शिव पुराण हिंदी में 64

 शिव पुराण हिंदी में

   शिव पुराण कथा भाग-64  

शिव पुराण हिंदी में

( हिरण्याक्ष वध )
नारद जी बोले- ब्रह्मन भगवान शंकर के चरित्र व लीला मुझसे और कहिए ? ब्रह्माजी बोले- जालंधर का वध सुनकर सत्यवती के पुत्र व्यास जी भी सनत कुमारों से यही बात पूछने लगे । तब उन मुनीश्वरों ने कहा- व्यास जी अब मंगल दायक शंकर के उस चरित्र को सुनो जिसमें अंधकासुर दैत्य ने शंकर के गाणपत्य पद को प्राप्त किया।
व्यास जी बोले- हे भगवन यह अंधक कौन था ? किस वंश में जन्म लिया ? वह किस कारण से इतना बलवान तथा महात्मा हुआ तथा वह किस नाम वाला तथा किसका पुत्र था ?

आप इन सारे रहस्यों का वर्णन कीजिए ? सनतकुमार जी बोले एक समय देवताओं के सम्राट भक्तवत्सल भगवान शंकर अपने गणों तथा पार्वती को साथ लेकर कैलाश से बिहार करने के लिए काशी आए। उन्होंने काशी को अपनी राजधानी बनाया ,भैरव को उसका रक्षक नियुक्त किया तथा पार्वती के साथ मनुष्यों को आनंद देने वाली नाना प्रकार की लीलाएं करने लगे।

एक बार वह मंदराचल पर्वत में गणों के साथ गए। एक बार माता पार्वती ने प्रेम परिहास करते हुए अपने हाथों से सदाशिव के नेत्रों को बंद कर दिए, शिवजी के नेत्र बंद हो जाने पर घोर अंधकार छा गया। सदाशिव के ललाट का स्पर्श करते ही उनके ललाट पर स्थित अग्नि की ऊष्णता से पार्वती जी के दोनों हाथों से श्वेत बिंदु टपकने लगे। तब उससे से एक बालक उत्पन्न हुआ जो भयंकर, विकराल मुख वाला, महा क्रोधी, अंधा, जटाधारी, बहुत रोमो से युक्त था।
वह जोर-जोर चिल्लाने लगा तब उसे देखकर गोर जी को बड़ा आश्चर्य हुआ, उन्होंने पूछा स्वामी यह घोर पुरुष कौन है ? तब शिवजी हंसते हुए बोले हे देवी यह तुम्हारा पुत्र है। जो तुम्हारे द्वारा मेरे नेत्रों को बंद करने पर पसीने से प्रकट हुआ है ।

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यह सुन भगवती ने करुणा पूर्वक अनेक उपायों से उसकी रक्षा का विधान किया । उसी समय हिरण्याक्ष नामक दैत्य अपने बड़े भाई की संतति वृद्धि को देखकर, पुत्र कामना से शंकर जी को प्रसन्न करने के लिए वन में तप करने गया, उसके तप से प्रसन्न होकर शंकर जी उसे वर देने गए। उसने कहा मुझे वीर्यवान पुत्र दीजिए शिव जी ने तथास्तु कह उसे पुत्र प्राप्ति का वर दिया और कहा मेरा अंधक नामक पुत्र बड़ा बलवान है, तू सारा दुख भूल उसी पुत्र को मुझसे मांग ले।
उस दैत्य ने शिव पार्वती की प्रदक्षिणा कर उस पुत्र को प्राप्त किया। फिर शिवजी अंतर्ध्यान हो गए। हिरण्याक्ष भी पुत्र प्राप्त कर अपने राज्य को आ गया और प्रचंड पराक्रमी वह दैत्य सदाशिव से पुत्र प्राप्त कर संपूर्ण देवताओं को जीतकर, इस पृथ्वी को अपने देश पाताल में ले कर चला गया।

इधर दैत्यों के राजा हिरण्याक्ष के आतंक से देवता व्याकुल हो गए उन्होंने सर्वात्मक यज्ञमय वाराहरूप विष्णु जी की आराधना कर उन्हें पाताल भेजा, उन्होंने वहां जाकर अपनी घोर दाडों के प्रहार से निशाचरों की सेना को मथकर सुदर्शन चक्र से हिरण्याक्ष का सिर काट, उसके राज्य पर अंधक का अभिषेक किया।

फिर अपनी दाड़ों पर पृथ्वी को उठा जल पर स्थापित किया और सब देवताओं ने प्रसन्न होकर उनकी स्तुति की। बाराह रूप भगवान अपने लोक चले गए । मुनि तथा अन्य जीव सुखी हो गए ।
बोलिए बाराह भगवान की जय

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व्यास जी बोले- जब देवद्रोही दैत्य मारा गया, तब उसके बड़े भाई ने क्या किया ? सनत कुमार जी बोले- जब वाराह रूप धारी विष्णु जी ने उसके भाई हिरण्याक्ष को मार दिया तो हिरण्यकशिपु क्रोध और शोक से युक्त हो भगवान से बैर करने लगा। उसने अपने दूतों को आदेश दिया कि जितने भी विष्णु के अनुयाई हैं सब देवता ऋषि मुनि मनुष्यों को मार डालो ।

वह असुर अपने स्वामी की आज्ञा शिरोधार्य कर देवताओं प्रजाओं का दमन करने लगे, उनके आतंक से लोकों का नाश होने लगा, देवता स्वर्ग छोड़ जहां-तहां छिप गए। इधर हिरण्यकश्यपु और शक्तिशाली होने के लिए मंदराचल पर्वत पर आकर एक अंगूठे के बल खड़े होकर भुजा उठा आकाश की ओर दृष्टि कर बड़ा ही घोर तप करने लगा।
हिरण्यकशिपु के तप ज्वाला से त्रिलोकी जलने लगी तब सब देवता ,ऋषि दुखी हो ब्रह्मा जी के पास गए। ब्रह्मा जी हिरण्यकशिपु के पास जाकर बोले- हे देत्यराज तुम्हारे घोर तप से मैं प्रसन्न हूँ तुमको जो चाहिए मुझसे वरदान मांगो ? हिरण्यकशिपु बोला- हे भगवन
मृत्योर्भयं मे भगवन्प्रजेश पितामहाभून्न कदापि देव।
शस्त्रास्त्रपाशाशनिशुष्कवृक्ष गिरीन्द्रतोयाग्निरिपु प्रहारैः।।
देवैश्च दैत्यैर्मुनिभिश्च सिद्धैः त्वत्सृष्टजीवैर्बहु वाक्यतः किम्।
स्वर्गे धरण्यां दिवसे निशायां नैवोर्ध्वतो नाप्यधतः प्रजेश।।
रु-यु-43-16-17
हे देव शस्त्र ,अस्त्र, पाश, वज्र, वृक्ष ,पहाड़, जल, अग्नि तथा शत्रुओं के प्रहार से और देव, दैत्य, मुनि, सिद्ध तथा आपके द्वारा रचित सृष्टि के किसी भी जीव से मुझे मृत्यु का भय ना हो । हे प्रजेश अधिक क्या कहूं -स्वर्ग में, पृथ्वी पर, रात एवं दिन में, ऊपर नीचे कहीं भी मेरी मृत्यु ना हो।
दैत्य के ऐसे वचन सुनकर ब्रह्मा जी ने तथास्तु कहकर वरदान दे दिया और बोले दैत्यराज उठो छियानबे हजार वर्ष तक दैत्यों का राज्य करो , फिर तो वह दानव मतवाला होकर सभी धर्मों को नष्ट करके , देवताओं को युद्ध में जीत कर तीनों लोकों को नष्ट करने का विचार करने लगा।

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सभी देवता दुखी होकर क्षीरसागर में गए वहां विष्णु जी से सारा दुख कहा । विष्णु जी तब नरसिंह रूप धारण कर उस दैत्य की नगरी में गए, प्रबल दैत्यों से युद्ध किया, उनको मारकर अनेकों का संघार किया। फिर निर्द्वन्द्व इधर उधर घूमने लगे। पुत्र प्रह्लाद ने अपने पिता से उन जगन्मय की बड़ी प्रशंसा की और कहा कि आप उनकी शरण में जाइए इसपर दैत्य ने अपने पुत्र को दुरात्मा कहकर बहुत डांटा और अपने विरोधियों को नरसिंह जी को पकड़ लाने की आज्ञा दी परंतु वे उनके समीप जाते ही जल गए।

जैसे अग्नि के समीप जाने से पतंगा दग्ध हो जाता है, उनके दग्ध हो जाने पर दैत्य राज स्वयं नरसिंह भगवान से युद्ध करने लगा, बड़ा युद्ध किया लेकिन प्रभु के आगे उसकी एक न चली और भगवान ने उसे पकड़ अपनी जघांओं पर रख उसके शरीर को अपने नखों से विदीर्ण कर, उसके सब अंग चूर्ण कर दिए।
प्रहलाद को बुला उसके पिता के राज्य पर उसे अभिषिक्त कर दिया। सब देवता प्रसन्न हो गए, विष्णु जी अपने लोक को चले गए।
बोलिए नरसिंह भगवान की जय
पद-
सूर् घनेरे फिरे पद गावत पै पद सूर सो स्वाद कहां है,
बहु ताल मजीरा बजात फिरे मीरा मतवारी सी चाल कहां है।
सिया राम कथा कितनों ने लिखी तुलसी सरसी मरजाद कहां है
नरसिंह बसे प्रति खंबन में पर काढबे को प्रहलाद कहाँ है।।

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