संपूर्ण शिव महापुराण कथा sampoorna shiv mahapuran katha -16

 संपूर्ण शिव महापुराण कथा  sampoorna shiv mahapuran katha

   शिव पुराण कथा भाग-16  

shiv puran pdf शिव पुराण हिंदी में

शिवजी के इस प्रकार समझाने पर भी होनहार वश नारद जी ने वह बात श्री विष्णु जी भगवान से जाकर कह सुनाई।
संभु दीन्ह उपदेश हित नहिं नारदहिं सोहान।
भरद्वाज कौतुक सुनहु हरि इच्छा बलवान।।
भगवान शिव के मना करने के बाद भी नारद जी ब्रह्मलोक पहुंचे और वहां ब्रह्मा जी को नमस्कार कर के अपने तपोबल से कामदेव पर विजय प्राप्ति का समाचार कह सुनाया ।

ब्रह्मा जी ने भी शिव का स्मरण करके सब कुछ जान लिया और कहा हे पुत्र इस बात को किसी से मत कहना। परंतु नारद जी ने ब्रह्मा जी के वचनों पर भी कोई ध्यान नहीं दिया यह सब सदाशिव की ही माया का प्रभाव था ।
नारदोथ ययौ शीघ्रं विष्णुलोकं विनष्टधीः।
मदाङ्कुरमना वृत्तं गदितुं स्वं तदग्रतः।। रु•सृ•2-41
अभिमान से बुद्धि विपरीत होने के कारण नारद जी अपना सारा वृत्तांत गर्व पूर्वक भगवान विष्णु के सामने कहने के लिए वहां से शीघ्र ही विष्णु लोक में गए।

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नारद मुनि को आते देखकर भगवान विष्णु बड़े आदर से उठकर शीघ्र ही आगे बढ़े और उन्होंने मुनि को हृदय से लगा लिया।
छीर सिंधु गवने मुनि नाथा। जहं बस श्री निवास श्रुतिमाथा।।
हरषि मिले उठि रमा निकेता। बैठे आसन रिषिहिं समेता।।
बोले बिहसि चराचर राया। बहुते दिनन कीन्हि मुनिदाया।।
काम चरित नारद सब भाषे। जद्यपि प्रथम बरजि सिव राखे।।
अति प्रचंड रघुपति कै माया। जेहि न मोह अस को जग जाया।।

भगवान श्री हरि नारद जी को अपने आसन पर बिठाया और भगवान शिव का ध्यान कर हरी ने उनसे यथार्थ गर्वनाशक वचन कहने लगे - हे तात आप कहां से आ रहे हैं ? यहां किस लिए आपका आगमन हुआ है ? हे मुनि श्रेष्ठ आप धन्य हैं आपके शुभागमन से मैं पवित्र हो गया।

भगवान विष्णु के यह वचन सुनकर गर्व से भरे हुए नारद मुनि ने मद से कहा- कि किस प्रकार मैंने काम पर विजय प्राप्त की सारा वृत्तांत कह सुनाया ।
विश्व पालक हरि शिव जी द्वारा जो होना था उसे हृदय से जानकर शिव के आज्ञानुसार मुनि श्रेष्ठ नारद जी से कहने लगे-
धन्यस्त्वं मुनिशार्दूल तपोनिधि रूदारधीः।
भक्तित्रिकं न यस्यास्ति काममोहादयो मुने।। रु•सृ•2-51

हे मुनि श्रेष्ठ! आप धन्य हैं ; आप तपस्या के भंडार हैं और आपका हृदय भी बड़ा उदार है। हे मुने जिसके भीतर भक्ति ज्ञान और वैराग्य नहीं होते उसी के मन में समस्त दुखों को देने वाले काम, मोह आदि विकार शीघ्र उत्पन्न होते हैं।

आप तो नैष्ठिक ब्रह्मचारी हैं और सदा ज्ञान वैराग्य से युक्त रहते हैं फिर आप में काम विकार कैसे आ सकता है । आप तो जन्म से निर्विकार तथा शुद्ध बुद्धि वाले हैं ।

श्रीहरि की कही हुई बहुत सी बातें सुनकर मुनि शिरोमणि नारदजी जोर-जोर हंसने लगे और मन ही मन भगवान को प्रणाम करके इस प्रकार कहने लगे- हे स्वामी यदि मुझ पर आपकी कृपा है तो कामदेव का मेरे ऊपर क्या प्रभाव हो सकता है । ऐसा कहकर भगवान के चरणों में मस्तक झुकाकर इच्छानुसार बिचरने वाले नारद मुनि वहां से चले गए।

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सूत जी बोले- हे द्विजवरों नारद जी के चले जाने पर शिव की इच्छा से विष्णु भगवान ने एक अद्भुत माया रची जिस ओर नारद जी जा रहे थे उसी मार्ग मे एक सुंदर नगर बना दिया ।
भगवान ने उसे अपने बैकुंठ लोक से भी अधिक रमणीय बनाया था, नाना प्रकार की वस्तुएं उस नगर की शोभा बढ़ा रही थीं। वहां स्त्रियों और पुरुषों के लिए बहुत से बिहार स्थल थे । वह नगर चारों वर्णों के लोगों से युक्त था ।
तत्र राजा शीलनिधिर्नामैश्वर्य समन्वितः।
सुतास्वयम्बरोद्युक्तो महोत्सव समन्वितः।। रु•सृ•3-7
वहां शीलनिधि नामक ऐश्वर्यशाली राजा राज्य करते थे। वह अपनी पुत्री का स्वयंवर करने के लिए उद्यत थे। अतः उन्होंने महान उत्सव का आयोजन किया था , उनकी कन्या का वरण करने के लिए उत्सुक हो चारों दिशाओं से बहुत से राजकुमार आए थे।

जो नाना प्रकार की वेशभूषा तथा सुंदर शोभा से प्रकाशित हो रहे थे, उन राजकुमारों से वह नगर भरा पड़ा दिखाई देता था । ऐसे राजनगर को देख नारद जी मोहित हो गए ।

जब राजा ने नारदजी को आते देखा तो उन्हें सादर प्रणाम करके स्वर्ण सिंहासन पर बैठा कर उनकी पूजा की और अपनी देव सुंदरी कन्या को बुलाकर उनके चरणों में प्रणाम करवाया और बोला हे मुनिराज आप सर्वश्रेष्ठ त्रिकालज्ञ हैं, अतः आप अपने हृदय में विचार कर इस कन्या के गुण एवं दोषों को कहिए ?

राजा के ऐसे वचन सुनकर नारदजी बोले- हे राजन् आपकी कन्या भगवती है । इसका पति तो त्रिलोकीनाथ, तीनों लोकों में विजय पाने वाला, शिवजी के समान वीर, कामदेव को जीतने वाला महा यशस्वी होगा।

यह कहकर नारद जी चलने लगे परंतु शिव माया से मोहित होकर के कामासक्त होने के कारण रुक गए । तब उनके मन में विचार आया कि यह कन्या मुझे प्राप्त हो जाए तो अच्छा है। परंतु मुझे इसको पाने के लिए क्या उपाय करना चाहिए ? क्योंकि इन राजाओं के सामने यह कन्या भला स्वयंवर में मुझे किस प्रकार वरेगी।

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हां एक उपाय है- मैं विष्णु भगवान का रूप लेकर जाऊं तो अवश्य कार्य सिद्ध हो जाएगा। यह विचार कर नारद जी-
विष्णुलोकं जगामाशु नारदः स्मरविह्वलः।
विष्णुलोक में जा पहुंचे और विष्णु भगवान को नमस्कार कर बोले- हे भगवन राजा शीलनिधि की कन्या अत्यंत सुंदरी है , उसका स्वयंवर हो रहा है मेरी इच्छा है कि उसका विवाह मेरे साथ हो जाए। इसलिए आप कृपा करके अपना रूप मुझे प्रदान कर दीजिए।
आपन रूप देहु प्रभु मोहीं। आन भांति नहिं पावौं ओही।।
जेहि विधि नाथ होइ हित मोरा। करहुँ सो बेगि दास मैं तोरा।।
निज माया बल देखि बिसाला। हिंय हरि बोले दीन दयाला।।
विष्णु भगवान बोले- हे नारद आप वहां अवश्य ही जाइए मैं उसी तरह आपका हित साधन करूंगा जैसे- श्रेष्ठ वैद्य अत्यंत पीड़ित रोगी का हित करता है, क्योंकि आप मुझे विशेष प्रिय हैं ।
कुपथ मागरुज व्याकुल रोगी। बैद न देइ सुनहुं मुनि जोगी।।
एहि बिधि हित तुम्हार मै ठयऊ। कहि अस अंत रहित प्रभु भयऊ।।
ऐसा कह कर भगवान विष्णु ने नारद मुनि को मुख तो वानर का दे दिया और शेष अंगों में अपने जैसा स्वरूप देकर के वहां से अंतर्ध्यान हो गए। बंदर का एक नाम हरि भी है ।

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तब तो नारद जी अत्यंत प्रसन्न होते हुए अपने को परम सुंदर समझते हुए शीघ्रातिशीघ्र स्वयंवर में आ गए और अपने आप को सभा में बैठे हुए इंद्र के समान शोभा युक्त समझने लगे ।
उस सभा में रुद्रगण ब्राह्मण के रूप में बैठे हुए थे वे इस भेद को भलीभांति जानते थे । नारद जी का बानर रूप केवल कन्या को ही दिखाई दे रहा था बाकी सब नारद जी का वास्तविक रूप देख रहे थे।

हे ऋषियों जब वह कन्या हाथ में जयमाला लिए अपनी सखियों के साथ स्वम्बर में आई तो नारद जी के बानर रूप को देखकर वह अत्यंत क्रोधित हुई। वह कन्या नारद जी की ओर तो भूलकर भी नहीं गई और जब उसे अपने योग्य कोई भी वर दिखाई नहीं दिया तो वह बहुत ही उदास हो गई।

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