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अनरण राजा की बात सुनकर हिमाचल कहने लगे- महर्षि अनरण्य
राजा की पूरी कथा सुनाइए- वशिष्ठ जी बोले-
मनोर्वंशोद्भवो राजा सो५नरण्यो नृपेश्ववरः।
इन्द्र सावर्णि संज्ञस्य चतुर्दशमितस्य हि।। रु•पा•34-1
हे गिरिश्रेष्ठ इन्द्र सावर्णि नामक चौदहवें मनु के वंश मे वह
अनरण्य राजा उत्पन्न हुआ था। वह अनरण्य भगवान शंकर के प्रिय भक्त थे। सात द्वीपों
पर इनका राज्य था, इन्होंने अपने कुल में भृगु जी को आचार्य
बनाकर सौ यज्ञ किए थे ।
इनकी पांच रानियां थी ।सौ पुत्र तथा लक्ष्मी के समान परम सुंदरी
पदमा नाम की कन्या थी। वह कन्या राजा तथा रानियों को बहुत प्यारी थी। राजा बड़े
उदारात्मा थे एक बार सब देवताओं ने कहा आप इंद्र के समान सिंहासन पर बैठ कर स्वर्ग
का राज्य करो, किंतु उन्होंने स्वीकार नहीं किया था।
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जब इनकी परम प्रिय कन्या विवाह के योग्य हुई तो उन्होंने उसके वर की
खोज के लिए चारों ओर पत्र भेजें । चारों ओर वर की तलाश होने लगी ।
इतने में तप करके लौटते हुए पिप्पलाद ऋषि ने एक वन में एक मनुष्य को
अपनी स्त्री के साथ विहार करते देख लिया। ऋषि के मन में भी कामना जाग गयी।
वह ऋषि अपने स्थान को गए एक दिन पिप्पलाद पुष्पभद्रा नामक नदी पर
स्नान करने गए। वहां अनरण्य की परम सुंदरी कन्या भी आई हुई थी । वह उसकी सुंदरता
देखकर मोहित हो गए। ऋषि ने कन्या के आसपास खड़े मनुष्य से उसका परिचय पूंछा।
उन्होंने कहा यह राजा अनरण्य की पदमा नाम की कन्या है। उन्होंने कहा
आपका मन इसपर मुग्ध हो गया है क्या ? जाकर राजा से माग क्यों
नहीं लेते?
इस प्रकार के हास्य युक्त वचन सुनकर मुनि लज्जित हो गए और अपने दिल
में उसे पाने की इच्छा भी कर ली। उसके बाद स्नान नित्यकर्म शिवपूजन आदि कर
पिप्पलाद राजा अनरण्य की सभा में चले गए ।
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राजा ने मुनि को देखकर प्रणाम किया और विधिवत पूजन करके उनको आसन पर
बिठाया। ऋषि से सेवा पूछी ! ऋषि ने राजा से उसकी कन्या की याचना की ! इतना सुनकर
राजा चुप हो गए ।
कुछ क्षण के बाद ऋषि फिर बोले- राजन अपनी कन्या शीघ्र ही मुझे दे दो
नहीं तो कुल के साथ तुम को भस्म कर दूंगा । इस प्रकार मुनि के कहने पर राजा रोने
लगे।
इस बूढ़े ऋषि को कन्या किस प्रकार दी जाए । लोग क्या कहेंगे ?
राजा इसी चिंता में घुल रहे थे, उसी समय
राजपुरोहित तथा राजगुरु वहां पर आ गए । राजा ने रोते-रोते उस ऋषि का वृतांत
सुनाया। पुरोहित तथा गुरुजी बिचार कर राजा से बोले- राजन आपको कन्या का किसी के
साथ विवाह तो करना ही है फिर इसके साथ ही विवाह क्यों न कर दें ।
जिससे आपके कुल की रक्षा हो जाए, इन ब्राह्मण
द्वारा कुल का विनाश हो जाना अच्छा नहीं । इस प्रकार पुरोहित एवं गुरु के वचन
सुनकर बुद्धिमान राजा ने अपने कुल की रक्षा के लिए अपने कन्या को वस्त्र आभूषणों
से अलंकृत करके मुनि को अर्पण कर दी।
मुनि भी विधि पूर्वक पदमा के साथ विवाह करके अत्यंत प्रसन्न होकर
राजा से विदा होकर अपने स्थान को चले गए। इस शोक में राजा राजपाठ छोड़कर वन में
चले गए और तप करके शंकर को प्रसन्न किया और शिवलोक को प्राप्त हो गए।
फिर अनरण राजा के बड़े पुत्र कीर्तिमान राज्य करने लगे । वशिष्ठ जी
ने कहा हिमाचल राज इस प्रकार अनरण्य राजा ने अपनी कन्या को देकर अपना कुल धन आदि
सबकी रक्षा कर ली। इसलिए अब तुम भी अपनी कन्या शिव को अर्पण करके सब देवताओं को
अधीन कर लो ।
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ब्रह्माजी बोले- नारद हिमाचल अनरण्य की कथा सुनकर कहने लगे आपने
बहुत सुंदर कथा सुनाई है । अब आप कृपा करके पिप्पलाद की कथा सुनावें। पद्मा के साथ
विवाह करके ऋषि ने कहां निवास किया और क्या किया ? वशिष्ठ जी
बोले- पर्वतराज
पिप्पलादो मुनिवरो वयसा जर्जरो५धिकः।
गत्वा निजाश्रमं नार्यानरण्यसुतया तया।। रु•पा•35-5
पिप्पलाद अत्यंत वृद्ध थे, कमर झुक गई थी, कांप
कांप कर चलते थे। इस प्रकार बूढ़े मुनि पदमा के साथ विवाह करके अपने कुटिया में
निवास करने लगे । वह पद्मा साक्षात लक्ष्मी थी, अपने पति को
साक्षात विष्णु समझकर उसकी सेवा करने लगी।
एक दिन पद्मा स्वर्णदा नामक नदी में स्नान करने गई, उसकी परीक्षा के लिए धर्मराज वहां आए उन्होंने राजाओं जैसा सुंदर रूप धारण
किया हुआ था। वस्त्र आभूषणों से शोभायमान नवयुवक, कामदेव के
समान लग रहे थे ।
रथ पर बैठे हुए थे उस पदमा के भाव जानने के लिए मार्ग में ही उससे
कहने लगे सुंदरी तुम तो राजरानी बनने योग्य हो ,बूढ़े
पिप्पलाद के योग्य तो नहीं हो, यह बूढ़ा कब तक जिएगा जो मौत
के घाट पर बैठा हुआ है। इसी कारण इस बूढ़े को त्याग कर मेरे साथ चलो, मैं तुम्हें हृदय की रानी बना लूंगा ।
इस प्रकार कहकर राजकुमार बने हुए धर्मराज रथ से उतरे और पदमा को
पकड़ने के लिए तैयार हो गए। तब तो पदमा थोड़ा हटकर क्रोध में आकर कहने लगी। अरे ओ
पापी दूर हट, मेरे शरीर का स्पर्श मत करना नहीं तो तू भष्म
हो जाएगा।
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काम से अंधे होकर मेरा पतिव्रत धर्म नष्ट करना चाहते हो। याद रख
मूर्ख यदि तू मुझे बुरे भाव से देखेगा तो शीघ्र ही नष्ट हो जाएगा। इस प्रकार पद्मा
ने जब उसे श्राप दे दिया तो उसने अपने राजाओं जैसा रूप त्याग दिया और अपने धर्म के
रूप में आकर कांपते हुए बोला-
मातर्जानाहि मां धर्मं ज्ञानिनां च गुरोर्गुरुम्।
परस्त्रीमातृबुद्धिं च कुर्वन्तं सततं सति।। रु•पा•35-25
हे माता मैं धर्म हूं, जो कि ज्ञानियों के गुरु का भी गुरु हूं।
मैं वही हूं जो सदा परस्त्री को अपनी माता मानता हूं । मैंने तो केवल आपकी परीक्षा
के लिए सब कुछ किया है।
मैंने आपके पतिव्रत धर्म की भली भांति परीक्षा कर ली है। मैंने यह
कोई अनुचित नहीं किया था , मुझे ईश्वर ने इसीलिए प्रकट किया
है कि धर्मात्मा पुरुष की धर्म संबंधी परीक्षा लेकर उन्हें धर्म में दृढ़ करता
रहूं ।
अब आपने मुझे श्राप दे डाला है उसका क्या होगा ? धर्मराज इतना कह पद्मा के पतिव्रत धर्म से प्रसन्न होकर चुपचाप खड़े हो गए
। तब पदमा आश्चर्य में आकर कहने लगी धर्मराज तुम तो समस्त जीवो के कर्मों के
साक्षी हो ।
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मेरी परीक्षा के लिए तुमने ढोंग रचा अब इसमें मेरा क्या वश है मैं
आपको श्राप दे चुकी हूँ , मेरा शाप तो अन्यथ नहीं हो सकता।
धर्म तुम चार पद वाले हो-
पादक्षयश्च भविता त्रेतायां च सुरोत्तम।
पादो५परे द्वापरे च तृतीयो५पि कलौ विभो।। रु•पा•35-40
सतयुग मे तुम्हारे चारो चरण रहेंगे ,त्रेता में तुम
तीन चरण वाले होवोगे, द्वापर में दो चरण और कलयुग में तुम
केवल एक चरण के रह जाओगे और कलयुग के अंत में सभी चरण तुम्हारे नष्ट हो जाएंगे।
फिर सतयुग लगने पर चारों पाद( चरण ) पहले की तरह हो जाएंगे ।
पतिव्रता के वचन सुनकर धर्मराज प्रसन्न होकर बोले तुम धन्य हो अपने
पति के चरणों में सदा प्रेम करोगी। तुम्हारा पति यौवनत्व को प्राप्त हो जाएगा।
उसका यौवन स्थिर रहेगा। मार्कंडेय के समान बड़ी आयु वाला, कुबेर
के समान धनी, इंद्र जैसा भैभववान, सुन्दर
स्वरूप वाला होगा ।
आपको अपने पति द्वारा दस पुत्र होंगे ,वह भी
गुणवान तथा दीर्घायु होंगे। वशिष्ठ जी बोले- इस प्रकार धर्म से वर पाकर पदमा
प्रसन्न होती हुई अपने घर आई और धर्म के दिए हुए वर के अनुसार अपने पति को पदमा
जवान हुआ देखकर प्रसन्न हुई और उसके साथ सुख विलास में मग्न हो गई।