संपूर्ण शिव पुराण हिंदी में 65

 संपूर्ण शिव पुराण हिंदी में

   शिव पुराण कथा भाग-65  

संपूर्ण शिव पुराण हिंदी में

( अन्धक की अन्धता )
एक बार बिहार में तत्पर हिरण्याक्ष से उसके भाइयों ने हंसी करते हुए कहा कि-
किमंध राज्येन तवाद्य कार्यम् हिरण्यनेत्रस्तु बभूव मूढः।
अब तुम्हारा राज्य से क्या प्रयोजन है ? तुम्हारा पिता हिरण्याक्ष तो मूर्ख था, जिसने शिव जी की तपस्या से तुम्हारे जैसे नेत्रहीन और विरक्त रूप पुत्र को प्राप्त किया । तुम राज्य पाने योग्य कदापि नहीं हो सकते, भला कहीं दूसरे से उत्पन्न हुआ पुत्र भी राज्य में भाग पा सकता है ?
जब उन भाइयों से इस प्रकार की बात सुना वह दुखी होकर रात्रि में निर्जन वन में तप करने चला गया, वहां जाकर उसने दस हजार वर्ष तक मंत्र जपते हुए घोर तप किया और जब इतने में भी कुछ परिणाम ना निकला तो अपने शरीर को अग्नि में जला देना चाहा। तभी ब्रह्मा जी प्रकट हो गए और कहा दानव मैं तुमसे प्रसन्न हूँ जो चाहे वर मांग लो ?

उसने कहा मेरे भाइयों ने मेरा राज्य छीन लिया है, अतः वे सभी मेरे भृत्य हो जावें और मुझे कोई मार ना सके चाहे वह देवता, गंधर्व, यक्ष, नर और मनुष्य तथा नारायण और सर्वमय शंकर ही क्यों ना हो। तब उसकी ऐसी दारुण वाणी सुनकर ब्रह्मा जी को बड़ी शंका हो गई, उन्होंने कहा ऐसा नहीं हो सकता, तुम दूसरा वर मांगो।

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तब उसने कहा कि मेरे कहे वह सब वरदान मुझे प्राप्त हो हां केवल शंकर जी मुझे मार सके और कोई नहीं। तो ब्रह्मा जी ने कहा तथास्तु वरदान पाकर वह अपने घर को आया। प्रह्लाद आदि सभी दैत्य उसके भृत्य हो गए, उसने ब्रह्म वरदान से सब देवताओं को जीतकर वश में कर लिया, वह मदान्ध हो दुष्टों का साथ करने लग गया।
एक बार वह अपनी सेना के साथ मंदराचल पर्वत पर गया वहां की सुंदरता देख कर वहां रहने लगा । एक बार उस दानव के मंत्रियों ने आकर उसे एक सुंदर स्त्री का परिचय सुनाया कहा वह परम सुंदरी और तपस्विनी भी है, उसके पास जटा जूट धारी त्रिशूलधारी एक पुरुष भी बैठा है और उनके समीप वृक्ष से बंधा हुआ एक सुंदर वृषभ भी है।

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तब उसने अपने मंत्रियों को सुंदर स्त्री को लाने को भेजा और वह जाकर शिवजी से उनकी भार्या जगन्माता को देत्य मांगने लगे, तब शिवजी हंसने लगे बोले- अरे दुष्टों तुम सब मुझसे ऐसा क्या चाहते हो ? मैं चराचर जगत का स्वामी या गुप्त रहकर अपना एक पाशुपत व्रत कर रहा हूं। यह सर्वव्यापी सिद्धि रूपा मेरी स्त्री है, जो उचित हो इसी से मांग लो ऐसा कह तपस्वी शिवजी चुप हो गए ।
वे दूत अंधक के पास लौट आए और बढ़ा चढ़ाकर बहुत सी बातें उससे कही उसे सुनकर वह मूढ बुद्धि दैत्य क्रोध से जल उठा, स्वयं ही वहां जाने को खड़ा हुआ। मदिरा का पान कर प्रतापी अंधक अपनी सेना को ले वहां पहुंच गया और शिव गणों के साथ युद्ध किया।

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इस कांड से शिवजी को किंचित खेद हुआ बोले- देखो पार्वती संसार की क्या विलक्षणता है कि स्त्री के प्रसंग में कभी-कभी स्वजनों तथा अपनों से भी युद्ध करना पड़ता है और वह दूसरे स्थान को जाते हैं। पाशुपत व्रत का आरंभ करने जिसको हजारों वर्ष तक देवता दानव करने में समर्थ नहीं होते।
पार्वती उसी पर्वत पर अकेली शिवजी की प्रतीक्षा करती रहीं, वीरक पुत्र उनकी रक्षा करता रहा । अंधक की विशाल सेना से वीरक ने घोर युद्ध किया। पार्वती जी के स्मरण करते ही कई शक्तियां प्रकट हो गई और वह घनघोर युद्ध करने लगीं। एक हजार वर्ष बाद शंकर जी आ गए, उन्होंने देखा मरे हुए दैत्यों को शुक्राचार्य संजीवनी द्वारा जीवित कर रहे हैं तो क्रोधित हो शुक्राचार्य को निकल लिए।

तब दैत्यों का बल क्षीण होने लगा, भगवान शिव ने अपने प्रचंड त्रिशूल से अंधक की छाती को छेदते हुए उसे ऊपर उठा लिया। यह होते ही युद्ध शांत हो गया फिर भी उस दैत्येन्द्र के प्राण नहीं निकले उसने शिवजी की स्तुति की तब शिव जी प्रसन्न होकर उसे गणपति का पद दे दिया। युद्ध समाप्त हो गया हरि आदि देवता अपने स्थान को चले गए।
बोलिए पशुपतिनाथ भगवान की जय
शिवजी जब शुक्राचार्य को मुख के अंदर कर लिए तो वह बहुत प्रयास किए निकलने का मार्ग नाम मिला उनको, तब वह शुक्र रूप से बाहर आए तभी से शिव जी द्वारा इन भृगु पुत्र का नाम शुक्र हुआ।

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( शुक्र को मृत संजीवनी विद्या की प्राप्ति )
शुक्राचार्य वाराणसी में जाकर विश्वनाथ का ध्यान करते हुए बहुत समय तक तप करने लगे और शिव का ज्योतिर्लिंग स्थापन कर उनके आगे सुंदर एक रमणीक कूप खुदवाया और शिव जी की विधिवत पूजा किया। हजारों वर्षों तक घोर साधना तप करने पर शिव जी प्रसन्न होकर मृत संजीवनी विद्या का ज्ञान दिया।
शिवजी बोले- तुम मेरे आशीर्वाद से सूर्य तथा अग्नि का भी अतिक्रमण कर आकाश में एक विमल तारा होकर एक प्रकाशमान ग्रह भी होगे , तथा तुम्हारे सामने स्त्री पुरुष जो भी यात्रा करेंगे तुम्हारी दृष्टिपात से उनके कार्य नष्ट हो जाएंगे परंतु-
तवोदये भविष्यन्ति विवाहादीनि सुव्रत।
सर्वाणि धर्मकार्याणि फलवन्ति नृणामिह।। रु-यु-50-46
मनुष्यों के समस्त विवाह आदि धर्म कार्य आपके उदय काल में ही फल प्रद होंगे । आपके द्वारा स्थापित किए गए इस लिंग का नाम शुक्रेश्वर होगा जो मनुष्य इसकी अर्चना करेंगे उनकी कार्य सिद्धि होगी।
बोलिए शुक्रेश्वर महादेव की जय

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( बाणासुर आख्यान )
व्यास जी बोले- सनत कुमार जी अब कृपा कर आप मुझे वह कथा सुनाइए जिसमें शिवजी ने बाणासुर को गणपति पद प्रदान किया था। सनत कुमार जी बोले-
शृणु व्यासादरात्रां वै कथां शंभोः परात्मनः।
गाणपत्यं यथा प्रीत्या ददौ बाणासुराय हि।। रु-यु-51-3
हे व्यास जिस प्रकार शिव जी ने प्रसन्नता पूर्वक बाणासुर को गाणपत्य पद प्रदान किया, परमात्मा शिव जी के उस चरित्र को अब आप आदर पूर्वक सुनिए, इसमें शिव का कृष्ण जी के साथ युद्ध भी है।

पूर्वकाल में ब्रह्माजी के मानस पुत्र मरीच नामक प्रजापति हुए जो उनके सभी पुत्रों में जेष्ठ एवं महा बुद्धिमान मुनि थे। उनके पुत्र मुनि श्रेष्ठ महात्मा कश्यप हुए जो इस सृष्टि के प्रवर्तक हैं। उन कश्यप मुनि की तेरह पत्नियां थी जो दक्ष की पुत्रियां थी। उसमें सबसे बड़ी दिति के दैत्य और शेष कन्याओं से चराचर सब देवताओं की उत्पत्ति हुई।
ज्येष्ठ पत्नी दिति से महा बलवान दो पुत्र उत्पन्न हुए जिनमें हिरण्यकशिपु जेष्ठ तथा हिरण्याक्ष कनिष्ठ था। हिरण्यकशिपु के क्रम से ह्लाद, अनुह्लाद, सह्लाद तथा प्रहलाद चार पुत्र हुए। जिनमें प्रहलाद भगवान विष्णु के भक्त हुए। प्रह्लाद का पुत्र विरोचन हुआ जो दानियों में श्रेष्ठ था और जिसने ब्राह्मण रूपी इन्द्र के मांगने पर अपना सिर ही दे दिया था।
तस्य पुत्रो बलिश्चासीन्महादानी शिवप्रियः।
येन वामन रूपाय हरये दायि मेदिनी।। रु-यु-51-14
उस विरोचन का पुत्र महादानी एवं शिवप्रिय बली हुआ। जिसने वामनावतार धारण कर याचना करने वाले विष्णु को संपूर्ण पृथ्वी दान कर दी। उसी बली का औरस पुत्र बाण हुआ जो शिव भक्त था। वह दैत्यराज बाणासुर अपने बल से तीनों लोकों तथा उसके स्वामियों को जीतकर शोणितपुर में रहकर राज्य करता था ।

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एक समय उस महादैत्य ने अपनी हजार भुजाओं से अनेक प्रकार वाद्य यंत्र बजाया और तांडव नृत्य द्वारा शिवजी को प्रसन्न किया। शंकर जी वर मागने को बोले तो वह अपने नगर में निवास करने का वर मांगा। भक्त वत्सल शंकर जी वर देकर अपने गणों के साथ निवास करने लगे।
एक दिन मतवाला होकर बाणासुर युद्ध के लिए भगवान शंकर से ही कहा कि महादेव और कोई मुझसे युद्ध करने के लिए सामने नहीं आता। तब क्रुद्ध हो महादेव बोले अंहकारी तुझे धिक्कार है! तेरे मान का मर्दन करने वाला योद्धा जल्दी तेरे सामने आएगा। बाणासुर अपनी ध्वजा को स्वयं भग्न हुआ देख प्रसन्न हो युद्ध करने चला।

इधर राजकुमारी उषा के स्वप्न में अनिरुद्ध आते हैं और वे उन्हें प्राप्त करने की अभिलाषा से चित्रलेखा द्वारा उस राजकुमार को खोजने की बात की। वह चित्रलेखा देवताओं, गंधर्वों, सिद्धों, नागों, राम कृष्ण का चित्र बनाया। जैसे ही अनिरुद्ध का चित्र बना, देख वह लज्जित हो नीचे मुंह पर बहुत प्रसन्न हो गई।
चित्रलेखा से बोली कि यही पुरुष ने रात्रि में मेरे मन को चुराया है, वह चित्रलेखा बड़ी योगिनी थी रात्रि में ही द्वारिका जाकर सोते हुए अनिरुद्ध को लाकर उषा को दे दी। उषा बड़ी प्रसन्न हुई दोनों प्रेम पूर्वक रहने लगे साथ में।

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