त्वदज्रिमुद्दिश्य कदापि केन /tvadjri mudyisya shloka
त्वदज्रिमुद्दिश्य कदापि केनचिद्यथा तथा वापि सकृत्कृतोऽञ्जलिः।
तदैव मुष्णात्यशुभान्यशेषतः शुभानि पुष्णाति न जातु हीयते॥२६॥*
आपके चरणोंके उद्देश्यसे, किसी भी समयमें, किसीने भी, जैसे-तैसे एक बार भी हाथ जोड़ दिया तो वह (नमस्कार) उसके समस्त पापोंको हर लेता है, पुण्यराशिकी पुष्टि करता है और उसका फिर कभी नाश नहीं होता ॥ २६ ॥