तवामृतस्यन्दिनि पादपङ्कजे /tava mritasyandini shloka
तवामृतस्यन्दिनि पादपङ्कजे निवेशितात्मा कथमन्यदिच्छति।
स्थितेऽरविन्दे मकरन्दनिर्भरे मधुव्रतो नेक्षुरकं हि वीक्षते॥२५॥*
जो पुरुष आपके अमृतवर्षी चरणकमलोंमें दत्तचित्त है, वह किसी और पदार्थकी इच्छा कैसे कर सकता है? मधुसे भरे हुए पङ्कजपर बैठा हुआ भ्रमर इक्षुरक (तालमखानेके पुष्प अथवा ईखके रस) की ओर कब दृष्टिपात करता है? ॥ २५ ॥