shiv puran katha in hindi pdf शिव पुराण हिंदी
अकार उत्तरात्
पूर्वमुकारः पश्चिमानतात्।
मकारोदक्षिणमुखाद बिन्दुः प्राङ्मुखतस्तथा।।
नादो मध्यमुखादेवं पञ्चधासौ विजृम्भितः।
एकीभूतः पुनस्तद्वदोमित्ये काक्षरोभवत्।। वि-10-18, 19
पहले मेरे उतरवर्ती मुख से आकार, पश्चिम मुख
से उकार, दक्षिण मुख से मकार, पूर्ववर्ती
मुख से बिंदु तथा मध्यवर्ती मुख से नाद उत्पन्न हुआ ।
इस प्रकार पांच अवयवों से युक्त होकर ओंकार का विस्तार हुआ है। इन
सभी अवयवों से युक्त होकर ओंकार का विस्तार हुआ । एकीभूत होकर ॐ अक्षर बना । इसमे
सारा जगत समाहित है ,यह मंत्र शिव और शक्ति दोनों का बोधक
है। इसी प्रणव से पंचाक्षर मंत्र की उत्पत्ति हुई है । जो मेरे शकल रूप का बोधक
है।
ॐ नमः शिवाय इस पंचाक्षर मंत्र से मातृका वर्ण प्रगट हुए है जो पांच
भेद वाले हैं। उसी से शिरो मंत्र तथा चार मुखों से त्रिपदा गायत्री का प्राकट्य
हुआ है। उस गायत्री से संपूर्ण वेद प्रकट हुए हैं और उन वेदों से करोड़ों मंत्र
निकले हैं। उन मंत्रों से विभिन्न कार्यों की सिद्धि होती है, परंतु इस प्रणव एवं पंचाक्षर से
सर्व सिद्धिरितो भवेत्। संपूर्ण मनोरथों की
सिद्धि होती है ।
यही प्रणव मंत्र को जप करने को वा दीक्षा देकर भगवान शिव अंतर्ध्यान
हो गए।
बोलिए महादेव
भगवान की जय
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( शिवलिंग स्थापना लक्षण विधि का वर्णन )
ऋषियों ने श्री सूत जी से पूंछा-
कथं लिङ्गं प्रतिष्ठाप्यं कथं वा तस्य
लक्षणम्।
कथं वा तत्समभ्यर्च्य देशे काले च केन हि।। वि-11-1
लिंग की कैसे और कहां स्थापना करनी चाहिए तथा उसके क्या लक्षण हैं?
सूत जी बोले- हे ऋषियों गंगा आदि पवित्र नदियों के तट पर अथवा जैसी
इच्छा हो वैसे ही लिंग की स्थापना करें परंतु पूजन नित्य प्रति होता रहे ।
पृथ्वी संबंधी द्रव्य, जलमय अथवा तेज से
अर्थात धातु आदि से बना हुआ, जैसे रुचि हो वैसे ही लिंग की
स्थापना करें ।
चल मूर्ति बनानी हो तो छोटी प्रतिमा (शिवलिंग) और अचल मूर्ति बनानी
हो तो बड़ी बनवाएं । मिट्टी, पत्थर और लोहा आदि धातुओं का
बारह अंगुल का लिंग सर्वोत्तम होता है । इससे न्यून (छोटा) होगा तो न्यून फल की
प्राप्ति होगी, अधिक का कुछ भी दोष नहीं है।
लिंग या बेर दोनों ही पूजा शिवपद को देने वाली है । जिस दृव्य से
शिवलिंग का निर्माण हो उसी से उसका पीठ भी बनाना चाहिए यही स्थावर ( अचल प्रतिष्ठा
वाले ) शिवलिंग की विशेष बात है । चर ( चल प्रतिष्ठा वाले ) शिवलिंग में भी लिंग
पीठ का एक ही उपादान होना चाहिए। किंतु- लिङ्गं
बाणकृतं बिना। बांणलिंग के लिए यह नियम
नहीं है ।
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शिवलिंग की लंबाई- लिङ्गं प्रमाणं
कर्तृणां द्वादशाङ्गुलमुत्तमम्। निर्माणकर्ता
के बारह अंगुल के बराबर होनी चाहिए । ऐसा ही शिवलिंग उत्तम कहा गया है इससे कम में
कम फल मिलता है । सबसे पहले-
आदौ विमानं शिल्पेन
कार्यं देवगणैर्युतम्।
तत्र गर्भगृहे रम्ये दृढे दर्पण सन्निभे।। वि-11-10
पहले शिल्प शास्त्र के अनुसार एक
विमान या देवालय बनवाएं जो देवताओं की मूर्तियों से अलंकृत हो उसका गर्भ ग्रह बहुत
ही सुंदर सुदृढ़ और दर्पण के समान स्वक्ष हो ।
जहां शिवलिंग की स्थापना करनी हो उस स्थान के गर्त में नीलम, लाल रत्न, वैदूर्य,
श्याम रत्न, मरकत, मोती,
मूंगा, गोमेद और हीरा इन नौ रत्नों को तथा
अन्य महत्वपूर्ण दृव्यों को वैदिक मंत्रों के साथ छोड़ें। सद्योजात आदि पांच वैदिक मंत्रों द्वारा शिवलिंग का पांच स्थानों में
क्रमशः पूजन करके अग्नि में हविष्य की अनेक आहुतियाँ दें और परिवार सहित भगवान सदा
शिव का पूजन करके गुरु स्वरूप आचार्य का दक्षिणा आदि देकर सत्कार करें ।
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सभी पीठ पराप्रकृति जगदंबा का स्वरूप है और समस्त शिवलिंग चैतन्य स्वरूप
हैं। जैसे- भगवान शंकर देवी पार्वती को गोद में बिठाकर विराजते हैं । उसी प्रकार
यह शिवलिंग सदा पीठ के साथ ही विराजमान होता है।
शिव को गुरु जानकर स्नान, वस्त्र,
गंध, पुष्प, धूप,
दीप, नैवेद्य, तांबूल
निवेदन और नमस्कार करें। सामर्थ्य अनुसार सामग्री से विधिवत पूजन करें ।
भक्त अपने अंगूठे को ही शिवलिंग मानकर उसका पूजन कर सकते हैं ,
उससे महान फल की प्राप्ति होती है ।
जो श्रद्धा पूर्वक शिव भक्तों को लिंग दान अथवा लिंग का मूल्य देता है उसे
महान फल की प्राप्ति होती है। जो नित्य दस हजार शिव मंत्र का जप करता है , अथवा जो प्रातः और सायं काल दोनों
समय एक एक हजार मंत्र का जप करें तो उसे शिव पद की प्राप्ति होती है ।
द्विजानां च नमः पूर्वमन्येषां च
नमोन्तकम्।
स्त्रीणां च केचिदिच्छन्ति नमोन्तं च यथा
विधि।। वि-11-42
द्विजों के लिए नमः शिवाय के उच्चारण का विधान है । द्विजेत्तरों के लिए
अंत में नमः पद के प्रयोग की विधि है । अर्थात वे शिवाय नमः इस मंत्र का उच्चारण
करें।
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स्त्रियों के लिए भी कहीं-कहीं विधि पूर्वक अंत में नमः जोड़कर उच्चारण का
ही विधान है , कोई-कोई ऋषि
ब्राह्मण की स्त्रियों के लिए नमः पूर्वक जप की अनुमति देते हैं वह नमः शिवाय का
जप करें।
पञ्चकोटि जपं कृत्वा सदाशिव समो भवेत। वि-11-43
पंचाक्षर मंत्र का पांच करोड़ जप करके मनुष्य भगवान् सदाशिव के समान हो
जाता है और एक दो तीन करोड़ मंत्र जपने वाला ब्रह्मादिकों का स्थान पाता है । यदि कोई ॐ इस मंत्र को एक हजार
बार जपे तो उसके सभी मनोरथ पूर्ण हो जाते हैं। विद्वानों को चाहिए कि आमरण शिव
क्षेत्र में निवास करें ।
जहां कहीं मनुष्यों द्वारा शिवलिंग पधराया होता है वहां की सौ हाथ भूमि शिव
क्षेत्र मानी गई है। जहां पुण्य ऋषियों ने लिंग पधराया हो वहां पर हजार हाथ की
दूरी पर शिव क्षेत्र कहा गया है और स्वयंभू लिंग के चारों ओर चार चार हजार हाथ तक
की भूमि को शिव क्षेत्र माना गया है।
शिवलिंग स्थान पर कुआँ, बावड़ी,
तालाब आदि होना आवश्यक है उसे शिवगंगा कहते हैं। ऐसे स्थान में दान
जप करना सर्वथा कल्याण प्रद है । दाह, दशांश मासिक , सपिंडीकरण, वार्षिक पिंड दान आदि शिव क्षेत्रों में करने
से सब पापों से मुक्ति करा देता है । शिव क्षेत्र में-
सप्तरात्रं वा वसेद्वा पञ्चरात्रकम्।
सात, पांच, तीन या एक रात अवश्य ही निवास करें इससे भगवान सदाशिव की विशेष कृपा
प्राप्त होती है। इतना सुनकर सौनक आदि ऋषियों ने कहा- हे सूत जी अब आप कृपा कर
हमें सभी पुण्य क्षेत्रों का वर्णन संक्षेप में सुनाइए - जिनका आश्रय लेकर सभी
नर-नारी शिव पद की प्राप्ति करते हैं ।
सूत जी बोले ऋषियों शिव क्षेत्रों में पाप करना वज्र की तरह दृढ़ हो जाता
है । अतः मुनियों पुण्य क्षेत्र में निवास करने पर किंचित भी पाप ना करें और जैसे
भी हो सके मनुष्य को चाहिए कि वह सर्वदा पुण्य क्षेत्र में निवास करें।