भवजलधि मगाधं /bhav jaladhi magadham shloka
भवजलधिमगाधं दुस्तरं निस्तरेयं
कथमहमिति चेतो मा स्म गाः कातरत्वम्।
सरसिजदृशि देवे तावकी भक्तिरेका
नरकभिदि निषण्णा तारयिष्यत्यवश्यम्॥८४॥*
हे मन! मैं इस अथाह और दुस्तर भवसागरको कैसे पार करूँगा?-इस चिन्तासे कातर मत हो। क्योंकि कमललोचन देवमें जो तुम्हारी ऐकान्तिकी भक्ति बनी हुई है, वह तुम्हें अवश्य ही पार पहुँचावेगी॥ ८४ ॥