शिव पुराण गीता प्रेस गोरखपुर PDF Download
सप्त ऋषि अथवा ब्रह्मा जी के ही पास जाकर अपना दुख सुनाओ
वही तुम्हारे संकट को काटेंगे। तब सारे देवता ब्रह्मा जी के पास गए और सारा
वृत्तांत सुनाया, ब्रह्मा जी ने कहा देवताओं मैं भगवान शंकर
की निंदा नहीं करूंगा ।
अब आप उन्हीं शंकर भगवान के पास जाकर अपना दुख बताओ वह कृपा करेंगे।
सारे देवता कैलाश पहुंचकर भगवान सदाशिव को प्रणाम कर स्तुति की और अपना कष्ट
सुनाया। देवताओं के कथन को सुनकर सदाशिव ने उनकी बात मान ली। देवता लोग प्रसन्न
होकर अपने लोक चले गए।
उसके बाद भगवान शंकर हाथ में त्रिशूल लेकर सुंदर सुंदर वस्त्र धारण
कर हांथ में स्फटिक धारण किए साधुओं जैसा रूप बनाकर हरी हरी बोलते हिमाचलराज की
सभा में पधारे । उस समय हिमाचल बंधुओं के साथ सभा में बैठे हुए थे, साधु रूप धारी रुद्र को सभा में देखकर हिमाचल सिंहासन से उठ खड़े हुए और
उन्हें सिंहासन पर विराजमान कराया।
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तब भगवान शंकर बोले- हिमाचल राज मैं वैष्णव ब्राह्मण हूँ। भिक्षा
मांगकर अपना पालन कर लेता हूं। मुझ पर गुरुदेव की परम कृपा है सब जगह बिना परिश्रम
अपनी इच्छा से भ्रमण करता हूं । मैंने सुना है कि तुम ने कमलों के समान नेत्रों
वाली अपने सुंदरी कन्या का निराश्रित एवं विचारहीन तथा भिक्षावृत्ति वाले शिव को
देने का विचार रखा है ।
हे शैलराज आपने अपने हानि लाभ का कुछ विचार नहीं किया, पार्वती को क्या मालूम वह तो उसी के साथ विवाह करेंगी ,अनुभव ना होने से उसको अपने दुख का ज्ञान नहीं है । शैलेंद्र तुम उसकी
बातों पर ना जाओ शिव के साथ उसका विवाह ना करो।
ब्रह्माजी बोले- नारद इस प्रकार कहकर शंकर भगवान चले गए। उस
ब्राह्मण की बात सुनकर मैना तो घबरा गई और बोली शैलराज इस ब्राह्मण ने किस प्रकार
शिव निंदा की है, आप थोड़ा शिव भक्तों से मिलकर इसका निर्णय
कर लीजिए। यदि ऐसा ही है तो पार्वती को कुरूप शिव के हाथ ना सौंपा जाए नहीं तो मैं
विश्व खा लूंगी ।
इस प्रकार कहते हुए मैना रोने लगी, इधर महादेव
जी ने कैलाश पर पहुंचकर सप्तर्षियों का स्मरण किया । सप्त ऋषि कल्पवृक्ष की भाति
शीघ्र ही वहां पहुंच गए।
तब उन्होंने कहा प्रभु आज्ञा करो उस समय सदाशिव ने कहा ऋषियों पापी
तारकासुर देवताओं को अत्यंत पीड़ा पहुंचा रहा है, ब्रह्मा जी
उसे वर दे चुके हैं और पार्वती जी ने मुझे पाने के लिए घोर तपस्या की है। उसकी
इच्छा अनुसार वर देना कर्तव्य है मैं पार्वती जी के साथ विवाह करना चाहता हूं ।
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इससे पूर्व मैं भिक्षुक रूप धारण कर हिमालय के पास गया था उन्होंने
मुझे परब्रह्म जाना और अपनी कन्या देने के लिए भी तैयार हो गए । उसके बाद देवताओं
की प्रार्थना करने पर फिर मैं ब्राह्मण का रूप धारण कर हिमालय के पास गया ,
मैंने अपनी निंदा आप ही कर डाली।
जिससे वह मुझसे अब घृणा करने लग गए। अब तो मेरे साथ पार्वती जी का
विवाह भी नहीं करना चाहते। इसी कारण तुम लोग शीघ्रता पूर्वक उनके पास जाओ ,
हिमाचल एवं मैना को समझा कर आओ, जिससे वे मेरे
साथ पार्वती का विवाह करा दें ।
यह सुनकर मुनिगण अत्यंत प्रसन्नता के साथ हाथ जोड़ कर चल दिए।
हिमाचल सूर्य के समान तेजस्वी मुनियों का दर्शन करके आनंद में उठ खड़े हुए। उनका
सत्कार करके उन्हें उत्तम आसन पर बिठाया और कहने लगे मैं धन्य हूँ।
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आपके दर्शनों से मैं कृतार्थ हुआ । आप तो पूर्ण काम है किंतु मुझे
भी अपना सेवक जानकर कुछ सेवा के लिए आज्ञा करें। मुनि बोले-
जगत्पिता शिवः प्रोक्तो जगन्माता शिवा मता।
तस्माद्येया त्वया कन्या शंकराय महात्मने।। रु•पा•33-1
भगवान शंकर जगत के पिता हैं और पार्वती जी जगत की जननी हैं और तुम श्री
पार्वती जी का विवाह भगवान शंकर के साथ करके अपने धर्म को सफल करो।
श्री गौरी जगत की मातु है, पिता शंकर भगवान ।
इन दोनों के चरणों में कोटि-कोटि प्रणाम ।।
ऋषियों के वचन सुनकर हिमाचल बोले- ऋषि गण आप लोग सत्य कह रहे हैं। लेकिन अभी
अभी वैष्णव ब्राह्मण ने आकर मुझे शिव के दोष बताकर शिव के साथ पार्वती के विवाह की
नाही कर दी है। जिससे पार्वती की माता कोप भवन में चली गई हैं, वह कहती हैं कि मैं अपनी पार्वती का विवाह शिव के साथ कदापि नहीं करूंगी
और मेरा भी ज्ञान भ्रष्ट हो चुका है।
इतना सुनकर सप्त ऋषियों ने अरुंधति को मैना के पास भेजा, वहां अरुंधति ने देखा कि मैना शोक मूर्छित होकर पड़ी हुई है । अरुंधति जी
ने कहा मैंना उठो वह जब अपने सामने अरुंधति को देखती हैं तो उठकर नमस्कार करती है।
बोली मेरे तो भाग्योदय हो गए जो आप पधारी हैं। आज्ञा करिए मैं आपकी
क्या सेवा करूं ? तब तो श्री अरुंधति जी ने मैना को भाति
भाति भगवान शंकर के विषय में अनेक प्रकार समझाया।
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फिर ऋषियों के पास आई ,इधर ऋषिगण भी हिमाचल को
समझा रहे थे कि महादेव संग अपनी पुत्री का विवाह करो । हिमाचल बोले- मैं चाहता हूं
कि मेरी पुत्री तो राजपुत्री है, राजाओ जैसे सुख भोगती है ।
किंतु शिव जी के घर तो धन वैभव आदि कुछ नहीं है।
वहां तो भोजन पदार्थ भी दिखाई नहीं देते, यह
कन्या वहां जाकर क्या खाएगी ? क्या सुख भोगेगी? अब आप ही बातों पर विचार करें ।
वशिष्ठ जी बोले- शैलराज तुम शिव स्वरूप को जानते ही नहीं। उनका
धनपति कुबेर सेवक है। उनके पास धन की कौन सी कमी है? जो सारे
संसार की उत्पत्ति पालन तथा संघार करते हैं उन्हें भोजन का क्या दुख है?
ब्रह्मा विष्णु तो उनके अंग हैं। उन्होंने मुख से सरस्वती , वक्षःस्थल से लक्ष्मी एवं अपने तेज से शिवा प्रकट किए हैं । भला उन्हें
दुख कैसे हो सकता है?
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तुम्हारी कन्या तो अनादि काल से उनकी पत्नी होती रही है एवं होती
रहेगी । तुम कन्या देने का वचन देकर अब उससे पीछे ना हटो।
अतस्त्वं स्वेच्छया कन्यां देहि भद्रां हराय च।
अथवा सा स्वयं कान्तस्थाने यास्यत्यदास्यसि।। रु•पा•33-47
आप अपनी इच्छा से इस कल्याणी कन्या को शंकर के निमित्त प्रदान कीजिए। अन्यथा
आप नहीं देंगे तो भी वह स्वयं अपने पति के पास चली जाएंगी।
शैलेंद्र यह समझ लो इसमें तुम्हारा एक भी शिखर ना रहेगा, इससे पहले इन्द्र ने पंख काट दिए क्या अब तुम अपने शिखरों को भी नष्ट करना
चाहते हो ? केवल कन्या के कारण अपना कुल क्यों नष्ट कर रहे
हो?
त्यजेत एकं कुलस्यार्थे श्रुतिरेषा सनातनी।
कुल की रक्षा के लिए एक का त्याग कर देना चाहिए ,यह सनातनी श्रुति है । शास्त्रों के वचन है । पूर्व काल में अनरण्य नामक
राजा ने अपनी कन्या ब्राह्मण को देकर उसके श्राप के भय से अपनी संपत्ति की रक्षा
की थी ।