शिव पुराण PDF Free Download 66

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   शिव पुराण कथा भाग-50  

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इस बात की सूचना जब द्वारपालों के द्वारा बाणासुर ने सुना तब क्रोधित हो सेना ले जाकर युद्ध किया और अनिरुद्ध को बांधकर कैद कर लिया और इधर जब द्वारिका मे नारद जी द्वारा अनिरुद्ध के बंदी होने का समाचार मिला तो श्री कृष्ण जी बारह अक्षौहिणी सेना लेकर बाणासुर की नगरी को घेर लिया ।

किधर उतनी ही सेना के साथ बाणासुर युद्ध में आया, बड़ा भीषण युद्ध हुआ। भगवान श्री कृष्ण ने जब वरुण देवता संबंधी अपने शीतल नामक ज्वर को छोड़ा। तब वह ज्वर दशों दिशाओं को जलाता हुआ शिवजी के समीप गया तब शिवजी ने भी अपना ज्वर छोड़ दिया-
माहेश्वरो वैष्णवश्च युयुधाते ज्वरावुभौ।
उस समय शिव ज्वर तथा विष्णु ज्वर आपस में युद्ध करने लगे। तब विष्णु ज्वर शिव जी की स्तुति की। शिव जी ने उसे छोड़ दिया यह देख श्री कृष्ण जी बड़े विस्मित हुए उन्होंने कहा- महादेव मैं आपकी ही प्रेरणा से अभिमानी बाणासुर की भुजाओं को काटने आया हूं। आप संग्राम से लौट जाइए।

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तब महादेव बोले मैं भक्तों के अधीन हूं । इसलिए आप मुझे जिम्भ्रण अस्त्र से जीम्भ्रण कीजिए फिर अपना कार्य कीजिए। श्री कृष्ण जी शिवजी पर जीम्भ्रण अस्त्र का प्रयोग कर शिवजी को युद्ध से विरत कर दिया और फिर बाणासुर की भुजाओं को काटना आरंभ किया। तब बाणासुर आर्तभाव से शिवजी को पुकारा तब वह आए और बाणासुर का वध ना करने की प्रार्थना की तब भगवान श्री कृष्ण बाणासुर को चारभुजा करके जीवनदान दिया ।

बाणासुर बड़े प्रेम से श्री कृष्ण को अंतःपुर में ले जाकर अपनी कन्या को अनिरुद्ध के लिए देकर बहुत से रत्न आदि सहित श्री कृष्ण जी का स्वागत किया। श्री कृष्ण अपने पौत्र को साथ ले कुटुंब सहित द्वारिका आ गए।
उसके बाद बाणासुर अपने अज्ञान को याद कर बड़ा दुखी हुआ और शिवजी के स्थान में जाकर रोने लगा। शिवजी की उसने बहुत स्तुति कि, वह प्रसन्न होकर प्रगट हो उससे वर मांगने को बोले। तो उसने कहा हे प्रभो सदैव मेरा मन आपमें लगा रहे तथा आप के भक्तों के साथ हमेशा प्रेम बना रहे।
शिव जी प्रसन्न हो वरदान दे अंतर्ध्यान हो गए। शिव जी के प्रसाद से बाणासुर ने महाकाल तत्व प्राप्त कर बड़ी प्रसन्नता प्राप्त की।

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( गजासुर वध वर्णन )
सनतकुमार जी बोले-
शृणु व्यास महाप्रेम्णा चरितं शशिमौलिनः।
यथावधीत त्रिशूलेन दानवेन्द्रं गजासुरम्।। रु-यु-57-1
व्यास जी अब शिव जी के उस चरित्र को सुनिए जिसमें उन्होंने दानवेन्द्र गजासुर को त्रिशूल से मार दिया था। देवताओं के हितार्थ देवी ने महिषासुर को मारा था और जिसका बदला लेने के लिए ही उसके पुत्र गजासुर ने उग्र तप कर ब्रह्माजी से वर प्राप्त किया था।

जब इस प्रकार ब्रह्माजी से वर प्राप्त कर वह अपने स्थान को आया तो, उसने सब दिशाओं तीनों लोकों सहित देवता, असुरों, मनुष्यों और इन्द्रादिकों सहित सब गंधर्वों और सबों को जीत लिया।

पृथ्वी पर जितने भी तपस्वी ब्राह्मण थे महिषासुर का पुत्र उन्हें क्लेश देने लगा, वह दैत्य जब काशी नगरी को आया तो सब देवता भागकर शिव जी की शरण में गए और उनकी स्तुति की तब शिव जी कुपित हो हाथ में त्रिशूल ले उस दैत्य को मारने चले। उस दैत्य ने शिवजी से बड़ा युद्ध किया, तलवार ले शिव जी को मारने दौड़ा, तब शिवजी त्रिशूल से उसका सिर छेदन कर दिए।

तब वह शिवजी को अपना स्वामी मानकर उनकी अनेक प्रकार से स्तुति करने लगा। तब शिव जी प्रसन्न हो वर मांगने को कहा तो उस असुर ने कहा-
यदि प्रशन्नो दिग्वासस्तदा नित्यं वसान मे।
इमां कृत्तिं महेशान त्वत्त्रिशूलाग्नि पाविताम्।। रु-यु-57-58
हे महेशान- दिगंबर यदि आप प्रसन्न हैं तो अपने त्रिशूल की अग्नि से पवित्र किए हुए मेरे इस देह चर्म को नित्य धारण कीजिए। शिवजी ने तथास्तु कहकर उसके शरीर को काशी क्षेत्र में मुक्ति दायक ज्योतिर्लिंग बनाया जिसका नाम कृत्तिवासेस्वर लिंग हुआ।
फिर शिवजी ने गजासुर के उस विस्तृत चर्म को ग्रहण कर अपना आच्छादन किया। गजासुर के वध से सब देवता शांत हुए।
बोलिए कृत्तिवासेश्वर महादेव की जय

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( निव्य्हाद वध )
सनत कुमार जी बोले- व्यास जी अब दुन्दुभि निव्य्हाद का चरित्र कहता हूं, जिसे महादेव जी ने मारा था। जब विष्णु जी द्वारा दिति का महाबली पुत्र हिरण्याक्ष दैत्य मारा गया तो उसके कारण दिति को बड़ा दुख हुआ। तब दुंदुभि निव्य्हाद ने आकर दिति को बड़ आश्वासन दिया और देवता किस प्रकार जीते जाएंगे यह विचार किया।

उसने कहा इसमें ब्राह्मण आदि कारण हैं क्योंकि ब्राह्मणों के द्वारा किए जाने वाले यज्ञों से ही देवताओं को बल प्राप्त होता है। तब वह जाना कि अधिक ब्राह्मणों की भूमि काशी है तो वह वहां जाकर ब्राह्मणों को मारने लगा, अनेक रूपों को धर लुक छिप ब्राह्मणों का भक्षण करने लगा । इस प्रकार उस दुष्ट ने बहुत से ब्राह्मण मार डाले।

एक समय शिवरात्रि में एक शिव भक्त शंकर जी की पूजा करके ध्यान करने में लगा हुआ था। वह दैत्य व्याघ्ररूप धारण किए था, परंतु ब्राह्मण तो शिव मंत्र रूपी कवच धारण किया था। जिससे वह शिव भक्त को खा ना सका। फिर भक्तों के रक्षक भगवान शंकर ब्राह्मण द्वारा पूजित लिंग से प्रकट हो गए, तब वह दैत्य पर्वत के समान अपना आकार बड़ा लिया, शिवजी ने एक ही मुष्टिका मारकर उस दैत्य के जीवन का अंत कर दिये। सभी ऋषि मुनि शिव जी की जय जयकार करने लगे।
बोलिए शंकर भगवान की जय

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( विदल उत्पल नाम दैत्यों का विनाश )
विदल तथा उत्पल नामक दो दैत्य थे उन्होंने तप करके यह वर मांग लिया था कि हम किसी पुरुष के हाथों ना मरें। इस प्रकार का वर प्राप्त कर उन्हें अभिमान आ गया अपनी भुजाओं के बल से सारे ब्रह्मांड को जीतकर अपने वश में कर लिया, फिर संपूर्ण देवताओं को युद्ध में परास्त कर दिया।
तब सब देवता दुखी होकर ब्रह्मा जी की शरण में गए और उनसे सारा दुख कहा, तब ब्रह्माजी बोले देवताओं यह दोनों दैत्य जगत जननी पार्वती से मारे जाएंगे । इस समय तुम सब धैर्य धारण कर शंकर जी का स्मरण करो? तब सब देवता शिव शिव कहते अपने लोक को गए।

इधर एक दिन देवर्षि नारद उन दैत्यों के पास पहुंचे और श्री पार्वती के रूप की आकर प्रशंसा की, भगवान शंकर की प्रेरणा ही ऐसी थी। उस रूप की प्रशंसा सुनकर दैत्य पार्वती को हरण करने की इच्छा करके प्रयत्न करने लगे। एक समय की बात है जब भगवान शिव विहार कर रहे थे, एवं श्री पार्वती जी अपनी सखियों के साथ गेंद उछाल उछाल क्रीडा कर रहीं थी।
तब इस दृश्य को देखकर वे दोनों दैत्य अपनी माया द्वारा शिवगणों का रूप धारण कर आकाश से नीचे उतरे और चंचलता के साथ कटाक्ष करते हुए पार्वती जी को देखने लगे। तब श्री महादेव जी जान गए कि यह दोनों दैत्य हैं और माया से ही अपना रूप मेरे गणों का रखा है। यही बात इशारे से भगवान शंकर ने पार्वती जी को समझा दी, तब श्री पार्वती जी खेलते खेलते अपनी गेंद उन दैत्यों पर फेंकी, गेंद लगते ही वे दोनों दैत्य चक्कर काटकर पृथ्वी पर गिर पड़े और उनके प्राण निकल गए।

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उन दैत्यों को मारकर वह गेंद लिंग स्वरूप को प्राप्त हुयी। उसी समय से वह लिंग कन्दुकेश्वर नाम से प्रसिद्ध हो गया । सभी दोषों का निवारण करने वाला वह लिंग ज्येष्ठेश्वर के समीप है। उस समय वहां शिवलिंग के प्रगट हो जाने के कारण विष्णु ब्रह्मादि देवता वहाँ आ गए । भगवान शंकर को प्रणाम एवं स्तुति आदि करके प्रसन्न किया। फिर शिव जी द्वारा वरों को प्राप्त कर अपने अपने लोक को चले गए।

जो मनुष्य इस अद्भुत चरित्र को प्रसन्न होकर सुनता या सुनाता है वह इस लोक में सब प्रकार के उत्तम सुखों को भोग कर परलोक में देवगणों के लिए भी दुर्लभ दिव्य गति को प्राप्त करता है।
बोलिए शिव महापुराण की जय
शिव महापुराण प्रथम खंड पूर्वार्ध संपूर्ण

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