शिव पुराण पीडीएफ डाउनलोड
( वृषेश्वर
अवतार के वर्णन में समुद्र मंथन की कथा )
जरा और मृत्यु से व्याकुल हो देवता और दैत्य
परस्पर रत्नों के लेने की इच्छा से छीर सागर का मंथन करने चले तो समुद्र किसके
द्वारा माथा जाए ? यह विचार हुआ। तब यह
आकाशवाणी हुई कि तुम देवता दैत्य अपनी बुद्धि से छीर सागर का मंथन करो तुम्हारा यह
कार्य हो जाएगा, इसमें कुछ संदेह नहीं है। इसके लिए तुम
मंदराचल को मथानी और बासुकी की रस्सी बनाओ।
तब देवता और दानव दोनों मिलकर मंदराचल पर्वत को समुद्र में ले जाने
के लिए उखाड़ने लगे और अपनी भुजाओं से उखाड़ कर उसे क्षीरसागर में ले जाने लगे,
परंतु समुद्र में प्रवेश करने में असमर्थ हुए और उनका बल क्षीण हो
गया। मंदराचल देवताओं और दैत्यों के ऊपर गिर पड़ा कितने ही देवता और दैत्य उसमें
दब गए बाद में सचेत होने पर शिवजी की स्तुति करने लगे। शिवजी ने उन्हें बल दिया तब
वह पर्वत को सागर के मध्य में स्थापित किए ,फिर बासुकी को
रस्सी बना कर, रत्नों के लिए छीर सागर का मंथन किया।
उसमें से लक्ष्मी निकलीं, धन्वंतरी
वैद्य, चंद्रमा, हरि का धनुष, शंख, कामधेनु, पारिजात,
कल्पवृक्ष, उच्चैःश्रवाः घोड़ा, ऐरावत हांथी, मदिरा, कौस्तुभ
मणि तथा अमृत निकला साथ ही कालकूट विष भी निकला। लक्ष्मी,
शंख,कौस्तुभ मणि एवं खडग को विष्णु जी ने
ग्रहण किया और उच्चैःश्रवाः नामक सुन्दर घोड़े को सूर्य ने लिया।
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इन्द्र ने पारिजात, कल्पवृक्ष तथा ऐरावत हांथी
को लिया और भक्त वत्सल शिवजी ने कालकूट विष को अपने गले उतार, देव रक्षा के लिए भयभीत चंद्रमा को अपने सिर पर धारण किया। दैत्यों ने
मदिरा ग्रहण करी और मनुष्यों ने धन्वन्तरि वैद्य को लिया, मुनीश्वरों
ने कामधेनु गाय को लिया। बाद में अमृत के लिए देवता और राक्षसों में परस्पर घोर
संग्राम हुआ और सूर्य के समान तेजस्वी बलि आदि दैत्यों ने बलपूर्वक अमृत को क्षीन
लिया तब देवता शिव जी की शरण में गए।
शिव जी की आज्ञा से विष्णु जी ने माया पुर्वक स्त्री का वेश धारण कर,
दैत्यों को मोहित कर अमृत देवताओं को पिला दिया। उसी समय विष्णु जी
द्वारा उत्पन्न बहुत से बलवान पुत्र, तीनों लोकों में उत्पात
किया तब शिव जी उन सबका संघार करने के लिए वृषभरूप धारण किया।
( पिप्पलाद चरित्र )
नंदीश्वर बोले- मुने एक समय जब देवताओं को वृत्तासुर ने परास्त
कर दिया तो उन्होंने सब आयुधों को दधीचि ऋषि के आश्रम में डालकर ब्रह्म लोक की
यात्रा की और ब्रह्मा जी से उन्होंने अपनी सब वेदनाएं कही। ब्रह्माजी क्षणभर मौन
हो विचार कर कहा- आप लोग महर्षि दधीचि जी के पास जाकर उनकी अस्थियों की याचना करो।
क्योंकि उन्होंने शिवजी की आराधना कर अपनी हड्डियों को वज्र से भी कठोर होने का वर
प्राप्त किया है।
जब उनकी अस्थियां मिल जाएंगी तब उनसे वज्र का निर्माण कर वृत्त को
मारा जाएगा। नन्दीश्वर ने कहा- ब्रह्मा जी के इन वचनों को सुनकर, देवगुरु बृहस्पति को आंगे कर इन्द्रादि देवता दधीचि ऋषि के आश्रम में
पहुंचे और सबने हांथ जोड़कर उन्हें प्रणाम किया। तब देवताओं के इस आगमन का
अभिप्राय जानकर ऋषि ने अपनी पत्नी सुवर्चा को आश्रम के भीतर भेज दिया और इंद्र के
आगमन का कारण पूंछा ?
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इस पर स्वार्थ साधक इन्द्र ने अपना अभिप्राय कहा । तब महर्षि दधीचि
ने कहा- परोपकार से बढ़कर दूसरा धर्म नहीं है उन्होंने शिव जी का ध्यान कर अपना
शरीर त्याग दिया। उस समय पुष्पों की वर्षा होने लगी और सभी लोग आश्चर्यचकित हो गए।
इंद्र ने शीघ्र ही सुरुभि गाय को बुलाकर उसके द्वारा उन्हें चटवाया और उनकी
अस्थियों से अस्त्र निर्माण करने के निमित्त विश्वकर्मा को आज्ञा प्रदान की।
विश्वकर्मा ने सुदृढ़ वज्रमय अस्त्र बनाया, उनके
तेज वृद्धि को प्राप्त कर इन्द्र ने वज्र लेकर क्रुद्ध हो वृत्तासुर पर इस प्रकार
प्रहार किया कि जिस प्रकार रुद्र ने काल पर किया था। फिर तो इंद्र ने वृत्तासुर का
उस वज्र के द्वारा वध कर दिया तब देवताओं ने बड़ा उत्सव किया था।
( पिप्पलाद अवतार )
जब दधीचि पत्नी सुवर्चा अपने पति की आज्ञा से आश्रम के भीतर चली
गई तो उन्होंने संपूर्ण ग्रह कर्म किए और जब लौटी तो अपने पति तथा सब देवताओं को
वहां ना देख उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ। साथ ही उन्हें और भी बहुत से अपशगुन दिखाई
पड़े। ऋषि पत्नी सुवर्चा देवताओं के हृदय को जानकर परम क्रुद्ध हो शाप देने लगी-
अहो सुरा दुष्टतराश्च सर्वे स्वकार्य दक्षा
ह्यबुधाश्च लुब्धाः।
तस्माच्च सर्वे पशवो भवन्तु सेन्द्राश्च मेद्य प्रभृतीत्युवाच।। श-24-38
हे देवगणों तुम लोग अत्यंत दुष्ट, अपना कार्य
साधन में दक्ष, अज्ञानी और लोभी हो इसलिए इंद्र सहित सभी
देवता आज से पशु हो जाएं। इसके बाद चिता लगा उस में जलने चली तब शिवजी से प्रेरित
आकाशवाणी हुई कि हे प्राज्ञे तुम ऐसा न करो, मुनीश्वर का तेज
तुम्हारे गर्भ में विराजमान है, उसको यत्न पूर्वक उत्पन्न
करो क्योंकि सगर्भी अपने शरीर को ना जलावे यह वेद की आज्ञा है।
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यह सुनकर सुवर्चा ने पत्थर से पेट को फाड़ दिया तब एक महादिव्य शरीर
वाला परम कांति मान मुनिवर का तेज रूप बालक निकला, वह
साक्षात शिव जी ही थे। मुनि पत्नी ने उस बालक के अद्भुत तेज को देख कर उसे रुद्र
का अवतार समझा तब उनके प्रसन्नता की सीमा न रही, उन्होंने
शीघ्र ही प्रणाम कर उस बालक के स्वरूप को अपने हृदय में स्थापित कर लिया फिर पति
लोक की इछुक सुवर्चा ने पुत्र से कहा- तात तुम दीर्घकाल तक इस पीपल के मूल में
निवास कर सबके सुखदायक बनो और मुझे प्रेम पूर्वक पति लोक जाने की आज्ञा दो,
जहां जाकर मैं अपने पति के साथ रूद्र स्वरूपी आपका ध्यान करूँ।
सुवर्चा पुत्र से ऐसा कह परम समाधि लगा पति लोग को चली गई। वहां जा
अपने पति को पा, शिवलोक में आनंद से शिव जी की सेवा करने
लगी। उधर मुनि पुत्र रूप में शंकर ही अवतार लिए थे यह समझ ब्रह्मा व विष्णु जी
अपने गणों के साथ प्रीति पूर्वक वहां आए और बड़ा उत्सव किया फिर ब्रह्मा जी ने
उनका नाम संस्कार कर पिप्पलाद नाम रखा, सब देवता उनसे आज्ञा
ले अपने अपने लोक को गए।
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महाप्रभु पिप्पलाद लोकहितार्थ बहुत काल तक उस अस्वस्थ वृक्ष की मूल
में तप करते रहे। एक दिन वे पिप्पलाद मुनि पुष्पभद्र नामक नदी में स्नान कर रहे थे
तो उन्होंने एक मनोहर युवती को देखा, जो शिवजी के अंश से
पैदा हुई थी। उसे देख तत्व प्रवीण मुनि पिप्पलाद उनक रूप पर अत्यंत मोहित हो गए और
उसे प्राप्त करना चाहा वह राजा अनरण्य की कन्या थी।
महर्षि पिप्पलाद राजा अनरण्य के पास जा पहुंचे, राजा ने मुनि का स्वागत सत्कार किया। ऋषि ने राजा से कन्या की याचना की यह
सुन राजा मौन हो गया और तत्क्षण उससे कुछ कहते ना बना। पिप्पलाद ने कहा- या तो
भक्ति पूर्वक कन्या मुझे दे दो अन्यथा मैं तुम्हारे सहित सबको भस्म कर दूंगा। राजा
ने भयभीत हो मुनीश्वर को अपनी कन्या प्रदान की, मुनि उस शिव
के अंश से उत्पन्न कन्या से विवाह कर उसको साथ ले अपने आश्रम पहुंचे।
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वह सौम्या स्त्री के साथ आनंद से बास करने लगे, उस स्त्री का नाम पद्मा था। जैसे- लक्ष्मी जी विष्णु जी की सेवा करती वैसे
ही पदमा भी मन वचन कर्म से पति की सेवा करने लगी। उन मुनि के परम तपस्वी दस
माहात्मा पुत्र उत्पन्न हुए वे सब अपने पिता के समान महा तेजस्वी तथा पद्मा के सुख
को बढाने वाले थे।
लोक में सभी के द्वारा अनिवारणीय शनि पीड़ा को देखकर उन दयालु
पिप्पलाद ने प्राणियों को प्रीति पूर्वक वर प्रदान किया था कि-
षोडशाब्दावधि नृणां जन्मतो न भवेच्च सा।
तथा च शिवभक्तानां सत्य मेतद्धि मे वचः।। श-25-16
जन्म से लेकर सोलह वर्ष तक की आयु वाले मनुष्यों तथा शिव भक्तों को
शनि की पीड़ा नहीं होगी, यह मेरा वचन सत्य होगा। मेरे इस वचन
का निरादर कर यदि शनि ने उन मनुष्यों को पीड़ा पहुंचाई तो वह उसी समय भस्म हो जाएगा,
इसमें संदेह नहीं है। यह आख्यान निष्पाप, स्वर्ग
देने वाला, क्रूर ग्रहों के दोष को नष्ट करने वाला, संपूर्ण कामनाओं को पूर्ण करने वाला तथा शिव भक्ति को बढ़ाने वाला है।