नक्रानान्ते करीन्द्रे /nakranante karindre shloka
नक्रानान्ते करीन्द्रे मुकुलितनयने मूलमूलेति खिन्ने
नाहं नाहं न चाहं न च भवति पुनर्मादृशस्त्वादृशेषु।
इत्येवं त्यक्तहस्ते सपदि सुरगणे भावशून्ये समस्ते
मूलं यत्प्रादुरासीत्स दिशतु भगवान् मङ्गलं सन्ततं नः॥१३२॥
जब गजेन्द्र ग्राहके द्वारा आक्रान्त हो आँखें मीचकर दुखी हो हे विश्वके मूलाधार! [मेरी रक्षा करो] ' इस प्रकार पुकारने लगा, उस समय 'तुम्हारे-जैसे महाविपन्नोंकी रक्षा करनेको मैं नहीं! मैं भी नहीं!! और मैं भी नहीं समर्थ हूँ, ऐसा कहकर सहसा सब देवता हाथ छुड़ाकर भावशून्य हो गये, तब जो सर्वमूलाधार प्रकट हुआ वह हरि हमारा निरन्तर मङ्गल करे ॥ १३२॥