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bhagwat katha sikhe

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शिव पुराण बुक डाउनलोड 67

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   शिव पुराण कथा भाग-67  

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शिव महापुराण कथा - शतरुद्र संहिता
( शिवजी के पांच अवतार )

शौनक जी बोले- सूत जी अब आप मुझसे शिवजी के अवतारों की कथा कहिए। सूतजी बोले- हे मुने यही बात पहले सनत कुमार जी ने साक्षात शिव मूर्ति नंदीश्वर से पूंछी थी तब नंदीश्वर ने कहा- हे सनत कुमार!
असङ्ख्याता हि कल्पेषु विभोः सर्वेश्वरस्य वै।
अवतारास्तथापीह वच्म्यहं तान्यथामति।। श-1-4
सर्वव्यापक तथा सर्वेश्वर शंकर के विविध कल्पों में यद्यपि असंख्य अवतार हुए हैं, फिर भी मैं अपनी बुद्धि के अनुसार यहां पर उनका वर्णन कर रहा हूं। श्वेत लोहित नामक उन्नीसवें कल्प में शिव जी का पहला सद्योजात नामक अवतार हुआ। उस कल्प में परम ब्रह्म का ध्यान करते हुए, ब्रह्मा जी की शिखा से श्वेतलोहित कुमार उत्पन्न हुए। तब उन्हें सद्योजात नामक जानकर ब्रह्मा जी प्रसन्न होकर उनका बार-बार चिंतन करने लगे ।

तब उनके चिंतन से परब्रह्म स्वरूपी बहुत से कुमार उत्पन्न हुए । सुनंदन ,नंदन ,विश्वनंदन इस प्रकार उनके नाम थे। तब सद्योजात शंभू ने ब्रह्मा जी को ज्ञान देकर सृष्टि उत्पन्न करने की शक्ति दी।
ततो विंशतिमः कल्पो रक्तो नाम प्रकीर्तितः।
इतने में रक्त नामक बीसवां कल्प आ गया और ब्रह्मा जी रक्त वर्ण के हो गए । फिर उनसे वैसा ही लाल लाल नेत्रों वाला, रक्त वर्ण का पुरुष प्रगट हुआ। तब उनको वामदेव शिव जानकर ब्रह्मा जी ने हाथ जोड़कर उनकी स्तुति की। उनसे बिरजा, विवाह, विशोक और विश्वभावन नामक चार पुत्र हुए और उन वामदेव शिव ने ब्रह्मा को सृष्टि करने की आज्ञा दी।

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इक्कीसवां कल्प पीतवाशा नामक हुआ इसमें ब्रह्मा जी पीतवर्ण धारण किए और उनके ध्यान से एक महाबाहु कुमार उत्पन्न हुआ। उसे उन्होंने शिव का अवतार जाना और शिव गायत्री जपने लगे। इसके बाद शिवनामक कल्प हुआ इसमें कृष्ण रूप के कुमार हुए। फिर विश्वरूप कल्प में ब्रह्मा जी के चिंतन के द्वारा सरस्वती का प्रादुर्भाव हुआ, साथ ही भगवान ईश प्रकट हुए।

( शिवजी की मूर्तियों का वर्णन )
शिवजी की आठ मूर्तियों में ही यह संसार स्थित है जैसे- सूत्र में मणियाँ पिरोयी होती हैं ।
शर्वो भवस्तथा रुद्र उग्रो भीमः पशोः पतिः।
ईशानश्च महादेवो मूर्तयश्चाष्ट विश्रुताः।। श-2-3
सर्व, भव, रुद्र, उग्र, भीम,पशुपति, ईशान और महादेव ये आठ मूर्तियां हैं। भूमि, जल, अग्नि ,पवन, आकाश, क्षेत्रज्ञ, सूर्य एवं चंद्रमा यह सभी शिव के आठ रूप अधिष्ठित हैं। महेश्वर शंकर का विश्वम्भरात्मक रूप जगत को धारण करके रखा है ।

परमात्मा शिव का भव रूप जलात्मक है जो संसार को जिलाने वाला है तथा जो संसार को पालता और चलाता है वह शिव का उग्र नामक रूप है। भीम स्वरूप सबको अवकाश देने वाला है। जो सभी आत्माओं का अधिष्ठान है वह प्रभु का पशुपति नामक रूप है।
सूर्य नाम से जो विख्यात होकर संपूर्ण जगत को प्रकाशित करता है वह महेश का ईशान नामक रूप है। अमृत किरणों वाला संसार का तृप्ति कर्ता चंद्रमा भगवान का महादेव नामक रूप है । परमात्मा शिव का आठवां रूप आत्मा है, जो सर्व व्यापक है इसलिए यह समस्त चराचर जगत शिव का ही स्वरूप है।
क्रियते यस्य कस्यापि देहिनो यदि निग्रहः।
अष्ट मूर्तेरनिष्टं तत्कृतमेव न संशयः।। श-2-15
यदि किसी के द्वारा जिस किसी भी शरीर धारी को कष्ट दिया जाता है तो , मानो अष्टमूर्ति शिव का ही वह अनिष्ट किया गया है, इसमें संशय नहीं है । कल्याण चाहने वालों को सभी के उपकार में निरत इन रूपों की उपासना करनी चाहिए।

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( शिव का अर्धनारीश्वर अवतार )
जब ब्रह्मा जी की रची हुई सृष्टि में विस्तार ना आया तो उन्हें बड़ी चिंता हुई। यह विचार आया कि बिना शिव के प्रभाव से सृष्टि का विस्तार ना होगा तो वह तपस्या करने लगे। तब शिवजी शीघ्र ही प्रकट हो गए तब ब्रह्माजी उनकी स्तुति करने लगे। शिवजी ने कहा वत्स मैं तुम्हारे मनोरथ को जानता हूं। तभी शिव जी ने अपने शरीर से शिवा देवी को पृथक कर दिया।

तब ब्रह्मा जी देवी की स्तुति कर प्रार्थना किए- शिवे अब आप मुझे नारी कुल की सृष्टि करने की शक्ति दीजिए। आप संसार की वृद्धि के लिए दक्ष की पुत्री होइए तब ब्रह्मा की इस याचना को सुनकर देवी ने कहा ऐसा ही हो। इसी समय से इस लोक में सृष्टि कर्म में स्त्रियों को भाग प्राप्त हुआ, तब ब्रह्मा जी प्रसन्न हुए और मैथुनी सृष्टि होने लगी।

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( व्यासों का वर्णन )
नंदीश्वर बोले- हे सनत कुमार अब शंकर जी के जिस चरित्र को हर्षित होकर रुद्र ने ब्रह्माजी से प्रेम पूर्वक कहा था उस चरित्र को सुनें। शिव जी बोले- हे ब्रह्मण बाराहकल्प के सातवें मन्वंतर में संपूर्ण लोकों को प्रकाशित करने वाले भगवान कल्पेश्वर जो तुम्हारे प्रपौत्र हैं, वैवस्वत मनु के पुत्र होंगे।
अनुग्रहार्थं लोकानां ब्राह्मणानां हिताय च।
उत्पत्स्यामि विधे ब्रह्मन्द्वापराख्य युगान्तिके।। श-4-4
हे ब्रह्मन उस समय लोकों के कल्याण के निमित्त तथा ब्राह्मणों के हित के लिए में प्रत्येक द्वापर युग के अंत में अवतार ग्रहण करूंगा। युगों के प्रवृत्त होने पर प्रथम युग में ( चतुर्युगी के ) प्रथम द्वापर युग में जब स्वयं प्रभु नामक व्यास होंगे, तब मैं ब्राह्मणों के हित के लिए उस कलि के अंत में पार्वती सहित, श्वेत नामक महा मुनि के रूप में अवतार लूंगा।

दूसरे द्वापर में जब सत्य नामक प्रजापति व्यास होंगे । तब मैं कलयुग में सुतार नाम से अवतार ग्रहण करूंगा। तीसरे द्वापर युग के अंत में जब भार्गव नामक व्यास होंगे तब मैं दमन नाम से अवतार ग्रहण करूंगा।
चौथे द्वापर में जब अंगिरा व्यास रूप में प्रसिद्ध होंगे तब मैं सुहोत्र नाम से अवतार ग्रहण करूंगा। पांचवे द्वापर में सविता नामक व्यास कहे गए हैं, उस समय मैं महा तपस्वी कंक नामक योगी के रूप में अवतार ग्रहण करूंगा। उसमें सनकादि चारों मुनि मेरे शिष्य होंगे।

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इसके बाद छठे द्वापर के आने पर लोक की रचना करने वाले तथा वेदों का विभाह करने वाले मृत्यु नामक व्यास होंगे। उस समय मैं लोकाक्षि नाम से अवतार ग्रहण करूंगा।
सातवें द्वापर के आने पर जब शतक्रतु नामक व्यास होंगे उस समय भी मैं विभु जैगीषव्य नाम से अवतरित होऊंगा। आठवें द्वापर में वेदों का विभाग करने वाले मुनि श्रेष्ठ वशिष्ठ वेदव्यास होंगे। उस समय मैं दधिवाहन नामक अवतार ग्रहण करूंगा। नौवें द्वापर युग के आने पर सारस्वत नामक मुनि श्रेष्ठ व्यास होंगे तब मैं ऋषभ नाम से विख्यात होकर अवतार लूंगा तथा मेरे पाराशर, गर्ग, भार्गव तथा गिरीश यह चार श्रेष्ठ योगी मेरे शिष्य होंगे। जिनके साथ मैं योग मार्ग को ही दृढ़ करूंगा तथा मेरे इस ऋषभ नाम का अवतार से संसार का बहुत कल्याण होगा।

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दशवें द्वापर युग में जब त्रिधामा नामक मुनि व्यास होंगे उस समय मैं हिमालय पर्वत पर अवतार ग्रहण करूंगा। ग्यारहवें द्वापर में जब त्रिव्रत नामक व्यास होंगे उस समय मैं कलयुग में गंगाद्वार पर तप नाम से अवतार लूंगा ।

बारहवें द्वापर में शततेजा नामक व्यास होंगे, उस समय मैं हेमकुंच स्थान पर अत्रि रूप से प्रसिद्ध होऊंगा। तेरहवें द्वापर में नारायण नामक व्यास होंगे तब मैं गंधमादन पर्वत पर बलि नामक महा मुनि के रूप में आऊंगा। चौदहवें द्वापर में रक्ष नामक व्यास होंगे तब मैं आंगिरस वंश में गौतम नाम से अवतार ग्रहण करूंगा।
पन्द्रहवें द्वापर में त्रय्यारूणि नामक व्यास होंगे उस समय मैं वेदशिरा नाम से अवतरित होऊंगा। सोलहवें द्वापर युग में जब देव नामक व्यास होंगे, उस समय मैं योग मार्ग का उपदेश करने गोकर्ण नाम से उत्पन्न होऊंगा। सत्रहवें द्वापर युग में देव कृतंजय नामक व्यास होंगे तब मैं हिमालय शिखर पर गुहावासी नाम से अवतार लूंगा।

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