शिव महापुराण गीता प्रेस गोरखपुर
सूर्य वंश
में उत्पन्न राजा अम्बरीष की भी इन्हीं दुर्वासा जी ने परीक्षा ली थी, महाराज अम्बरीष सप्तद्वीप के स्वामी थे, उन्होंने एकादशी का व्रत किया था। जब दुर्वासा जी उनके नियम को जानकर अपने
अनेक शिष्यों के साथ उनके यहां गए। राजा ने थोड़ी सी द्वादशी पाकर पाकर पारण का
विचार किया था और ज्यों ही वे पारण पर बैठने वाले थे कि दुर्वासा जी वहां जाकर
रुष्ट हो गए।
धर्म की परीक्षा लेते हुए मुनि उनको कठोर वचन कहने लगे, मुझे निमंत्रण दे बिना भोजन कराए तूने जल कैसे पी लिया? रुक तुझे अभी बताता हूं! ऐसा कह ऋषि ने क्रोध कर राजा को अपने श्राप
द्वारा भस्म कर देना चाहा, उसी समय राजा की रक्षार्थ सुदर्शन
चक्र आया शिव की माया से मोहित मुनि को शिवरूप नहीं जाना और मुनि को जलाने चला तब
आकाशवाणी हुई-
दुर्वासायं शिवः साक्षात्स चक्रं हरयेर्पितम्।
एवं साधारण मुनिं न जानाहि नृपोत्तम।। श-19-43
ये दुर्वासा साक्षात शिव हैं इन्होंने ही विष्णु
को यह चक्र प्रदान किया है, हे नृपश्रेष्ठ इन्हें
सामान्य मुनि मत समझिए। यह आपके धर्म की परीक्षा के लिए आए हैं , शीघ्र ही इनके शरण में जाइए नहीं तो प्रलय हो जाएगा। तब अम्बरीष प्राथना
से सुदर्शन को शांत करते हैं और दुर्वासा जी को शिव जी का अवतार समझ उन्हें प्रणाम
किया।
-इसी प्रकार एक बार दुर्वासा जी दशरथ पुत्र श्री राम जी के नियम से
परीक्षा ली, काल जब मुनि का रूप धारण कर श्री राम जी से भेंट
करने के लिए पहुंचा तब उसने रामजी से एक अनुबंध किया और कहा- मैं आपसे कुछ बात
करूंगा किंतु यदि उस समय कोई तीसरा पहुंचा तो वह आपका वध्य होगा। रामचंद्र जी ने
तथास्तु कहकर लक्ष्मण को प्रहरे पर नियुक्त कर दिया और काल से एकांत में बातचीत
करने लगे।
शिव महापुराण गीता प्रेस गोरखपुर
इसी बीच वहां दुर्वासा पहुंचे उन्होंने लक्ष्मण से कहा मैं आवश्यक
कार्य से रामचंद्र से मिलना चाहता हूं। लक्ष्मण जी ने इधर राम की प्रतिज्ञा उधर
दुर्वासा का श्राप इस प्रकार दोनों ओर से असमंजस में पड़ गए। फिर विचार आया कि
ब्रह्म शाप से दग्ध होना अच्छा नहीं, अतः उन्होंने दुर्वासा
के आने का समाचार श्री राम जी को दे दिया, तब इस प्रकार
दुर्वासा के द्वारा हट पूर्वक भेजे जाने पर श्रीराम ने अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार
तक्षण लक्ष्मण को त्याग दिया। महर्षि दुर्वासा उनके इस दृढ़ नियम को देखकर संतुष्ट
हुए और प्रसन्न चित्त हो उन्हें वर प्रदान किया।
हे मुनि! उन्होंने श्रीकृष्ण के नियम की परीक्षा ली थी, ब्रह्मा जी की प्रार्थना से पृथ्वी का भार उतारने के लिए एवं साधुओं की
रक्षा के लिए भगवान विष्णु वसुदेव के पुत्र रूप में अवतरित हुए। श्रीकृष्ण
ब्राह्मणों के विशेष रूप से भक्त हैं, जब वे इस प्रसिद्धि को
प्राप्त हुए उन्हें देखने की इच्छा से दुर्वासा मुनि कृष्ण के पास पहुंचे। तब वह
स्वयं रथ पर बैठकर कृष्ण रुक्मणी से रथ चलवाये। ब्राह्मण के विषय में उन दोनों की
इतनी दृढ़ता को देख कर, रथ से उतरकर मुनि ने प्रसन्न हो
उन्हें वज्र के सामान अंगवाला होने का वर दिया।
शिव महापुराण गीता प्रेस गोरखपुर
एक समय गंगा जी में स्नान करते हुए मुनिश्रेष्ठ दुर्वासा नग्न हो गए
थे, उस समय वे कौतुकी मुनि लज्जा का अनुभव करने लगे। उस समय
वहां स्नान कर रही द्रोपती ने यह जानकर अपना आंचल फाड़कर तथा उसे आदर पूर्वक
प्रदान करके उनकी लज्जा को ढक दिया था। तब प्रसन्न हो दुर्वासा मुनि ने-
द्रौपद्ये च वरं प्रादात्तदञ्जल विवर्द्धनम्।
द्रोपति को उसके आंचल बढ़ने का वर दिया। समय आने
पर उसी वरदान के प्रभाव से द्रोपती ने पांडवों को सुखी बनाया। इस प्रकार उन्होंने
अनेक विचित्र चरित्र किए। दुर्वासा का यह चरित्र श्रवण करने वाले को धन यश तथा आयु
प्रदान करने वाला और संपूर्ण कामनाओं को देने वाला है।
( हनुमान अवतार )
एक समय जब शिव जी ने विष्णु जी का परम मोहिनी रूप देखा तो लीला बस
रामचंद्र जी के कार्य के लिए अपना तेज का प्रादुर्भाव किया। शिव जी के मन की
प्रेरणा से प्रेरित हुए सप्त ऋषि यों ने उनके तेज को राम कार्य के लिए आदर पूर्वक
पत्ते में स्थापित कर दिया।
तैर्गौतमसुतायां तद्वीर्यं शम्भोर्महर्षिभिः।
कर्णद्वारा तथाञ्जन्यां रामकार्यार्थ माहितम्।। श-20-6
इसके बाद उन्होंने शंभू की उस तेज को राम जी के
कार्य के लिए गौतम की कन्या अंजनी के कान के माध्यम से स्थापित करा दिया। फिर उस
तेज से महाबली और महा पराक्रम युक्त हनुमान प्रकट हुए।
बोलिए
हनुमान जी महाराज की जय
हनुमान जी अपने बाल्यकाल में सूर्य को कोई लघु फल जानकर उसे खाने
दौड़े, परंतु जब देवताओं ने विनती की तो सूर्य को छोड़ दिया।
देवताओं और ऋषियों ने उन्हें महाबली शिव का अवतार समझा और बहुत से वरदान दिए।
हनुमान जी प्रसन्न हो अपनी माता के पास गए और उनकी आज्ञा से नित्य प्रति सूर्य के
पास जाकर हनुमान जी ने बिना यत्न के ही उनसे सारी विद्यायें पढ़ ली।
माता की आज्ञा से सूर्य के अंश से उत्पन्न सुग्रीव से मिले, सुग्रीव अपने बड़े भाई द्वारा अपनी स्त्री के हरण से महान दुखित हो
ऋष्यमूक पर्वत पर रहता था। हनुमान जी सुग्रीव के पास रहने लगे उसके मंत्री हो गए।
इधर भार्या जानकी के हरण से दुखी श्री रामचंद्र अपने भाई लक्ष्मण के साथ वहां पहुंचे
उनकी इनके साथ मित्रता हुई। रामचंद्र जी ने बाली बानर को मार डाला।
शिव महापुराण गीता प्रेस गोरखपुर
फिर उन वानरेश्वर हनुमान ने बहुत वानरों को साथ ले सीता जी की खोज
की और जब यह जाना कि जानकी जी लंका में है तब समुद्र को लांघकर लंकापुरी को गए
वहां जाकर उन्होंने पराक्रम पूर्ण बड़ा ही अद्भुत चरित्र किया। जानकी जी को
रामचंद्र जी का समाचार सुनाया, सीता जी का शोक दूर किया,
फिर रावण की वाटिका को उजाड़ बहुत से राक्षसों को मारा। जब रामचंद्र
के पास लौटने लगे तो रावण के दूतों ने ब्रह्मपाश द्वारा बांधकर उनकी पूंछ में
बस्त्र लपेट तेल गिरा उसमें आग लगा बहुत सा कष्ट देना चाहा।
इससे कुपित हो उन्होंने संपूर्ण लंका को जला दिया केवल राम भक्त
विभीषण के घर को छोड़ दिया। फिर समुद्र में कूद अपनी-पूंछ बुझा रामचंद्र जी के पास
आए और सीता जी ने जो चूड़ामणि दी थी राम जी को दिया, उसे
देखकर रामचंद्र जी की आज्ञा से वानरों सहित बहुत से पर्वतों को लाकर समुद्र में
पुल बांध रामचंद्र जी विजय इच्छा से शिवलिंग की प्रतिष्ठा करा कर पूजन किया तथा
शिवजी से विजय वर प्राप्त कर राम जी ने लंका घेर लिया।
वहां वीर हनुमान ने बहुत से दैत्यों को मारकर राम जी की सेना की
रक्षा की तथा शक्ति से घायल लक्ष्मण जी को संजीवनी बूटी लाकर जिलाया। यह सब उन में
महादेव जी का अंश था जिससे प्रभु हनुमान जी ने कुटुम्ब सहित रावण को नष्ट किया और
फिर अहिरावण को मार लक्ष्मण सहित राम को लाए तथा रामचंद्र का सब कार्य शीघ्रता से
करते और दैत्यों को मारते अनेक लीलाएं कि उन्होंने राम जी को सुखी किया।
बोलिए हनुमान जी महाराज की जय
शिव महापुराण गीता प्रेस गोरखपुर
( महेश अवतार वर्णन )
एक समय शिव पार्वती अपनी इच्छा से बिहार करने लगे तो भैरव को
द्वारपाल नियुक्त कर ज्यों ही भीतर गए त्यों ही अनेक सुशील सखियों उनकी सेवा करने
लगी। पश्चात परम स्वतंत्र कुछ ही देर अनेक लीला कर प्रसन्न हो गए और पार्वती जी
द्वार से बाहर जाने लगीं, द्वार पर भैरव द्वारपाल थे और जैसे
ही भैरव की दृष्टि पार्वती जी पर पड़ी वह मोहित हो गए।
तब माता को बड़ा क्रोध आया, देवी ने भैरव जी
को शाप दे दिया मुझे कुदृष्टि से देखने के कारण तुम पृथ्वी में जाकर मनुष्य योनि
में जन्म ग्रहण करो। तब भैरव जी बड़े दुखी हो गए तब शिवजी ने वहां आकर भैरव को
आश्वासन देने लगे, फिर वह भैरव पृथ्वी में बेताल रूप में
जन्म लिए उनके स्नेह से पार्वती सहित शिव जी ने भी लीलावत पृथ्वी पर अवतार लिया।
यहाँ शिव जी का नाम महेश और पार्वती का नाम शारदा हुआ। जो मनुष्य
सावधान चित्त होकर भक्ति पूर्वक इसे सुनता है अथवा सुनाता है वह इस लोक में
संपूर्ण भोगों को प्राप्त कर अंत में मुक्ति को प्राप्त कर लेता है।
बोलिए महेश भगवान की जय