shiv puran katha in hindi pdf शिव पुराण हिंदी -9

 shiv puran katha in hindi pdf शिव पुराण हिंदी

   शिव पुराण कथा भाग-9  

shiv puran pdf शिव पुराण हिंदी में

हे वत्सो पहले जब मैं ज्योतिर्मय स्तंभ रूप से प्रगट हुआ था उस समय मार्गशीर्ष मास में आद्रा नक्षत्र था। जो पुरुष मार्गशीर्ष में आर्द्रा नक्षत्र होने पर मुझ उमापति का दर्शन करता है अथवा मेरी मूर्ति या लिंग की झांकी का दर्शन करता है वह मेरे लिए कार्तिकेय से भी अधिक प्रिय है।

उस शुभ दिन मेरे दर्शन मात्र से पूरा फल प्राप्त होता है और दर्शन के साथ-साथ अगर पूजन भी किया जाए तो उसके फल का वर्णन वाणी द्वारा नहीं किया जा सकता। इस रणभूमि में मैं लिंग रूप से प्रकट होकर बहुत बड़ा हो गया था उस लिंग के कारण यह भूतल लिंग स्थान के नाम से प्रसिद्ध होगा।

हे पुत्रों जगत के लोग इसका दर्शन और पूजन कर सकें इसके लिए यह अनादि और अनंत ज्योति स्तंभ अत्यंत छोटा हो जाएगा । यह लिंग सब प्रकार के भोगों को सुलभ कराने वाला और भोग तथा मोक्ष का एकमात्र साधन होगा ।

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इसका दर्शन स्पर्श तथा ध्यान प्राणियों को जन्म और मृत्यु से छुटकारा दिलाने वाला होगा। अग्नि के पहाड़ जैसा जो यह शिवलिंग यहां प्रकट हुआ है इसके कारण यह स्थान अरुणाचल नाम से प्रसिद्ध होगा । यहां अनेक प्रकार के बड़े-बड़े तीर्थ प्रगट हो जाएंगे। इस स्थान में निवास करने या मरने से जीवो का मोक्ष हो जाएगा।

ब्रह्मा विष्णु के युद्ध में जितनी सेना मारी गई थी उन सबको शिव जी ने अमृत वर्षा कर जीवनदान प्रदान किया और उन दोनों की परस्पर शत्रुता को यह कह कर समाप्त कर दिया कि मेरे ही शकल और निष्कल दो स्वरूप हैं और किसी के नहीं ।

बड़ा आश्चर्य है कि तुम लोग अज्ञान वश अपने को ईश्वर मान लिया था उसे नष्ट करने के लिए ही मैं युद्ध भूमि में आया था । अतः तुम अहंकार त्याग कर मेरी आराधना करो, मैं ही परम ब्रह्म हूँ और मेरी ही सब कलाएँ हैं।

मुझ गुरुदेव के वाक्य ही तुम्हारे लिए सदा प्रमाण है यह मैंने तुम्हारी प्रीति देख कर के ही कहा है । पहले मेरी ब्रह्म रूपता का बोध कराने के लिए निष्कल लिंग प्रकट हुआ था फिर तुम दोनों को अज्ञात ईश्वरत्व का स्पष्ट साक्षात्कार कराने के लिए मैं साक्षात जगदीश्वर ही शकल रूप में तत्काल प्रगट हो गया ।

अतः मुझ में जो ईशत्व है उसे ही मेरा शकल रूप जानना चाहिए तथा जो यह मेरा निष्कल स्तंभ है वह मेरे ब्रह्म स्वरूप का बोध कराने वाला है ।

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हे पुत्रों लिंग लक्षण युक्त होने के कारण ये मेरा ही लिंग चिन्ह है, तुम लोगों को यहां रहकर प्रतिदिन इस का पूजन करना चाहिए। यह मेरा ही स्वरूप है और मेरे समीप्य की प्राप्ति कराने वाला है।

महत्पूज्यमिदं नित्यमभेदा ल्लिङलिग्ङिनोः।। वि-9-43
लिंग और लिंगी में नित्य अभेद होने के कारण मेरे इस लिंग का महान पुरुषों को भी पूजन करना चाहिए। जहां जहां जिस किसी ने मेरे लिंग को स्थापित कर लिया वहां मैं अप्रतिष्ठित होने पर भी प्रतिष्ठित हो जाता हूं।

मेरे लिंग की स्थापना करने का फल मेरी समानता की प्राप्ति बताया गया है । एक के बाद दूसरे शिवलिंग की स्थापना कर दी गई तब फल रूप से मेरे साथ एकत्व ( सायुज्य मोक्ष ) रूप फल प्राप्त होता है ।

प्रधानतया शिवलिंग की ही स्थापना करनी चाहिए । मूर्ति की स्थापना उसकी अपेक्षा गौण है। शिवलिंग के अभाव में सब ओर से मूर्ति युक्त होने पर भी वह स्थान क्षेत्र नहीं कहलाता।

( सृष्टि, स्थिति आदि पांच कृत्यों का प्रतिपादन)

ब्रह्मा और विष्णु बोले-
सर्गादिपञ्चकृत्यस्य लक्षणं ब्रूहि नौ प्रभो। वि-10-1
हे प्रभो हम दोनों को सृष्टि आदि पांच कृत्यों का लक्षण बताइए ?
शिवजी बोले- हे पुत्रों सुनो 1-सृष्टि 2-स्थिति 3-संघार 4-तिरोभाव 5-अनुग्रह यह मेरे पांच कृत्य संसार में नित्य सिद्ध हैं।

इसमें जगत के आरंभ का नाम सर्ग, उसको रखने का नाम स्थिति, नष्ट करने का नाम संघार, अदल बदल करने का नाम तिरोभाव और संसार को सर्ग से मुक्त होने का नाम अनुग्रह है ।

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इन्हीं कर्मों के द्वारा मैं संसार का संचालन करता हूं। मेरे भक्तजन इन पांचों कृत्यों को पांचो भूतों में देखते हैं । सृष्टि भूतल में ,स्थिति जल में ,संघार अग्नि में ,तिरोभाव वायु में और अनुग्रह आकाश में स्थित है ।

पृथ्वी से सब की सृष्टि होती है, जल से सब की वृद्धि होती है, आग सब को जला देती है, वायु सब को एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाती है और आकाश सब को अनुग्रहित करता है यह विद्वान पुरुषों को जानना चाहिए ।

इन पांच कृत्यों का भार वाहन करने के लिए मेरे पांच मुख हैं। चार दिशाओं में चार मुख हैं और इसके बीच में पांचवा मुख है।

हे पुत्रों तुम दोनों ने तपस्या करके प्रसन्न हुए मुझ परमेश्वर से भाग्यवश सृष्टि और स्थिति नामक दो कृत्य प्राप्त किए हैं , दोनों तुम्हें बहुत प्रिय हैं। इसी प्रकार मेरे विभूति स्वरूप रुद्र और महेश्वर ने दो अन्य उत्तम कृत्य संघार और तिरोभाव मुझ से प्राप्त किए हैं। परंतु अनुग्रह नामक कृत्य कोई नहीं प्राप्त कर सकता ।

उन सभी पहले के कर्मों को तुम दोनों समयानुसार भुला दिया रुद्र और माहेश्वर अपने कर्मों को नहीं भूले हैं इसीलिए मैंने उन्हें अपनी समानता प्रदान की है। वे रूप, वेष, कृत्य, वाहन, आसन और आयुध आदि में मेरे समान ही हैं। हे पुत्रों अब तुम मेरे ओंकार नाम मंत्र का जप करो जिससे तुम्हें अभिमान पैदा ना हो ।

नंदिकेश्वर कहते हैं कि उमा सहित शिव जी ने उत्तर की ओर मुख करके ब्रह्मा और विष्णु को मंत्रोंपदेश किया। तब ब्रह्मा और विष्णु ने देवाधिदेव महादेव से हाथ जोड़कर कहा- है सर्वेश आपको नमस्कार है, हे संसार के रचयिता, हे पांच मुख वाले हम आपको बारंबार प्रणाम करते हैं।

जब इस प्रकार स्तुति कर दोनों ने गुरुदेव शिव जी को नमस्कार किया तब महादेव जी बोले हे पुत्रों मैंने तुमसे सभी तत्वों का वर्णन कर दिया और वह मंत्र भी बतला दिया है जिसको जप कर मेरे स्वरूप को भली-भांति जान सकते हो। मेरा बतलाया हुआ यह मंत्र भाग्य विधायक एवं सब प्रकार के ज्ञान को देने वाला है ।

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जो इसे मार्गशीर्ष में आद्रा नक्षत्र में ( शिव चतुर्दशी ) को जपता है उसे अत्यधिक फल प्राप्त होता है।
ॐ कारो मन्मुखाज्जज्ञे प्रथमं मत्प्रबोधकः।। वि-10-16
सबसे पहले मेरे मुख से ओंकार ( ॐ ) प्रकट हुआ जो मेरे स्वरूप का बोध कराने वाला है। ओंकार वाचक है और मैं वाच्य हूं , यह मंत्र मेरा स्वरूप ही है । प्रतिदिन ओंकार का निरंतर स्मरण करने से मेरा ही सदा स्मरण होता रहता है।

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