स्ववैश्वरूप्येण सदानुभूतया /svavai shvarupena shloka
स्ववैश्वरूप्येण सदानुभूतयाप्यपूर्ववद्विस्मयमादधानया।
गुणेन रूपेण विलासचेष्टितैः सदा तवैवोचितया तव श्रिया॥३६॥*
जिसके लिये आपने समुद्रका मन्थन और बन्धन किया, जो विश्वरूपसे आपके द्वारा सदा अनुभूत होनेपर भी नूतन-सी विस्मय उत्पन्न करती है, जो रूप, गुण और विलास-चेष्टाओंके द्वारा केवल आपके ही योग्य है॥३६॥