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शिव पुराण कथा हिंदी में PDF 63

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शिव पुराण कथा हिंदी में PDF 63

शिव पुराण कथा हिंदी में PDF 63

 शिव पुराण कथा हिंदी में PDF

   शिव पुराण कथा भाग-63  

शिव पुराण कथा हिंदी में PDF

उसे सुनकर भगवान विष्णु बोले मैं शंखचूर्ण के सब वृत्तांत को जानता हूं, पूर्व काल से ही मेरा बड़ा भक्त है अब हमको शिवजी के शरण में चलना चाहिए। सब देवताओं को साथ ले विष्णु जी शिवलोक में पहुंचे । गणों के मध्य पंचमुख त्रिनेत्र शंकर जी बैठे हैं। जिनका गौर वर्णम शरीर बड़ा द्युतिमान है और त्रिशूल आदि धारण किए हैं, भष्म और रुद्राक्ष से शोभित हैं।
उन भगवान शंकर के चरणों में सभी देवताओं ने प्रणाम कर उनकी स्तुति की- हे प्रभु हम दुखियों की रक्षा कीजिए! हम शंखचूड से व्याकुल और बहुत त्रस्त हैं। शिव जी ने कहा- देवताओं मुझे सब ज्ञात है उसका वध अवश्य होगा, वह देवद्रोही तो है, परंतु धर्म में बड़ा विलक्षण है। लेकिन आप सब बिल्कुल भी चिंता ना करें।

भगवान शंकर ऐसा कह ही रहे थे कि उसी समय राधिका और पार्षदों के साथ श्री कृष्ण जी वहां पर आ गए। भगवान श्री कृष्ण ने शिवजी की स्तुति की-
देवदेव महादेव परब्रह्म सतांगते।
क्षमस्व चापराधं मे प्रसीद परमेश्वर।। रु-यु-31-22
हे देव देव - महादेव, हे परम ब्रह्म, हे सत्पुरुषों की गति , हे परमेश्वर मेरा अपराध क्षमा कीजिए मेरे ऊपर प्रसन्न होइए। आज मैं अपनी स्त्री सहित शापित हूं , मेरा श्रेष्ठ पार्षद सुदामा नामक गोप भी राधा के शाप से दानवी योनि को प्राप्त हुआ है, महादेव हमारा शापोद्धार कीजिए ?

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शिव जी ने कहा- गोपिकानाथ भय को त्याग सुखी हो जाइए, आगे चलकर आप का कल्याण होगा। वाराह कल्प में तरुणी राधा के साथ शाप भोगकर फिर आप अपने धाम को प्राप्त हो जाएंगे। सुदामा गोप दानव योनि को प्राप्त कर इस समय सारे जगत को दुख दे रहा है , उसका नाम इस समय शंखचूड है।
भगवान शिव ने ब्रह्मा और विष्णु जी से कहा आप दोनों, देवताओं को सुखी करने के लिए कैलाश को जाएं जहां मेरे पूर्ण रूप रूद्र का निवास है, मैंने ही देवताओं का कार्य करने के लिए पृथक रूप को धारण किया है। हे विष्णु - हे ब्रह्मण मुझमें और उनमें कोई भेद नहीं है-
आवयोर्भेद कर्ता यः स नरो नरकं व्रजेत्।
जो मनुष्य हम दोनों में भेद करेगा ( यानी रुद्र और शिव को अलग समझेगा ) वह नरक गामी होगा और कष्ट पाएगा। फिर तो राधा सहित श्री कृष्ण तथा विष्णु और ब्रह्मा भी भय रहित तथा आनंद युक्त हो शीघ्र ही अपने-अपने स्थान को लौट गए। देवताओं को भगवान शिव ने कहा तुम सभी अपने स्थान को जाओ मैं शंखचूड को अवश्य मारूंगा ।

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इसके बाद रुद्र भगवान अपने दूत को भेजा चित्ररथ को, वह जाकर शंखचूड़ को समझाया कि तुम देवताओं को उनका अधिकार दे दो नहीं शिवजी तुमसे युद्ध करेंगे । पुष्पदंत केे इस प्रकार कहने पर वह दानव हंसने लगा बोला- यह पृथ्वी वीर भोग्या है, मैं देवताओं के पक्षपाती रुद्र से युद्ध करूंगा।

तब पुष्पदंत लौट के सब शिव जी को कह सुनाया, तब दूत के इन वचनों को सुनकर शंकर क्रोधित हो गए और अपने विशाल गणों के साथ स्वयं युद्ध करने चल दिए। देवताओं और असुरों ने प्राण संहर्ता युद्ध किया, अनेक आयुधों का प्रहार किया , क्षण मात्र में ही पृथ्वी कटे हुए वीरों से पड़ गई।

भद्रकाली से शंखचूड का भीषण युद्ध हुआ उसके बाद स्वयं शिव जी अपने वाहन वृषभ पर चढ़े युद्ध भूमि में शंखचूड के सामने आए, तब शंखचूड रथ से उतरकर सिर झुका उन्हें प्रणाम किया, फिर विमान में बैठ युद्ध करने लगा। सौ वर्ष तक उसने शिवजी से युद्ध किया, फिर वह दानव अपनी माया शिवजी को दिखाने लगा। शिवजी उसकी माया को काट, उसके वध के लिए अपना वह त्रिशूल उठा लिया जिसका सहन करना तेजस्वी के लिए कठिन था। फिर उसी समय आकाशवाणी हुई-
छिप शूलं न चेदानीं प्रार्थनां शृणु शंकर ।
हे शंकर इस समय आप त्रिशूल मत चलाइए मेरी प्रार्थना सुनिए आप क्षण मात्र में- ( क्षणाद् ब्रह्माण्डनाशने। ) सारे ब्रह्मांड को नष्ट करने में समर्थ हैं। तब तो यह मात्र एक दानव शंखचूड के वध की क्या बात। फिर भी हे भगवान आप वेद की मर्यादा की रक्षा करिए । क्योंकि जब तक शंखचूड के पास विष्णु का कवच है और जब तक इसकी पतिव्रता स्त्री का सतीत्व है तब तक इसको ना जरा और नाम मृत्यु है ।

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इस प्रकार उस आकाशवाणी को सुनकर शिवजी ने वैसा ही किया और उस शूल को रोक रखा , फिर शिवजी की इच्छा से श्री विष्णु जी वहां गए और उन्होंने वृद्ध ब्राह्मण का वेश धारण कर शंखचूड से भेंट कर भिक्षा मागी। शंखचूड ने पूछा क्या चाहिए ? इस पर उस वृद्ध ने कहा- मैं इस प्रकार नहीं मानूंगा पहले आप प्रतिज्ञा कीजिए, शंखचूड ने प्रतिज्ञा की। ब्राह्मण ने कहा मैं आपका कवच चाहता हूं।
दानवराज ने प्राणों से भी प्यारा कवच ब्राह्मण को दे दिया, फिर उसी रूप से वे उसकी स्त्री तुलसी के समीप पहुंचे , माया विशारद विष्णु ने देवताओं के कार्य के लिए उनके साथ भक्ति से बिहार किया। फिर तो शिवजी को अवसर मिला उन्होंने विजय नामक एक जलता हुआ शूल उठा शंखचूड पर चला दिया। उस शूल ने उसका संघार कर दिया , आकाश में दुंदुभि बजने लगी, शिवजी के ऊपर फूलों की वर्षा होने लगी।
बोलिए शंकर भगवान की जय

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शंखचूड राजा भी शाप से मुक्त हो अपने पूर्ण रूप को प्राप्त हुआ, उसकी हड्डियों से एक प्रकार की शंख जाती पैदा हुई , जिसका जल शिवजी को छोड़कर सभी पर चढ़ाना ग्राह्य है।
विशेषेण हरे र्लक्ष्म्याः शंखतोयं महाप्रियम्।
विशेषतः विष्णु और लक्ष्मी जी को शंख का जल बहुत प्रिय है । उमा सहित नंदीश्वर पर चढ़कर स्कंद और शिव जी अपने लोक को गए और अंत में देवता भी स्वस्थता को प्राप्त हुए।
जो मनुष्य इस चरित्र का श्रवण करता है वह लोक में धन-धान्य, सुत तथा सुख प्राप्त करता है ।

( तुलसी श्राप वर्णन )
भगवान सदाशिव की आज्ञा से जब विष्णु भगवान तुलसी के पास गए और उसे मोहित कर दिए अपनी माया से, तो उसने श्राप दे दिया की - हे हरे तुम्हारा हृदय बहुत कठोर है । मैं तुम्हें श्राप देती हूं कि तुम पत्थर हो जाओ । ऐसा कहकर वृंदा अपने पति की मृत्यु का शोक करते हुए अत्यंत विलाप करने लगी, उसके बिलाप को सुन विष्णु जी ने शंकर का स्मरण किया।

शंकर जी शीघ्र ही वहां प्रकट हो गये उन्होंने उस दुखिया को जगत की नश्वरता समझाते हुए उसकी तपस्या का फल देकर कहा- कि इस शरीर को त्याग तुम दिव्य देह धारण कर हरि के साथ बिहार करोगी। तुम्हारी यह छोड़ी हुई काया एक नदी के रूप में परिवर्तित होगी और वह-
भारते पुण्यरूपा सा गण्डकीति च विश्रुता।
भारत में पुण्यस्वरूपिणी गंडकी नदी के नाम से विख्यात होगी। हे महादेवी-
कियत्कालं महादेवि देवपूजन साधने।
प्रधानरूपा तुलसी भविष्यति वरेण मे।। रु-यु-41-45
तुम मेरे वरदान से बहुत समय तक देव पूजन के साधन के लिए प्रधान भूत तुलसी वृक्ष के रूप में उत्पन्न होगी। तुम स्वर्ग मृत्यु एवं पाताल तीनो लोको में विष्णु के साथ निवास करोगी।
तुमने जो हरि को श्राप दिया है तो उसके प्रभाव से तुम गंडकी के तट पर यह हरि पाषाण रूप में स्थित रहेंगे। वहां पैने दातों वाले करोड़ों कीड़े उस शिला को छेद कर उसमें चक्र बना देंगे और उनका नाम शालिग्राम होगा।

इस प्रकार समझा कर शिवजी अंतर्ध्यान हो गए और वह तुलसी उस देह को त्याग दिव्य देह को प्राप्त हुई। कमलापति उसके साथ बैकुंठ को गए और वह शरीर रूप में गण्डकी नदी होकर बह चली, विष्णु जी उसके तट पर पत्थर हो गए।
बोलिए शालिग्राम भगवान की जय

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