shiv puran hindi lyrics
( पार्वती का स्वप्न )
कुछ समय के बाद एक बार मैना ने हिमाचल के पास प्रणाम किया फिर नम्रता से बोली-
हे देव पार्वती का अब विवाह हो
विवाहं कुरु कन्यायाः सुन्दरेण वरेण ह।
इस गुणवती सुंदर कन्या को इसके समान ही वर मिले तभी ये प्रशन्न रह सकेगी।
हिमाचल बोले- देवी तुम इस प्रकार संसय ही मत करो नारद वचन कभी असत्य नहीं होते।
यदि अपनी पुत्री से प्रेम करती हो तो, पुत्री को
भगवान रुद्र की प्रसन्नता के लिए तप करने के लिए कहो ।
जब भगवान रुद्र ही प्रसन्न होकर उसे अपनी पत्नी बनाना स्वीकार कर
लें तो उनके बुरे लक्षण भी उत्तम एवं शुभ होंगे इतना सुनकर मैना प्रसन्न हो गई।
किंतु उमा की सुंदरता देख कर मन व्याकुल सा हो गया और आंखों से अश्रु धारा बह चली
।
मुख से वाणी ना निकल सकी तब सबके मन का भाव जानने वाली श्री भगवती
उमा जी ने माता के भाव समझकर उन्हें धैर्य देकर कहा-
मातः शृणु महाप्राज्ञे५द्यतने५जमूर्तके।
रात्रौ दृष्टो मया स्वप्नस्तं वदामि कृपां कुरू।। रु•पा•9-17
हे माता जी सुनिए आज की रात्रि के ब्रह्म मुहूर्त में मैंने एक सपना देखा है
उसे बताती हूं ,आप श्रवण करें ! हे माता एक दयालु एवं तपस्वी ब्राह्मण ने मुझे
शिव के निमित्त उत्तम तपस्या करने का प्रसन्नता पूर्वक उपदेश दिया है।
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यह सुनकर मैना ने वहां शीघ्र अपने पति को बुलाकर पुत्री के देखे हुए
उस सपने को पूर्ण रूप से बताया । तब गिरिराज बड़े प्रसन्न हुए और मधुर वाणी से
पत्नी को समझाते हुए कहने लगे-
हे प्रिये पररात्रान्ते स्वप्नो दृष्टो मयापि हि।
हे प्रिये मैंने भी रात के अंतिम प्रहर में एक सपना देखा है सुनो- नारद जी द्वारा
बताए गए वर के अंगों ( लक्षणों ) को धारण करने वाले एक परम तपस्वी प्रसन्नता के
साथ तपस्या करने के लिए मेरे नगर के निकट आए हैं। तब मैं अति प्रसन्न होकर अपनी
पुत्री को साथ लेकर वहां गया, उस समय मुझे ज्ञात हुआ कि नारद जी के
द्वारा बताए हुए वर भगवान शंभू यही हैं।
यह स्वप्न कहकर गिरिराज मैना शुद्ध चित्त हो कुछ काल पर्यंत स्वप्न
फल की प्रतीक्षा करने लगे। ब्रह्माजी बोले- नारद उधर भगवान शंकर अपनी प्राणेश्वरी
श्री सती जी के विरह में व्याकुल होकर अपने गणों से श्री सती के अनेकों गुण एवं
उनकी सुशीलता आदि सुनकर कुछ दिन कैलाश पर विराजमान रहे। फिर-
दिगम्बरो बभूवाथ त्यक्त्वा गार्हस्थ्य सद्गतिम्।
गृहस्थ धर्म को त्याग कर नग्न होकर कुछ समय तक सब लोकों में घूमते रहे । इसके
बाद कैलाश पर वापस पधारे फिर वहां आकर समाधि धारण कर ली। कुछ समय बाद सदाशिव समाधि
से जग गए, समाधि के परिश्रम के कारण उनके मस्तक से पसीने की बूंद पृथ्वी पर गिर
पड़ी।
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तब तो उससे एक बालक प्रगट हो गया ,जिसका लाल
वर्ण था चार भुजाएं थी और सुंदर था। वह प्रकट होते ही रोने लगा उसे देखकर संसारी
मनुष्यों की भांति सदाशिव उसके पालन-पोषण का विचार करने लगे ।
उस समय डरी हुई एक सुंदर स्त्री वहां आई और बालक को अपनी गोद में
लेकर उसे दूध पिलाकर उसका मुख चुम्बन तथा उसे लाड लड़ाने लगी। वही स्त्री और कोई
नहीं थी स्वयं पृथ्वी माता आई थी। अंतर्यामी श्री महादेव जी ने समझ लिया तब उससे
बोले पृथ्वी-
धन्या त्वं धरणि प्रीत्या पालयैतं सुतं मम।
इसका पालन पोषण करो यही बालक तुम्हारे पुत्र नाम से विख्यात होगा । सदाशिव के
इन वचनों को सुनकर धरती माता उस बालक को गोद में उठाकर अपने स्थान पर चली गई। वहां
वह सुख पूर्वक उसका लालन-पालन करने लगी।
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पृथ्वी के नाम से उसका भौम नाम प्रसिद्ध हुआ। तब वही भौम अपनी
युवावस्था में काशीपुरी आकर बहुत समय तक भगवान शंकर का पूजन करता रहा, इसके बाद उसने शुक्र लोक से भी ऊपर का लोक प्राप्त कर लिया ।
बोलिए काशी विश्वनाथ भगवान की जय
( शिव हिमाचल संवाद )
ब्रह्माजी बोले- नारद जी कुछ समय बाद नंदीश्वर आदि मुख्य मुख्य गणों
को साथ लेकर तप करने की इच्छा से, भगवान हिमाचल प्रदेश में
आए जहां पतित पावनी गंगा ब्रह्मलोक से गिर रही हैं। उसी स्थान को अपने तप के योग्य
एवं सुंदर समझ वहीं एकाग्र चित्त होकर सदाशिव आत्म चिंतन करने लगे।
उनके शुभ आगमन का वृतांत उस समय हिमाचल को मालूम हो गया, तब वह भगवान रुद्र के दर्शन के लिए वहां आए और आकर प्रणाम तथा पूजन किया।
भगवान शंकर हंसते हुए कहने लगे- मैं यहां तप करने आया हूं ।
तव पृष्ठे तपस्तप्तुं रहस्य महमागतः।
यथा न कोपि निकटं समायातु तथा कुरू।। रु•पा•11-26
हे शैलराज मैं आप के शिखर पर एकांत में तपस्या करने के लिए आया हूं ,आप ऐसा प्रबंध कीजिए जिससे कोई भी मेरे निकट ना आ सके । हिमाचल ने कहा-
निर्विघ्नं कुरु देवेश स्वतन्त्र परमं तपः।
हे देवेश आप स्वतंत्र होकर बिना किसी विघ्न के उत्तम तपस्या कीजिए। मैं सब
प्रकार से आपकी सेवा करूंगा । यह कहकर हिमाचल अपने घर को चले गए। कुछ दिनों के बाद
पुष्प फल आदि लाकर हिमाचल भगवान रुद्र के पास पहुंचे , वहां जगत के स्वामी भगवान शंकर को प्रणाम किया और अपनी पुत्री श्री
पार्वती को भगवान के सन्मुख ले जाकर हिमाचल कहने लगे-
भगवंस्तनया मेत्वां सेवितुं चन्द्रशेखरम्।
हे भगवन मेरी पुत्री आप चंद्रशेखर की सेवा करने के लिए बड़ी उत्सुक है । अतः
आप इसकी आराधना की इच्छा से मैं इसको लाया हूं। यह अपने दो सखियों के साथ सदा आप
शंकर की ही सेवा करेगी।
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हे नाथ यदि आपका मुझ पर अनुग्रह है तो इसको सेवा के लिए आज्ञा
दीजिए। तब शंकरजी ने पूर्ण चंद्रमा के समान मुख वाली, विकसित
नीलकमल के पत्र के समान आभा वाली, विशाल नेत्रों वाली,
स्त्रियों में श्रेष्ठ उस कन्या को देखा।
तब हिमाचल से कहा यह कन्या चंद्रमा के समान सुंदर रूपवती है,
इसी कारण मैं यहां इसका आना पसंद नहीं करता, क्योंकि
इस प्रकार की मायामई स्त्रियों के आने से तपस्वियों की तपस्या में विघ्न पड़ जाते
हैं ।
यहां पर भगवान शंकर कुयोगियों का लोकाचार दर्शाते हुए यह वचन बोले
हैं ।
लोकाचारं विशेषेण दर्शयन्हि कुयोगिनाम्।
हे भूधर में तपस्वी, योगी तथा सदा माया से निर्लिप्त रहने वाला,
मुझे युवती स्त्री से क्या प्रयोजन है ? तब
हिमाचल इस प्रकार के सदाशिव के वचन सुने तब उनका मन अत्यंत व्याकुल एवं चिंतातुर
हो गया।
( शिव पार्वती संवाद )
भगवान शंकर के वचन सुनकर पार्वती जी बोली- योगिराज आपने जो कुछ
पिताजी से कहा है उसका उत्तर मैं देती हूं। अंतर्यामी आपने एक महान तप करने का
निश्चय किया है, ऐसा तप क्या शक्ति युक्त नहीं है ? यह शक्ति सब कर्मों की प्रकृति मानी गई है ।
इसी से चराचर जगत की रचना, पालन, संहार हुआ करता है। आप थोड़ा सा विचार करें वह प्रकृति क्या है ? और आप कौन हैं ? यदि प्रकृति ना हो तो शरीर तथा
स्वरूप किस प्रकार हो ?