तृणानि भूमिरुदकं /tranani bhumi rudakam shloka niti

 तृणानि भूमिरुदकं /tranani bhumi rudakam shloka niti

तृणानि भूमिरुदकं /tranani bhumi rudakam shloka niti

तृणानि भूमिरुदकं वाक् चतुर्थी च सूनृता।

एतान्यपि सतां गेहे नोच्छिद्यन्ते कदाचन ।।३४।।


प्रसंग :- सज्जनसम्पाद्यमातिथ्यं निरूपयति-


अन्वयः-तृणानि, भूमिः, उदकं, चतुर्थी सुनृता वाक् च, एतानि अपि सतां गेहे कदाचन न उच्छिद्यन्ते।।३४।।


व्याख्या- तृणानि-उपनिवेशार्थं कुशासनादीनि, भूमिः श्रमापनयनार्थं निवासस्थानं, उदकं पादप्रक्षालनाद्यर्थं जलं, चतुर्थी-तुरीया सूनृता=प्रिया सत्या च वाक वाणी, एतानि उक्तानि कुशासनादीनि, अपि निश्चयेन, सतां गेहे-सज्जनानां गृहे, कदाचिदपि न उच्छिद्यन्ते-न विनश्यन्ति, दुर्लभा न भवन्तीति भावः । ।३४।।


भाषा-बैठने को तृण का आसन-चटाई आदि, यातायातजन्य श्रमको दूर करने के लिए स्थान, पैर आदि धोने व पीने आदि के लिए पानी और मधुर तथा सत्यवचन ये चार चीजें तो सज्जनों के घर से कहीं जाती ही नहीं, सज्जनों के यहाँ ये चारों सर्वदा प्रस्तुत रहा ही करती हैं। ।३४ ।।

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