शिव पुराण गीता प्रेस गोरखपुर PDF Download
( यतिनाथ हंसरूप अवतार )
नन्दीश्वर बोले- हे मुनीश्वर अर्बुदोचल पर्वत के समीप भीलबंशोत्पन्न आहुक नाम
का एक भील रहता था जिसकी स्त्री का नाम आहुका था। वह बडी़ पतिव्रता थी, वे दोनों बड़े शिव भक्त थे। एक समय शिव भक्ति में रत वह भील अपनी स्त्री
के आहार के लिए बहुत दूर निकल गया, उस समय यति के रुप में
भगवान शंकर उसके घर पहुंचे। सायं काल का समय था तब तक भील भी अपने घर लौट आया था
और उसने यति का विधिवत पूजन सत्कार किया।
यतिनाथ ने कहा- आज की रात्रि भर मुझे रहने का स्थान दो, प्रातः काल ही मैं चला जाऊंगा। भील ने कहा मेरे पास बहुत थोड़ा सा स्थान
है, इसमें आप कैसे रहेंगे ? इस पर वह
सन्यासी जाने लगा तब भीलनी ने मन में विचार कर अपने स्वामी से कहा- कि ये अतिथि
हैं इन्हें विमुख ना करो। आप सन्यासी सहित घर में रहिएगा और मैं बांणो सहित घर के
बाहर रह जाऊंगी।
तब अपनी स्त्री की इस धर्ममय वाणी को सुनकर भील ने मन में विचार
किया और कहा नहीं मैं ही घर के बाहर रहूंगा और अतिथि सहित तू घर के भीतर रहना।
सन्यासी के घर के अंदर विश्राम करने लगे , भील स्वयं घर के
बाहर अस्त्रों सहिक रहा और रात भर उसे हिंसक क्रूर पशु पीड़ा दिए और उसका भक्षण कर
लिए।
प्रातः काल सन्यासी ने घर के बाहर आकर देखा तो वनचारी भील को सिंह
आदि भक्षण कर गए हैं। इससे उन्हें बहुत दुख हुआ। भीलनी भी दुखित हुई परंतु स्वयं
दुख से कातर रहते हुए भी, उसने सन्यासी को समझाया कि आप
किंचित दुख ना करें, अतिथि सेवा में प्राण विसर्जन करना धर्म
है। मेरा क्या है मैं तो अग्नि प्रवेश कर उसके साथ सती हो जाऊंगी। वह चिता बना
उसमें जा बैठी।
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उसी समय शिव जी प्रकट हो गए। वर मांगने को बोले- भगवान शंकर ने कहा
यह मेरे रूप वाला यति अगले जन्म में हंस होगा और तुम दोनों का पुनः संयोग कराएगा।
ऐसा कह कर शिव जी उसी समय लिंग रूप में प्रकट हो गए। उनके द्वारा परीक्षा करने पर
भील धर्म से विचलित नहीं हुआ, इसलिए वह लिंग अचलेश इस नाम से
प्रसिद्ध हुआ। वह आहुक भील निषध नगर में वीरसेन का पुत्र नल नाम वाला महान राजा
हुआ। उसकी पत्नी आहुका भीलनी विदर्भ नगर के राजा भीमसेन की पुत्री दमयंती नाम से
प्रसिद्ध हुई।
वे शिवावतार यतीश्वर भी हंसरूप में अवतरित हुए, जिन्होंने दमयंती का विवाह नल के साथ करवाया। अनेक प्रकार का वार्तालाप
करने में निपुण हंसावतार शिवजी ने दमयंती तथा नल को महान सुख प्रदान किया। जो यतीश
तथा ब्रह्महंस नामक अवतार के शुभ चरित्र को सुनता है अथवा सुनाता है वह परम गति
प्राप्त करता है।
बोलिए शंकर भगवान की जय
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( श्री कृष्ण दर्शन अवतार )
इक्ष्वाकु वंश में श्राद्ध देव की नवमी पीढ़ी में राजा नभग का
जन्म हुआ था जिसके पुत्र नाभाग और उसके विष्णु भक्त अंबरीश हुए थे। अब इन्हीं
अम्बरीश के पितामह नभग का चरित्र सुनो जिसे स्वयं शंकर जी ने ज्ञान दिया था। जब
नभग बहुत दिनों तक गुरुकुल में पढ़ने चले गए तो उनके इक्ष्वाकु आदि भाइयों ने
राज्य का विभाजन करवा अपना भाग तो ले लिया लेकिन नभग का भी भाग ले लिया। जब
ब्रह्मचारी नभग सब वेद वेदांग पढ़कर गुरुकुल से लौटे तो अपना भाग मांगने लगे,
भाइयों ने कहा विभाग करते समय तो हमें तुम्हारा ध्यान ही नहीं रहा
और अब जो कुछ है पिता के पास ही है, उसी में से तुम अपना भाग
लो।
नभग पिता के पास गए और सब समाचार कहा, पिता
श्राद्ध देव को बड़ा आश्चर्य हुआ उन्होंने नभग को धैर्य देकर कहा- तुम्हारे भाइयों
ने तुम्हारे साथ छल किया है! उनका कहना असत्य है मैं तुम्हारे भाग में कैसे आ सकता
हूं ? संपत्ति के स्थान पर । लेकिन तुम चिंता ना करो मैं
तुम्हें एक उपाय बताता हूं जिससे तुम्हारा दुख दूर हो जाएगा । इस समय आंगीरस
गोत्रीय विद्वान ब्राम्हण यज्ञ कर रहे हैं उस यज्ञ में वे अपने छठे दिन के कार्य
में भूल कर जाते हैं। हे नभग तुम वहां जाओ और जाकर वैश्वदेव संबंधी दो सूक्तों को
उन्हें बतलाओ जिससे वह यज्ञ शुद्ध हो सके।
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उस यज्ञ कर्म के समाप्त हो जाने पर ब्राह्मण स्वर्ग चले जाएंगे और
वे संतुष्ट हो तुम्हें अपना बचा हुआ सब धन दे देंगे, जिससे
तुम सर्वदा के लिए धन से संतुष्ट हो जाओगे। पिता के वचन सुनकर प्रेम पूर्वक नभग
वहां गए जहां पर उत्तम यज्ञ हो रहा था उसमें पहुंचकर बुद्धिमान मनु पुत्र ने दो
वैश्वदेव युक्त सूक्त स्पष्ट उच्चारण किया। यज्ञ कर्म समाप्त होने पर वे आङ्गिरस
ब्राहमण अपने यज्ञ का अवशिष्ट धन नभग को देकर स्वर्ग को प्राप्त हुए। परंतु उसी
समय शिवजी कृष्ण दर्शन के रूप में प्रकट होकर बोले- हे नभग यज्ञ का अवशिष्ट धन तो
मेरा है, इसे तुम कैसे ग्रहण कर सकते हो ? नभग बोले- यह धन ऋषियों ने मुझे दिया है तो मेरा है । आप कौन हैं, जो मुझे रोकते हैं ? तब कृष्ण दर्शन बोले-
विवादेस्मिन्हि तौ तात प्रमाणं जनकस्तव।
हम दोनों के विवाद में आपके पिता ही प्रमाण हैं, जाओ उनसे पूछो
वे जैसा कहें हम वैसा मान लेंगे । यह सुन नभग अपने पिता के पास पहुंचे, मनुश्राद्ध देव ने कहा वह पुरुष देवता शंकर जी हैं, यज्ञ
में अवशिष्ट वस्तु उन्हीं की है यदि वे कृपा करें तो तुम पा सकते हो। जाकर उनसे
अपने अपराध का छमा मागो, वह सबके अखिलेश्वर प्रभु शंकर जी
यज्ञ के अधिष्ठाता हैं। सब देवता और ऋषि उनके अनुग्रह से ही कार्य करते हैं।
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विष्णुब्रह्मादयो देवाः सिद्धाः सर्वर्षयोपि हि।
तदनुग्रहतस्तात समर्थाः सर्वकर्मणि।। श-29-39
तब नभग शंकर जी के पास पहुंचे हाथ जोड़कर उनकी स्तुति करने लगे, अपने अपराधों के लिए बार-बार क्षमा मांगने लगे। उसी समय ब्रह्मा आदि देवता
भी ऋषियों के साथ वहां आ गए और शिवजी की स्तुति करने लगे। तब शिवरूप कृष्ण दर्शन
ने कहा तुम्हारे पिता ने जो कुछ भी कहा है वह सत्य है, तुम
भी साधु हो इसमें संदेह नहीं, मैं तुम्हारे व्रत से प्रशन्न
हूं, मैं तुम पर कृपा कर यह सनातन ब्रह्म ज्ञान देता हूं।
हे नभग तुम यज्ञ कर्ता ब्राह्मणों सहित शीघ्र ही महा ज्ञानी हो जाओ,
अब मेरे द्वारा प्रदत्त इस समस्त यज्ञशेष सामग्री को तुम मेरी कृपा
से ग्रहण करो। ऐसा कह सब पर दया करने वाले भगवान शंकर उन देवताओं के देखते-देखते
अंतर्ध्यान हो गए। सब देवता ऋषि भी अपने-अपने धाम चले गए। अपने पुत्र नभग को साथ
लेकर श्राद्ध देव भी प्रसन्नतापूर्वक अपने स्थान को चले गए और वहां अनेक सुखों को
भोगकर अन्त में शिवलोक को चले गए।
बोलिए कृष्ण दर्शन भगवान की जय