः- स हि गगनविहारी, कल्मषध्वंसकारी, दशशतकरधरी ज्योतिषां मध्यचारी असौ विधुरपि विधियोगाद् राहुणा ग्रस्यते । इह ललाटे लिखितम् अपि प्रोज्झितुं कः समर्थः (भवति) ।।७।।


व्याख्या- स हि प्रसिद्धः, गगने विहरतीति गगनविहारी = आकाशे विहरणशीलः, कल्मषस्य पापस्यअन्धकारस्य वा ध्वंसं करोतीति तथाभूतः पापन: अन्धकारघ्नः वा, दशाशतकरधरी-दश दशावृत्तं शतं दशशतं सहस्त्रं, करान्-रश्मीन् धरतीति तथाभूतः सहस्रकिरणः, ज्योतिषां मध्ये चरतीति मध्यचारी असौ विधुः चन्द्रः, अपि, विधियोगात् भाग्यवशात् राहुणा ग्रस्यते, अत एव ललाटे-भाले, लिखितं, प्रोज्झितुम्, =निराकर्तुं, कः समर्थः न कोऽपीति भावः ।।७।।


भाषा - आकाश में विहरण करनेवाला, अन्धकार को मिटानेवाला, हजार किरणोंवाला एवं नक्षत्रों के मध्य में विचरण करने वाला वह प्रसिद्ध चन्द्रमा भी भाग्यवशात् राहु द्वारा ग्रसा जाता है। मस्तक में (भाग्य में) में लिख हुए को मिटाने में कौन समर्थ है? अर्थात कोई नहीं।।७।।

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