कदा शृङ्गैः स्फीते /kda shringai sfite shloka
कदा शृङ्गैः स्फीते मुनिगणपरीते हिमनगे
द्रुमावीते शीते सुरमधुरगीते प्रतिवसन्।
क्वचिद्धयानासक्तो विषयसुविविक्तो भवहर
स्मरंस्ते पादाब्ज जनिहर समेष्यामि विलयम्॥९१॥*
हे संसारतापहारिन् ! हे पुनर्जन्मसे छुड़ानेवाले! [ऊँची-ऊँची] चोटियोंसे बड़े प्रतीत होनेवाले, वृक्षोंसे घिरे हुए, देवोंके मधुर संगीतसे सुशोभित प्रचुरऔर मुनिगणोंसे सेवित ठंढे हिमालयमें निवास करता हुआ कहीं विषयोंसे विरक्त और ध्यानमें मग्न होकर, आपके चरणारविन्दोंका स्मरण करता हुआ मैं कब तन्मय हो जाऊँगा?॥ ९१॥