अनिच्छन्नप्येवं यदि पुन /anichhannpyevam yadi pun shloka
अनिच्छन्नप्येवं यदि पुनरितीच्छन्निव रज-
स्तमश्छन्नश्छद्मस्तुतिवचनभङ्गीमरचयम् ।
तथापीत्थं रूपं वचनमवलम्ब्यापि कृपया
त्वमेवैवंभूतं धरणिधर मे शिक्षय मनः ।। ५७॥*
हे धरणीधर! यद्यपि मैंने रजोगुण और तमोगुणसे आच्छन्न होकर पूर्वोक्तरूपसे वस्तुतः इच्छा न रखते हुए भी, इच्छुककी भाँति, कपटयुक्त स्तुति-वचनोंका निर्माण किया है; तथापि मेरे ऐसे वचनोंको भी अपनाकर आप ही कृपा करके मेरे मनको [सच्चे भावसे स्तुति करनेयोग्य होनेकी] शिक्षा दें॥ ५७ ॥