दुरन्तस्यानादे रपरिहरणीयस्य महतो /durantasya nade shloka
दुरन्तस्यानादेरपरिहरणीयस्य महतो
विहीनाचारोऽहं नृपशुरशुभस्यास्पदमपि।
दयासिन्धो बन्धो निरवधिकवात्सल्यजलधे
तव स्मारं स्मारं गुणगणमितीच्छामि गतभीः॥५६॥*
हे दयासिन्धो! हे दीनबन्धो! मैं दुराचारी, नर-पशु, आदि-अन्तरहित और अपरिहरणीय महान् अशुभोंका भण्डार हूँ तो भी हे अपारवात्सल्यसागर! आपके गुण- गणोंका स्मरण कर-करके निर्भय हो जाऊँ, ऐसी इच्छा करता हूँ ! ॥५६॥