उपकारिणि विश्रब्धे /upkarani vishrabdhe shloka niti

 उपकारिणि विश्रब्धे /upkarani vishrabdhe shloka niti

उपकारिणि विश्रब्धे /upkarani vishrabdhe shloka niti

उपकारिणि विश्रब्धे शुद्धमतौ यः समाचरति पापम्।

तं जनमसत्यसन्धं भवगति वसुधे कथं वहसि? ||४७।।


प्रसंग:- विश्वासघाति निन्दामुपन्यसति-


अन्वयः- यः उपकारिषि विश्रब्धे शद्धमतौ पापं समाचरति. तम असत्यसन्धं जनं हे भगवति वसुधे। (त्व) कथं वहसि? ||४७।।


व्याख्या- उपकारिणि = उपकारके, विश्रब्धे = विश्वस्ते, शूद्धमतौ = निष्कपटशीले. यः पापं = कपटव्यवहारं समाचरति, हे भगवति वसुधे। = हे पृथ्वि। एवंभूतं तं सत्या सन्धा = प्रतिज्ञा यस्यासौ सत्यसन्धः स न भवतीति तथाभूतस्तम् असत्यसन्धं = मिथ्याभाषिणं जनं त्वं कथं वहसि? = कथं । पारयसि? ||४७||


भाषा - उपकार करने वाले, विश्वास करने वाले, निष्कपट विचार वाले व्यक्ति के साथ जो मनुष्य असत्य अथवा कपट व्यवहार करता है, है भगवति पृथ्वी। ऐसे मनुष्य को तुम कैसे धारक करती हो? ।।४७ ।।

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