शिव पुराण गीता प्रेस गोरखपुर PDF Download
पार्वती जी
बोली- विप्रवर इस प्रकार के शिव के दोष कह कर तो पहले सप्त ऋषि भी यहां से थक कर
के चले गए हैं । अब आप भी सुना रहे हो, जिस
शंकर ने विष्णु जी को अपनी सांसों द्वारा वेद पढ़ा दिए उनके समान विद्वान ही कौन
हो सकता है।
जो चराचर जगत के पिता हैं उनके भक्तजन मृत्यु को भी जीत लेते हैं ।
ब्रह्मा विष्णु इन्द्र आदि सभी देवता इन्हीं की रक्षा द्वारा अपने लोकों में सुख
पा रहे हैं । आठों सिद्धियां हर समय इनके चरणों में सर झुका कर खड़ी रहती हैं।
सर्व समर्थ शिव की निंदा करने वालों को तो कहीं स्थान नहीं मिलता,
उनके संपूर्ण पुण्य नष्ट हो जाते हैं इसलिए आपको शिव निंदा नहीं
करनी चाहिए-
शिव के बिन तन शव रहे ,मिले न मुक्ति मार्ग।
शिव देवों के देव हैं। शिव जी शक्ति प्रतिरूप।।
अब तो मैं आपकी पूजा कर चुकी हूं इसलिए इस अपराध
को क्षमा करे देती हूं। आगे भूलकर भी निंदा ना करना । पार्वती जी बोली- मुझे पूर्ण
विश्वास है मेरे महादेव पर । मेरे मनोरथ को अवश्य पूर्ण करेंगे।
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श्री पार्वती जी ऐसा कह कर चुप हो गई और श्री महादेव के ध्यान में
लग गई। तब विप्र वेश धारी भगवान शंकर ने कुछ कहना चाहा, तो
क्रोध आवेश में आकर पार्वती जी ने अपनी सखी बिजया से कहा- इस ब्राह्मण को यहां से
शीघ्र ही निकाल दो । यह शिव निंदा फिर से करने लग जाएगा।
शिव निंदा सुनने वाले भी पाप के भागी होते हैं ,शिव निंदक तो मार देने योग्य है। यदि ऐसा ना हो तो उस स्थान को शिवभक्त
स्वयं त्याग दें । इसलिए हम ही इस स्थान को छोड़कर के दूसरे स्थान को चली जाती
हैं।
इतना कहकर श्री पार्वती जी वहां से चलने लगी तब तो परम कृपालु
सदाशिव अपने ही रूप में आ गए और बोले-
कुत्र यास्यामि मां हित्वा न त्वं त्याज्या मया
पुनः।
प्रसन्नो५स्मि वरं ब्रूहि नादेयं विद्यते तव।। रु•पा•28-43
पार्वती जी तुम कहां चली? मैंने तुम्हें त्यागा नहीं है, अब तुम ही मुझे त्याग रही हो। मैं तो तुम पर अति प्रसन्न हूं वर मागों।
प्राणेश्वरी तुम तो अनादि काल से ही मेरी पत्नी हो अब लज्जा किस बात की ?
मैंने तुम्हारी अनेकों प्रकार से परीक्षाएं की हैं।
न त्वादृशीं प्रणयिनी पश्यामि च त्रिलोकके।
तुम्हारे सामान तो त्रिलोकी भर में भी कोई तपस्या करने वाला नहीं,
मैं तुम्हारे ही बस में हूं। प्रसन्न होकर गिरजा बोली- प्राणनाथ
त्वं नाथो मम देवेश त्वया किं विस्मृतं पुरा।
दक्षयज्ञ विनाशं हि यदर्थं कृतवान्हठात्।। रु•पा•29-5
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आप तो मेरे नाथ हैं क्या आप इस बात को भूल गए कि मेरे ही निमित्त
आपने दक्ष के यज्ञ का विनाश किया था। यद्यपि आप तो वही है किंतु मैं देवताओं की
कार्य सिद्धि के लिए मैना से उत्पन्न हुई हूं। हे देव देवेश देवता गण तारकासुर से
इस समय अत्यंत पीड़ित हो रहे हैं । भगवान यदि आप प्रसन्न हैं तो-
पतिर्भव ममेशान मम वाक्यं कुरु प्रभो।
हे प्रभो आप मेरे पति बनिए और मेरा वचन मानिए। अब
मैं पिता के पास जा कर यह सब प्रसन्नता का वृतांत सुनाये देती हूं और आप भिक्षुक
बनकर मेरे पिता से मेरी याचना करिए। जिससे वे आपके साथ मेरा विवाह कर दें।
यह सुनकर सदाशिव बोले देवी जैसा आप उचित समझो मैं वैसा ही कार्य
करने को तैयार हूं। श्री पार्वती जी बोली- आप श्री हिमाचल को जाकर कहें कन्यादान
करके पुण्य के भागी बनो और मुझको अपनी कन्या का सौभाग्य दो। पार्वती जी इस प्रकार
प्रार्थना कर चुप हो गई।
तब शंकर भगवान तथास्तु कहकर वहां से प्रस्थान किया। कैलाश जाकर वहां
नंदीश्वर आदि मुख्य मुख्य गणों को यह संपूर्ण वृतांत सुनाया। वह भी सुनकर अत्यंत
प्रसन्न हुए।
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सफलता प्राप्त कर पार्वती जी अपने माता-पिता के घर को चल पड़ी,
अब तो हिमाचल और मैना श्री पार्वती का आगमन सुनकर अपने पुरोहित ,संबंधी, मित्र आदि को साथ लेकर विमान में चढ़कर नगर
के बाहर पार्वती जी के दर्शन के लिए आए।
सब जय-जयकार करने लगे, राजमार्ग में स्त्रियाँ
मंगल कलश लेकर नाचने लगी और सौभाग्यवती नारियां हाथों में दीपक सजाकर मंगल गीत
गाने लगी, ब्राह्मण स्वस्ति वाचन करते हुए वेद ध्वनि करने
लगे-
द्विज वृन्दैश्च संयुक्ते कुर्वद्भिर्मङ्गलध्वनिम्।
शंख आदि अनेकों बाजे बजने लगे, श्री पार्वती जी आती हैं माता-पिता को प्रणाम करती
हैं , उन लोगों ने कंठ से लगाकर आशीर्वाद दिए। नगर में
पहुंचकर अत्यंत प्रसन्न होकर पार्वती जी की प्रशंसा करने लगे।
इसके बाद सब की प्रसन्नता के लिए हिमाचल श्री गंगा जी पर स्नान करने
को चले। उसी समय भगवान शंकर नट रूप धारण करके डमरु आदि बजाते तथा नाचते हुए मैना
के समीप आकर नाचने लगे। तथा शिव डमरु की ध्वनि करने लगे जिसे सुनकर एवं देखकर नगर
निकासी और मैना मोहित हो गई।
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पार्वती जी भी उनका त्रिशूल आदि चिन्ह देखकर अपनी सुध बुध भूल गई,
तब मैना स्वर्णपात्र में रत्न भर कर उन्हें भिक्षा देने लगी।
भिक्षुक रूप रुद्रदेव यह देखकर बोले- यदि आप प्रशन्न हो गई हैं तो अपनी कन्या का
दान मुझे कर दो।
ऐसा कह कर फिर नृत्य करने लगे । इतना सुनकर मैना क्रोध में आ गई और
उन्हें बाहर निकालने के लिए तत्पर हो गई। तब तक हिमालय भी गंगा स्नान कर लौटे अपने
आंगन में भिक्षु को देखकर मैना ने सारा वृत्तांत भी सुना दिया तब तो हिमाचल भी
क्रोध करके नौकरों से बोले इस नट को शीघ्र ही बाहर निकाल दो ।
सैनिकों ने उनको अग्नि के समान तेजस्वी देखा ,वह
सदाशिव को छू भी ना सके। सदाशिव अपने तेज से विष्णु आदि रूप दिखाए उन्हें देखकर
हिमाचल भी अत्यंत आश्चर्य में आ गए ।
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किंतु माया से मोहित हिमाचल ने उनके वचन नहीं माने, तब तो भगवान शंकर अन्तर्ध्यान हो गए। उसके बाद ही मैना तथा हिमाचल को समझ
आया, अरे यह तो स्वयं भगवान शिव ही थे जो स्वयं पधार कर
कन्या के भिक्षा मांगने आए थे। हमने क्या किया ?
सदाशिव को विमुख लौटा दिया, इधर देवताओं ने
विचार किया यदि हिमालय शिवजी में अनन्य भक्ति पूर्वक शंकर जी को अपनी कन्या दे
देंगे तो भारत में अवश्य ही निर्वाण पद प्राप्त कर लेंगे यदि अनंत रत्नों से पूर्ण
हिमालय वसुंधरा को त्याग कर चले जाएंगे तो निश्चय ही-
रत्नगर्भा भिधा भूमिर्मिथ्यैव भविता ध्रुवम्।
पृथ्वी का रतनगर्भा यह नाम गलत हो जाएगा। इस प्रकार आपस में विचार करते सब
देवता गुरु बृहस्पति के पास गए, उन्हें जाकर संपूर्ण वृतांत सुनाया और कहा
कि आप शीघ्र ही हिमाचल के पास पहुंचकर शिव निंदा करो। जिससे वह अपनी कन्या शिव को
न देकर और किसी को दे दें।
इस प्रकार सुनकर बृहस्पति जी ने शिव का स्मरण करके कहा-
सर्वे देवाः स्वार्थपराः परार्थध्वसं कारकाः।
कृत्वा शंकर निदां हि यास्यामि नरकं ध्रुवम्।। रु•पा•31-14
हे देवताओं तुम लोग स्वार्थ साधक और दूसरे के कार्य को नष्ट करने वाले हो।
शंकर जी की निंदा करके मैं निश्चित रूप से नरक चला जाऊंगा । अपने स्वार्थ में आकर
मुझसे शिव निंदा कराते हो । तुम लोग स्वयं ही वहां क्यों नहीं पहुंच जाते जिससे तुम्हारे
मनोरथ सिद्ध हो जाए।