shiv puran katha in hindi pdf शिव पुराण हिंदी में
एक हजार चंद्रायण व्रत का फल ब्रह्म लोक है। जब तक जिसका जो अन्न खाता है
तब तक वह जो कुछ आत्म विचार, कीर्तन,
श्रवण आदि करता है उसका आधा फल दाता को मिलता है । इसी तरह लेने वालों को चाहिए कि वह जो वस्तु दान मे ले उसका कुछ अंश
दूसरों को दान करता रहे । वह तप करे या अन्य उचित साधनों से पाप का संशोधन कर दें
अन्यथा रौरव नर्क में जाना पड़ता है । मनुष्य को चाहिए
कि वह-
आत्म वित्तं त्रिधा कुर्याद्धर्मवृद्ध्यात्म
भोगतः।
नित्यं नैमित्तकं काम्यं कर्मकुर्यात्तु
धर्मतः।। वि-13-72
अपने प्राप्त किए धन के तीन भाग करें- 1 धर्म , 2 वृद्धि के लिए तथा 3 अपने
उपभोग के लिए । नित्य, नैमित्तिक और काम्य यह तीनों प्रकार
के कर्म धर्मार्थ रखे हुए धन से करें । साधक को चाहिए कि वह वृद्धि के लिए रखे हुए
धन से ऐसा व्यापार करें जिससे उस धन की वृद्धि हो तथा उपभोग के लिए रक्षित धन से
हित कारक परिमित एवं पवित्र भोग भोगे ।
खेती से पैदा धन का दसवां अंशदान कर दे इसे पाप की शुद्धि होती है । शेष धन से धर्म वृद्धि एवं
उपभोग करें अन्यथा रौरव नरक में जाना पड़ता है । बुद्धिमान को चाहिए कि दान देकर
दूसरों से ना कहे, कानों से सुना और आंखों से देखा दोष भी ना
कहे।
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प्रातः एवं सायं समय संध्या एवं हवन करें यदि दोनों समय नहीं तो एक समय
अवश्य करें।
( यज्ञों का वर्णन , वारों का निर्माण
)
ऋषि गण बोले- हे प्रभु अग्नि यज्ञ, देव यज्ञ,
ब्रम्ह यज्ञ, गुरु पूजा तथा ब्रह्म तृप्ति का
क्रमशः हमारे समक्ष वर्णन करिए ।
सूत जी बोले- हे महर्षियों गृहस्थ पुरुष अग्नि में जो प्रातः काल,
सायं काल जो चावल आदि द्रव्य की आहुति देता है उसी को अग्नि यज्ञ
कहते हैं ।
अग्नौ जुहोतियद् द्रव्यमग्नि यज्ञः स उच्यते।
ब्रह्मचर्याश्रमस्थानां समिदाधानमेव हि।। वि-14-2
जो ब्रह्मचर्य आश्रम में स्थित है उन ब्रह्मचारियों के लिए समिधा का
आधान ही अग्नि यज्ञ है , वह समिधा का ही अग्नि में हवन करें।
जिन्होंने बाह्य अग्नि को विसर्जित करके अपनी आत्मा में ही अग्नि का आरोप कर लिया
है ऐसे वानप्रस्थियों को और सन्यासियों के लिए यही हवन या अग्नि यज्ञ है कि वह
विहित समय पर हितकर परिमित और पवित्र अन्न का भोजन कर लें।
हे ब्राह्मणों सायं काल की अग्नि आहुति से संपत्ति और प्रातः काल की
अग्नि आहुति से आयु बढ़ती है। दिन में इन्द्रादिक देवताओं के उद्देश्य से अग्नि को
जो आहुति दी जाती है वह देवयज्ञ कहलाता है।
हे ऋषियों महादेव जी ने सर्वलोकों के कल्याणार्थ वारों का निर्माण
किया-
संसार वैद्यः सर्वज्ञः सर्वभेषजभेषजम्।
आदावारोग्यदं वारं स्ववारं कृतवान्प्रभुः।। वि-14-13
वे भगवान शंकर संसार रूपी रोगों को दूर करने के लिए वैद्य हैं। सब के ज्ञाता
तथा समस्त औषधियों के भी औषध हैं । उन भगवान ने पहले अपने वार की कल्पना की जो
आरोग्य प्रदान करने वाला है। अर्थात आदित्यवार बनाया।
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पुनः सप्ताह के शेष छै वारों को उनके गुणों के अनुसार वैसे ही रचना
की। उन्होंने प्रत्येक दिन का उसका देवता और फल नियत कर दिया । जिनसे आरोग्य,
संपत्ति, व्याधि, नाश,
पुष्टि , आयु, भोग,
मृत्यु और हानि यह यथा क्रमशः प्राप्त होते हैं ।
इन दिनों के देवताओं की प्रीति से उनकी पूजा का वैसा ही फल देने
वाले भगवान शिव हैं । जिस देवता को प्रसन्न करना हो उसका मंत्र होम दान और जप करें
।
आरोग्यं सम्पदश्चैव व्याधीनां शान्तिरेव च।
पुष्टिरायुस्तथा भोगो मृतेर्हानिर्यथा क्रमम्।। वि-14-21
सूर्य आरोग्य के और चंद्रमा संपत्ति के दाता हैं, मंगल व्याधियों का निवारण करते हैं , बुध पुष्टि
देते हैं, बृहस्पति आयु की वृद्धि करते हैं, शुक्र भोग देते हैं और शनैश्चर मृत्यु का निवारण करते हैं ।
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( पूजन और लाभ )
नेत्र, सिर एवं कुष्ठ रोग की शांति के लिए
आदित्य देव की पूजा करके ब्राह्मणों को भोजन करावे तीन दिन , तीन महीने , तीन वर्ष अथवा इससे अधिक भी पूजा करने
का विधान है। पापों की शांति के लिए रविवार के दिन की पूजा उत्तम है जिसमें कि जप
आदि से इष्ट देव को प्रसन्न किया जा सकता है।
लक्ष्मी प्राप्ति के लिए सोमवार को लक्ष्मी जी की पूजा करें। रोग
शांति के लिए मंगलवार है , इसमें काली आदि का भजन पूजन करें
और उड़द ,मूंग आदि देकर ब्राह्मणों को भोजन करावें।
बुधवार के दिन विष्णु भगवान का दही , सेव आदि
अनेक प्रकार से पूजन करें तो सर्वदा पुत्र, मित्र, कलत्र (स्त्री) की पुष्टि होती है। बृहस्पति का दिन आयु वर्धक है इस दिन
ब्राह्मणों को गौ, देवताओं को उपवीत, वस्त्र
आदि प्रदान करें दूध, घी से पूजन करें।
भोगों का इच्छुक शुक्रवार को जितेंद्रिय हो षटरस भोजन युक्त देवताओं
और ब्राह्मणों की पूजा करें। स्त्री प्राप्ति के लिए शनिवार के दिन रूद्र आदि का
पूजन करें और काले तिल का होम करें तथा काले ही तिल का दान करें और तिल का ही भोजन
करावें।
देश काल और पात्र का विचार कर जो श्रद्धा सहित इन वारों के नियम का
पालन करता है, उसे उस देवोपासना द्वारा सब कुछ प्राप्त हो
जाता है।
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( स्थान व काल निरूपण )
ऋषि बोले- हे सूत जी अब आप कृपा कर हमें पूजा के योग्य स्थान एवं
समय बताइए ?
सूत जी कहने लगे- देव यज्ञादि कर्मों को शुद्ध ग्रह बराबर फल देने
वाला है , उससे दस गुना गौशाला भूमि वाला स्थान, उससे दस गुना अधिक जल का तट । उससे दस गुना अधिक बेल, तुलसी, पीपल, देवालय, तीर्थ, नदी का तट। उससे दस गुना ज्यादा सप्त गंगा का
तट- गंगा, गोदावरी, कावेरी, ताम्रपर्णी, सिंधु ,सरयू,
रेवा ये सातों नदियां सप्त गंगा कहलाती हैं ।
गङ्गा गोदावरी चैव कावेरी ताम्रपर्णिका।
सिन्धुश्च सरयू रेवा सप्तगङ्गाः प्रकीर्तिताः।। वि-15-45
सप्त गंगा से भी दस गुना अधिक फल समुद्र का तट और उससे दस गुना अधिक
फल पर्वत की चोटी पर पूजा करने से होता है। और-
सर्वस्यादधिकं ज्ञेयं यत्र वा रोचते मनः।
सबसे अधिक फल वहां जहां मन रम जाए । सतयुग में यज्ञ ,दान आदि से पूर्ण फल की प्राप्ति होती है, त्रेता
में तिहाई और द्वापर में आधा कलयुग में चौथाई और आधे से अधिक कलयुग बीतने पर इससे
भी कम फल प्राप्त होगा ।
परंतु शुद्ध हृदय से या धर्म या पूजन बराबर फल देता है और इन सबसे दस
गुना अधिक फल सूर्य ग्रहण पर तथा इससे भी दस गुना अधिक चंद्रग्रहण पर प्राप्त होता
है ।
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( दान )
नर नारी आदि जीव कोई भी हो वह अन्नदान का पात्र है - इच्छा वाले
को देना ही अभीष्ट फल दायक है, यदि मांगने पर दिया तो आधा फल,
सेवक को दिया तो चौथाई फल मिलता है । वेद पाठी ब्राह्मण को दान देने
से वैकुंठ की प्राप्ति होती है ।
मनुष्य को तप और दान यह दोनों ही सर्वदा करने चाहिए- विद्या की
कामना वाले मनुष्यों को ब्रह्म बुद्धि से बालकों को दशांग अन्न का दान करना चाहिए
। पुत्र की कामना वाले लोगों को-