सर्वमन्यत् परित्यज्य/sarva manyat parityajya shloka niti

 सर्वमन्यत् परित्यज्य/sarva manyat parityajya shloka niti

सर्वमन्यत् परित्यज्य/sarva manyat parityajya shloka niti

सर्वमन्यत् परित्यज्य शरीरमनुपालयेत्।।

शरीररक्षिता येषा पुरुषार्थचतुष्टयी।।२४।।


प्रसंग :- शरीररक्षायाः महत्वं प्रतिपादयति-


अन्वय:-अन्यत् सर्वं परित्यज्य शरीरम् अनुपालयेत् । हि एषा पुरुषार्थचतुष्टयी, शरीररक्षिता वर्तते ।।२४।।


व्याख्या- अन्यत् = शरीरसंरक्षणातिरिक्तम्, सर्वं = सकलं प्रपंचम् परित्यज्य = विहाय आदौ शरीरं = देहः, अनुपालयेत् = संरक्षेत्, हि = यतः, एषा = प्रत्यक्षवत् जगति जागरूका, चत्वारः अवयवा यस्य सा चतुष्टयी - पाथाना = धर्मार्थकाममोक्षाणां चतष्टयी = चतरवयवा, शरीरक्षिता = शरीरानुपालिता वर्तते।।२४।।


भाषा- और भी देखो-प्राणियों को संसार के सभी प्रपंचो को छोडकर अपने शरीर की रक्षा करनी चाहिए। क्योकिं धर्मादि चारों परूषार्थों का आस्तत्व शरीर की रक्षा पर निर्भर है।।२४।।

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