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शिव पुराण बुक डाउनलोड 73

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   शिव पुराण कथा भाग-73  

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( वैश्यनाथ अवतार )
नंदीश्वर बोले- मुनीश्वर पूर्व समय में नंदीग्राम में महानंदा नामक एक बड़ी रूपवती वैश्या रहती थी जो शिवजी की भक्त थी, वह बड़ी धनवान ऐश्वर्य युक्त तथा सर्वदा श्रृंगारित रहा करती थी। वह सर्वदा शिवजी के नाम जप में लगी रहती, पार्वती सहित शंकर जी की पूजा करती, सर्वदा रुद्राक्ष तथा विभूति धारण किया करती थी । वह एक बंदर तथा मुर्गे को रुद्राक्ष से विभूषित करके ताली बजा बजाकर गायन करती हुई उन्हें नचाती थी।

एक दिन शंकर जी वैश्य का रूप धारण कर उसके भाव की परीक्षा लेने आये, उनके हाथ में रत्न जड़ित एक बड़ा ही सुंदर कंकड़ था। उसे देख महानंदा मुग्ध हो गई, वैश्यरूप शिवजी उसके मन के लालच को समझ गए उन्होंने कहा यदि तुम्हारा मन इस कंकड़ के लिए क्षुब्ध हो रहा है तो तुम ही इसको प्रसन्नता से धारण करो, परंतु यह बताओ इसका मूल्य क्या दोगी ?
वैश्या ने कहा मैं एक व्यभिचारिणी हूं, व्यभिचार ही हमारे कुल का परम धर्म है, यदि आप यह कंकड़ मुझे दे दोगे तो मैं तीन दिन आपके स्त्री रहूंगी। वैश्य ने कहा पति वल्लभे तथास्तु । लो यह रत्न कंकड़ और तीन दिन मेरी स्त्री रहो इस व्यवहार में सूर्य और चंद्रमा प्रमाण हैं। परंतु तीन बार सत्य है ऐसा कहकर मेरे हृदय का स्पर्श करो । वेश्या ने कहा प्रभु मैं तीन दिन आपकी पत्नी रहकर सहधर्म का पालन करूंगी। यह सत्य है, सत्य है, सत्य है ।
ऐसा कह सूर्य और चंद्रमा को साक्षी बना नंदा ने प्रीति सहित तीन बार उसके हृदय का स्पर्श किया, उसने उसे कंकड़ देकर रत्नमय शिवलिंग दिया और कहा- हे कांते यह रत्न जड़ित शिवजी का लिंग मुझे प्राणों से भी अधिक प्रिय है तुम सदा इसकी रक्षा करना और यत्नपूर्वक गुप्त रखना। तब ऐसा ही होगा कहती हुई महानंदा ने उस रत्नमय लिंग को लेकर नाटक के मंडप में रखकर घर में चली गई और वैश्य के साथ सो गई।

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अर्धरात्रि के समय वैश्य देव की इच्छा से नृत्य मंडप में सहसा एक वाणी उत्पन्न हुई, कि तात इस नृत्य भवन में वायु की सहायता से अग्नि प्रज्वलित हो गई है, नृत्य मंडप जलने लगा। महानंदा ने दौड़कर बंधे हुए बंदर और मुर्गे को दूर भगाया। शिवलिंग जलकर टुकड़े-टुकड़े हो गया वैश्य और वैश्या बड़े दुखी हुए।
उन्होंने कहा मेरा प्राणों से भी प्यारा शिवलिंग जल गया है भद्रे तुम अपने भृत्यों से मेरी चिता बनवा दो मैं अग्नि में प्रवेश कर जाऊं, यदि ब्रह्मा विष्णु महेश भी आकर मना करें तो मैं नहीं मान सकता। वेश्या ने अपने भृत्यों को आज्ञा दे चिता बनवा दी परम कौतुकी वैश्य देव अग्नि की परिक्रमा कर सब मनुष्यों के देखते-देखते अग्नि में प्रवेश कर गए।

वैश्या विस्मित हो गई उसे बड़ा खेद हुआ, उसने कहा मैं तो तीन दिन उसके पास रहने वाली थी। परंतु मेरी थोड़ी सी असावधानी से यह शिववृती वैश्य मर गया। अतएव मैं उसके साथ ही अभी अग्नि में प्रवेश कर जाऊं तभी अच्छा है। सत्य से ही परम गति होती है, यह सुन लोगों ने उसे प्राण त्यागने से मना किया, परंतु उसने अपना सारा धन ब्राह्मणों को दान कर दिया तथा स्वयं प्रज्वलित अग्नि में कूदने चली, तभी गणिका का मन अपने चरणों में लगा देख वैश्यदेव प्रसन्न हो गए। इधर गणिका ने यह विचार किया-
सत्याश्रयः परो धर्मः सत्येन परमा गतिः।
सत्येन स्वर्ग मोक्षौ च सत्ये सर्वं प्रतिष्ठितम्।। श-26-48

सत्य का आश्रय ही परम धर्म है, सत्य से ही परम गति होती है, सत्य से ही स्वर्ग और मोक्ष मिलते हैं । अतः सत्य में ही सब कुछ प्रतिष्ठित है ऐसा सोचने लगी। तभी विश्वात्मा शिव ने प्रकट होकर उसको मना किया। उस समय त्रिलोचन शिवजी चन्द्रकला भूषण धारी, करोडों सूर्य और चंद्रमा के समान युक्त महानंदा के समक्ष अपने दिव्य रूप से प्रगट हुए थे।

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कांतिमान शंकर जी को देख नन्दा स्तब्ध खड़ी रह गयी, अत्यंत भयभीत विह्वलमना नन्दा के नेत्रों से अविरल अश्रु प्रवाह होने लगा। तब उसे धैर्य दे उसपर हांथ रख शिवजी ने कहा- तेरी परीक्षा लेने के लिए ही वैश्य रूप धारण कर तेरे पास आया था मैं तुझ पर प्रसन्न हूँ। वर मांगो- गणिका ने कहा-
न मे वाञ्छास्ति भोगेषु भूमौ स्वर्गे रसातले।
तव पादाम्बुज स्पर्शादन्यत्किंचिन्न कामये।। श-26-59
प्रभो-भूमि, स्वर्ग तथा पाताल के भागों में मेरी इच्छा नहीं है, मैं आपके चरण कमलों स्पर्श के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं चाहती। मेरे जितने साथी और भृत्यादि हैं इन्हें भी आपका दर्शन होना चाहिए। अतएव मेरे साथ ही इन सब को भी अपने परम पद को ले चलिए। शिवजी ने एवमस्तु कह उन सबको अपने परम पद को भेज दिया।
बोलिए भक्तवत्सल भगवान की जय

( द्विजेश्वर अवतार )
नंदीश्वर बोले- हे तात पहले जिस भद्रायु नामक राजा का वर्णन किया और जिस पर ऋषभ रूप भगवान शंकर ने कृपा की थी, उसी के धर्म की परीक्षा लेने के लिए शंकर जी ने द्विजेश्वरावतार धारण किया था। वही कथा मैं कहता हूं। ऋषभ के प्रभाव से भद्रायु ने संग्राम जीतकर राजसिंहासन प्राप्त किया था। राजा चन्द्रांगद की सीमान्तनी नामक पत्नी से उत्पन्न सुंदर पुत्री कीर्तिमालिनी उनकी पत्नी हुई।

एक समय बंसत ऋतु मे राजा भद्रायु अपनी पत्नी के साथ उस वन में बिहार कर रहा था। तब पार्वती सहित भगवान शंकर उसके धर्म की परीक्षा के लिए उस वन में द्विज दंपति हो गए तथा एक मायामय सिंह प्रकट कर उसके भय से स्वयं भयभीत हो भद्रायु के पास भाग कर गए और कहा कि इससे हमारी रक्षा कीजिए। यह सुनते ही उस नृपतीश्वर ने ज्यों ही धनुष उठा उस व्याघ्र को मारना चाहा कि त्यों ही उस मायामय सिंह ने झपट कर उस ब्राह्मण की स्त्री को खा लिया, वह स्त्री हे नाथ-हे नाथ कहती रही। राजा ने उस सिंह पर अपने तीर्क्ष्ण बांणो का प्रहार किया, परंतु उससे उसको कुछ व्यथा ना हुई।

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वह स्वच्छंदता से उस स्त्री को ले भागा तब व्याघ्र द्वारा स्त्री के अपहरण किए जाने से ब्राह्मण बार-बार रोने लगा। फिर राजा से बोला तुम्हारे पराक्रम का क्या फल ? दुख से रक्षा करना क्षत्रियों का धर्म है। जब कुलोचित धर्म ही नष्ट हो गया तो जीवित रहने से क्या प्रयोजन है? जो दुखियों की रक्षा नहीं करता-
आर्तत्राण विहीनानां जीवितान्मरणं वरम्।
धनिनां दानहीनानां गार्हस्थ्याद्भिक्षुता वरम्।। श-27-27
पीड़ितों की रक्षा करने में असमर्थ राजाओं के लिए तो जीवित रहने की अपेक्षा मर जाना ही श्रेयस्कर है। दान से हीन धनी लोगों के लिए ग्रहस्थ होने की अपेक्षा भिखारी होना कहीं अधिक श्रेष्ठ है ।
नंदीश्वर बोले- इस प्रकार ब्राह्मण द्वारा अपनी निंदा सुन राजा शोकाकुल हो अपने दुर्भाग्य के प्रति बड़ा पश्चाताप करने लगा। उसने कहा आज प्रारब्धवश मेरा पौरुष नष्ट हो गया, आज मुझे घोर पाप लगा अब मैं इस मृत स्त्री वाले शोकाकुल ब्राह्मण के लिए अपने प्राणों का त्याग कर इन्हें शोक रहित करूंगा। राजा भद्रायू ब्राह्मण के चरणों में गिर गया बोला मैं अपना राजपाठ सब आपके चरणों में समर्पित करता हूं।

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द्विजेश्वर भगवान उसकी परीक्षा लेने के लिए बोले- तुम अपनी प्रधान स्त्री दे दो तब राजा चिंतित हो गया। उसने विचार कर निश्चय किया कि दोनों की रक्षा करना कर्तव्य है। इससे तो यही अच्छा है कि स्त्री दान कर दूं फिर मैं शीघ्र ही अग्नि में प्रवेश कर जाऊं, जिससे संसार में मेरी कीर्ति होगी।
ऐसा मन में निश्चय कर उस राजा ने अग्नि प्रज्ज्वलित की और हाथ जल ले उस ब्राह्मण को बुला पत्नी को दान कर दिया। फिर अग्नि के तीन प्रदक्षिणा कर एकाग्र हो शिव का ध्यान करने लगा। तब अपने चरणों का ध्यान लगाए अग्नि में प्रवेश करने वाले राजा की ऐसी दशा देखकर, द्विजेश्वर रूपधारी शिवजी से रहा न गया और वे अपने पांच मुख, तीन नेत्र, पिनाक और चंद्रकला धारण किए मध्यान्ह काल के करोड़ों सूर्यों के समान तेजस्वी स्वरूप में राजा के समक्ष प्रकट हो गए।

आकाश से फूलों की वर्षा होने लगी ब्रह्मा विष्णु आदिक देवता, इंद्र नारदादि मुनीश्वर वहाँ आकर स्तुति करने लगे। शंकर जी प्रसन्न होकर राजा से बोले मैं तुम्हारी भक्ति से प्रसन्न हूँ, तुम अपनी स्त्री सहित मुझसे वर मांगो मैं तुम्हें ईच्छित वर दूंगा । मैं तुम्हारी परीक्षा लेने के लिए ही आया था और जिसे वह व्याघ्र उठा ले गया था, वह साक्षात पार्वती देवी थी और वह माया का व्याघ्र था जो तुम्हारे बांणो से घायल नहीं हुआ।
तुम्हारे धर्म की और धैर्य की परीक्षा के लिए ही मैंने तुम्हारी पत्नी मांगी थी, यह सुन भद्रायु ने फिर शिव जी के चरणों में प्रणाम किया और बोला मैं आपके चरणों की भक्ति चाहता हूं। भक्त वत्सल ने उनको एवमस्तु कह कर यथेष्ट वर दिया और तक्षण वहीं अंतर्ध्यान हो गए।

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