उद्यमेन हि सिद्धयन्ति / udyamen hi sidhyanti shloka niti

 उद्यमेन हि सिद्धयन्ति / udyamen hi sidhyanti shloka niti

उद्यमेन हि सिद्धयन्ति / udyamen hi sidhyanti shloka niti

उद्यमेन हि सिद्धयन्ति कार्याणि न मनोरथैः।।

नहि सुप्तस्य सिंह प्रविशन्ति मुखे मृगाः ।।२५।।


प्रसंग:- उद्यमस्यैव कार्यसाधकत्वं न तु भाग्यस्येति कथयति-


अन्वयः- हि उद्यमेन कार्याणि सिद्ध्यन्ति न(तु) मनोरथैः । हि सुप्तस्य सिंहस्य मुखे मृगाः न प्रविशन्ति ।।२५।।


व्याख्या-हि-यस्मात् कारणात्, उद्यमेन उद्योगेन, एव, कार्याणि = कर्माणि, सिद्ध्यन्ति, मनोरथैः तु न। हि-यथा, सुप्तस्य-निद्रितस्य, सिंहस्य, मुखे, मृगाः न प्रविशन्ति ।।२५।।।


भाषा- केवल मनोरथ से कार्य सम्पन्न नहीं होते हैं प्रत्युत् उद्योग से ही सिद्ध होते हैं, जैसे सोये हुए सिंहके मुँह में मृग स्वयं नहीं चले जाते उसको भी अन्वेषण करना ही पड़ता है।।२५।।

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 उद्यमेन हि सिद्धयन्ति / udyamen hi sidhyanti shloka niti

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