त्राता यत्र न न कश्चिदस्ति /trata yatra na shloka
त्राता यत्र न न कश्चिदस्ति विषमे तत्र प्रहर्तुं पथि
द्रोग्धारो यदि जाग्रति प्रतिविधिः कस्तत्र शक्यक्रियः।
यत्र त्वं करुणार्णवत्रिभुवनत्राणप्रवीणः प्रभु-
स्तत्रापि प्रहरन्ति चेत् परिभवः कस्यैष गर्दावहः॥ ९ ॥
जिस भयंकर मार्गमें कोई रक्षक नहीं, उसमें यदि शत्रु सतानेको तैयार हों तो वहाँ उनका क्या प्रतिकार किया जा सकता है? पर जहाँपर आप-जैसे दयासिन्धु त्रैलोक्यकी रक्षा करने में कुशल स्वामी विराजमान हैं, वहाँपर यदि वे (काम-क्रोधादि शत्रु) प्रहार करें तो यह किसकी निन्दा और अपमान है? ॥ ९॥