shiv puran katha in hindi pdf शिव पुराण हिंदी में
तेरह मुखी रुद्राक्ष धारण करने से समस्त पाप नष्ट हो जाते
हैं। चौदह मुख वाला रुद्राक्ष परम शिवरूप है।
पार्वती अब मैं तुम्हें रुद्राक्ष धारण के मंत्र सुनाता हूं-
1- ॐ ह्रीं नमः, 2- ॐ नमः, 3- ॐ
क्लीं नमः, 4- ॐ ह्रीं नमः, 5- ॐ हीं
नमः, 6- ॐ ह्रीं हुं नमः, 7- ॐ हुं नमः,
8- ॐ हुं नमः, 9- ॐ ह्रीं हुं नमः, 10-
ॐ ह्रीं नमः, 11- ॐ ह्रीं हुं नमः, 12-
ॐ क्रौं क्षौं रौं नमः, 13- ॐ ह्रीं नमः,
14- ॐ नमः।
इन चौदह मंत्रों को क्रमशः एक से लेकर चौदह मुख वाले रुद्राक्ष को
धारण करने का विधान है।
विना मन्त्रेण यो धत्ते रुद्राक्षं भुवि मानवः।
स याति नरकं घोरं यावदिन्द्राश्चतुर्दश।। वि-25-83
इस पृथ्वी पर जो मनुष्य मंत्र के द्वारा अभिमंत्रित किए बिना ही रुद्राक्ष
धारण करता है , वह क्रमशः चौदह इन्द्रों के काल पर्यंत घोर नरक को जाता है ।
भष्म रुद्राक्षधारी यः शिवभक्तः स उच्यते।
पञ्चाक्षर जपासक्तः परिपूर्णश्च सन्मुखे।। वि-25-90
भष्म रुद्राक्ष धारण करने वाला मनुष्य शिवभक्त कहलाता है , भष्म एवं रुद्राक्ष युक्त होकर जो मनुष्य शिव प्रतिमा के सामने स्थित होकर
ॐ नमः शिवाय इस पंचाक्षर मंत्र का जाप करता है वह पूर्ण भक्त कहलाता है।
जो इस रुद्राक्ष के महत्व को सुनता है उसकी सभी कामनाएं पूर्ण हो
जाती हैं और वह मोक्ष को प्राप्त करता है ,शिवजी का अति
प्रिय हो जाता है ।
बोलिए भगवान शंकर की जय
शिव महापुराण की जय
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( रूद्र संहिता- सृष्टि खंड )
वन्देन्तरस्थं निजगूढरूपं , शिवं स्वतः स्तष्टुमिदं विचष्टे।
जगन्ति नित्यं परितो भ्रमन्ति, यत्सन्निधौ
चुम्बकलोहवत्तम्।। रु•सृ•1-3
जिस प्रकार लोहा चुंबक के आकर्षित होकर उसके पास ही लटकता रहता है, उसी प्रकार यह समस्त विश्व और सदाशिव जिसके आसपास भ्रमण करते हैं ,
जिन्होंने स्वयं ही उस प्रपंच को रचने की विधि बतलाई, जो सब के अंतः करण में अंतर्यामी रूप से विराजमान हैं तथा जिन का स्वरूप
जानना अत्यंत दुर्लभ है, मैं उन भगवान शंकर जी की आदर सहित
वंदना करता हूं ।
( ऋषिगणों की वार्ता )
ऋषि बोले- हे सूत जी अब आप कृपा करके शिव का प्राकट्य, उमा की उत्पत्ति, शिव उमा का विवाह के अनंत चरित्र
है उन्हें सुनाइए!
सूतजी बोले- हे ऋषियों आप लोगों के प्रश्न ही पतित पावनी श्री गंगा
के समान हैं, ये सुनने कहने व पूछने वालों को तीनों को
पवित्र करने वाले हैं। आपके प्रश्नों के अनुसार ही नारद जी ने अपने पिता श्री
ब्रह्मा जी से प्रश्न किया था ,तब ब्रह्माजी ने प्रसन्न होकर
शिवचरित्र सुनाया था।
एकस्मिन्समये विप्रा नारदो मुनिसत्तमः।
ब्रह्मपुत्रो विनीतात्मा तपोर्थं मन आदधे।। रु•सृ•2-1
हे मुनिवर एक समय की बात है ब्रह्मा जी के पुत्र मुनि शिरोमणि विनीत चित्त
नारद जी ने तपस्या के लिए मन में विचार किया। हिमालय पर्वत में कोई एक परम शोभा
संपन्न गुफा थी जिसके निकट देव नदी गंगा निरंतर बहती थी।
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वहां एक महान दिव्य आश्रम था जो नाना प्रकार की शोभा से सुशोभित था,
वे दिव्यदर्शी नारद जी तपस्या करने के लिए वहां गए। हिमालय पर्वत की
एक गुफा में मौन होकर बैठे बहुत दिनों में पूर्ण होने वाला तप कर रहे थे।
उनके उग्र तप को देखकर इन्द्र डर गया और विचार करने लगा कहीं ऐसा ना
हो कि मेरे राज सिंहासन को पाने के लिए यह तप कर रहे हों। यह विचार कर इन्द्र ने
कामदेव को बुलाया और कहने लगा हे कामदेव तुम मेरे परम मित्र एवं हितैषी हो। देखो
नारद हिमालय पर्वत पर गुफा में बैठकर दृढ़ासन से तप कर रहा है कहीं ऐसा ना हो कि
वह वरदान में ब्रह्मा जी से मेरा राज्य सिंहासन ही मांग बैठे।
अतः तुम आज ही वहां जाकर उसके तप को भंग कर दो इंद्र की आज्ञा पाते
ही कामदेव वहां पहुंच गया। उसने नारद जी का मन विचलित करने के लिए अनेक प्रयत्न
किए परंतु नारद जी पर कोई असर नहीं पड़ा, यह तो सदाशिव की
कृपा ही थी क्योंकि-
अत्रैव शम्भुनाकारि सुतपश्च स्मरारिणा।
अत्रैव दग्धस्तेनाशु कामो मुनितपोपहः।। रु•सृ•2-18
पहले उसी स्थान पर काम शत्रु भगवान शिव ने उत्तम तपस्या की थी और वहीं पर
उन्होंने मुनियों की तपस्या का नाश करने वाले कामदेव को शीघ्र ही भस्म कर डाला था।
वैसे भी कामदेव की माया इस स्थान पर नहीं चल सकती थी क्योंकि जब सदा
शिव ने कामदेव को भस्म किया था तो उसकी पत्नी रति ने पति के जीवित होने के लिए
प्रार्थना की थी, देवताओं ने भी श्री महादेव जी से प्रार्थना
की तब महादेव जी ने कहा था-
जब यदुवंश कृष्ण अवतारा, होइहिं हरण महा महिभारा।
कृष्ण तनय होइहिं पति तोरा, बचन अन्यथा होहिं
न मोरा।।
कि कामदेव कुछ काल पर्यंत जीवित हो जाएगा किंतु इस स्थान पर और इसके अलावा
जहां तक यह भस्म होता दिखाई देता है वहां तक कि पृथ्वी में इसकी माया एवं कामबांण
सफल नहीं हो सकेंगे।
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जब इधर कामदेव का अपना प्रभाव मिथ्या सिद्ध हुआ वह शीघ्र ही स्वर्ग
लोक में इंद्र के पास लौट आए, वहां कामदेव ने अपना सारा
वृत्तांत और मुनि का प्रभाव कह दिया तत्पश्चात इंद्र की आज्ञा से वे वसंत के साथ
अपने स्थान को लौट गए ।
उस समय देवराज इन्द्र को बड़ा विस्मय हुआ, उन्होंने
नारद जी की भूरि भूरि प्रशंसा की, परंतु शिव की माया से
मोहित होने के कारण वे उस पूर्व वृतांत का स्मरण ना कर सके।
दुर्ज्ञेया शाम्भवी माया सर्वेषांप्राणिनामिह।
भक्तं विनार्पितात्मानं तया सम्मोह्यते जगत्।। रु•सृ•2-25
वास्तव में इस संसार में सभी प्राणियों के लिए शंभू की माया को जानना अत्यंत
कठिन है । जिसने अपने आपको शिव को समर्पित कर दिया है उस भक्त को छोड़कर संपूर्ण
जगत उनकी माया से मोहित हो जाता है ।
सदाशिव की कृपा से नारद जी ने बहुत काल तक तपस्या की अपने तप को
पूर्ण हुआ समझकर नारद जी उठे तो उन्हें कामदेव पर विजय प्राप्त करने का ध्यान आया।
तब उन्हें अपने मन में अभिमान हो गया कि मैं कामदेव को जीत लिया
हूं। इस प्रकार के अभिमान से उनका ज्ञान नष्ट हो गया तभी वे अपने काम विजय की कथा
श्री महादेव जी को सुनाने के लिए शीघ्र ही कैलाश पर्वत पर जा पहुंचे।
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वहां जाकर नारद जी ने शिव जी को प्रणाम करके अपनी तपस्या की सफलता
का समाचार तथा कामदेव पर विजय पाने का सब समाचार कह सुनाया।
मार चरित संकरहि सुनाए। अतिप्रिय जानि महेश सिखाए।।
बार बार बिनवउँ मुनि तोही। जिमि यह कथा सुनायहु मोही।।
तिमि जनि हरिहिं सुनावहु कबहूँ। चलेहुँ प्रसंग दुराएहु तबहूं।।
तब भक्तवत्सल महादेव जी ने नारद जी की प्रशंसा करते हुए कहा हे नारद
जी तुम धन्य हो। परंतु मेरी एक बात याद रखना कि यह सब समाचार अन्य किसी भी देवता
को ना सुनाना अर्थात विशेषकर विष्णु भगवान से इस बात को भूल कर ना कहना।