F दुरन्तस्यानादे रपरिहरणीयस्य महतो /durantasya nade shloka - bhagwat kathanak
दुरन्तस्यानादे रपरिहरणीयस्य महतो /durantasya nade shloka

bhagwat katha sikhe

दुरन्तस्यानादे रपरिहरणीयस्य महतो /durantasya nade shloka

दुरन्तस्यानादे रपरिहरणीयस्य महतो /durantasya nade shloka

 दुरन्तस्यानादे रपरिहरणीयस्य महतो /durantasya nade shloka

दुरन्तस्यानादे रपरिहरणीयस्य महतो /durantasya nade shloka

दुरन्तस्यानादेरपरिहरणीयस्य महतो

विहीनाचारोऽहं नृपशुरशुभस्यास्पदमपि।

दयासिन्धो बन्धो निरवधिकवात्सल्यजलधे

तव स्मारं स्मारं गुणगणमितीच्छामि गतभीः॥५६॥*

हे दयासिन्धो! हे दीनबन्धो! मैं दुराचारी, नर-पशु, आदि-अन्तरहित और अपरिहरणीय महान् अशुभोंका भण्डार हूँ तो भी हे अपारवात्सल्यसागर! आपके गुण- गणोंका स्मरण कर-करके निर्भय हो जाऊँ, ऐसी इच्छा करता हूँ ! ॥५६॥ 

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 दुरन्तस्यानादे रपरिहरणीयस्य महतो /durantasya nade shloka


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