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शिव पुराण कथा इन हिंदी 75

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शिव पुराण कथा इन हिंदी 75

शिव पुराण कथा इन हिंदी 75

 शिव पुराण कथा इन हिंदी

   शिव पुराण कथा भाग-75  

शिव पुराण कथा इन हिंदी

( अवधूतेश्वर अवतार वर्णन )
नंदीश्वर बोले- ब्रह्मपुत्र ! एक बार बृहस्पति और देवता सहित इन्द्र शंकर जी के दर्शन करने के लिए कैलाश पर्वत पर गए तो इंद्र को आया जान शिवजी उनकी परीक्षा लेने के लिए भयंकर अवधूत रूप धारण कर लिया और सबका मार्ग रोक लिया और प्रज्वलित अग्नि के समान देदीप्यमान, लंबे होकर वहां स्थित हो गए । तब अहंकारी इंद्र शंकर जी को ना पहचान कर मार्ग में स्थित उस पुरुष से पूंछा तुम कौन हो ? और दिगंबर तथा अवधूत भेषवाले तुम कहां से आए हो ? और तुम्हारा क्या नाम है ? जल्दी बताओ शंकर जी अपने स्थान में हैं अथवा कहीं गए हैं ?

यह सुनकर मदनाशक शंकर जी कुछ ना बोले, तब इंद्र ललकार कर कहा क्यों रे मूर्ख तू पूछने पर उत्तर क्यों नहीं देता ? मैं तुझे अभी अपने वज्र से मारता हूं, देखूं तुझे कौन बचाता है ? ऐसा कह उन्होंने दिगंबर को मारने के लिए वज्र उठाया, तब इंद्र के हाथ में वज्र देखकर शिवजी ने उस वज्रपात को स्थम्भित कर दिया। इंद्र का वज्र उन पर ना चल सका, तब तो इंद्र भीतर ही भीतर जलने लगा।
तब तक बृहस्पति जी समझ गए यह दिगंबर शिवजी हैं, उन्होंने प्रणाम की और शिव जी की स्तुति की। शिव जी प्रसन्न होकर कहा मैं क्रोध के कारण अपने नेत्र से निकलते हुए तेज को किस प्रकार धारण करूं ?

 शिव पुराण कथा इन हिंदी

कथं कञ्चुकीं सर्पः संधत्ते चोज्झितां पुनः।
क्या सर्प कंचुकी ( केचुर ) का त्याग करने के उपरांत पुनः उसे धारण कर सकता है ? तब बृहस्पति जी हाथ जोड़कर बोले- आप अपने इस तेज उग्र को किसी अन्य स्थान पर रख सकते हैं , आप सभी भक्तों का उद्धार करने वाले हैं । अतः इंद्र का भी उद्धार कीजिए। शिव जी प्रसन्न हो बृहस्पति को इंद्र का जीवन दान प्रदान करने के कारण जीव नाम से विख्यात हुए।
शिव जी ने मस्तक के क्रोध को उठाकर लवण समुद्र में फेंक दिया , वह तेज तुरंत एक बालक हो गया उसका नाम जालंधर पड़ा। वह सिंधु का पुत्र कहलाया फिर देवताओं की प्रार्थना से उसे शिव जी ने ही मारा सब देवता सुखी हुए। इस प्रकार बृहस्पति सहित इन्द्र शिव जी का दर्शन कर अपने स्थान को लौटे।

( भक्षुवर्य शिव अवतार वर्णन )
नंदीश्वरा बोले- मुनि श्रेष्ठ ! विदर्भ नगर में एक सत्यरथ नामक राजा था, जिसने शिव धर्म सेवन करते हुए अपना बहुत सा समय व्यतीत किया। एक समय उसके नगर पर बहुत से शत्रुओं ने मिलकर आक्रमण किया, जिससे सत्यरथ ने सबसे बड़ा युद्ध किया। परंतु विजयी ना हुआ और शत्रुओं ने उसे मार डाला, उसकी पटरानी गर्भवती थी, जब उसने देखा कि शत्रुओं ने उसे घेर लिया है तो वह लुक छिप कर नगर से बाहर चली गई और शिव जी स्मरण करते हुए बहुत दूर पूर्व दिशा में जाकर एक सरोवर के निकट एक सघन वटवृक्ष के नीचे अपना आश्रय किया।

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वहां उससे शर्व लक्षण संपन्न एक दिव्य बालक उत्पन्न हुआ, जब उस बालक की माता सरोवर में जल पीने गई तो उसे घड़ियाल ने पकड़ लिया । वह नन्हा सा शिशु माता-पिता से हीन दशा में बहुत रोने लगा, यह देख शिवजी को दया आई उन्होंने एक भिखारिणी ब्राह्मणी को प्रेरित कर दिया, वह ब्राह्मणी उसके पास जा पहुंची । उसने देखा अभी तक उसका नाल भी नहीं काटा था और वहां अकेले ही पड़ा रो रहा था। भिक्षुणी को बड़ी दया आई उसने उसे उठाकर पालन करना चाहा।

उस ब्राह्मणी पर शिवजी ने बड़ी दया की और महान लीलाधारी शिव जी ने स्वयं भिक्षुक का रूप धारण कर वहां जा पहुंचे और उस ब्राह्मणी से बोले कि भामिनी अपने चित्त मे सन्देह और खेद न करो और इस पवित्र बालक को अपने पुत्र के ही समान जानकर इसका पालन करो। ब्राह्मणी ने प्रसन्न होकर कहा धन्य हैं आप जो इस समय आ कर ऐसा कह रहे हैं, मैं तो इसका पालन करना ही चाहती थी , परंतु शंका वश आगा पीछा कर रही थी।
मैं आपसे यह जानना चाहती हूं कि यह बालक किसका है ? और आप कौन हैं ? कहां से आए हैं ? भिक्षुवर्य क्या आप दया सागर शिवजी ही हैं और यह आपका प्रथम भक्त है, जो अपने किसी कर्म दोषवश इस दशा को प्राप्त हुआ है। परंतु अब आपकी अनुग्रह से इसका कल्याण ही होगा, मैं अवश्य ही रक्षा करूंगी।

जब इस प्रकार शिव दर्शन से विज्ञान प्राप्त करने वाली, भिक्षुणी से भिक्षुवर्य शंकर जीबोले- यह शिव भक्त विदर्भ नरेश का पुत्र है, इसका पिता शत्रुओं द्वारा मार डाला गया है, उसकी स्त्री भाग वन में आई और इसका जन्म हुआ और इसके जन्म के बाद प्यास से व्याकुल सरोवर में गई तो वहाँ उसे कर्क ने पकड़ लिया। ब्राह्मणी ने पूंछा इस बालक का पिता शत्रुओं से क्यों मारा गया ? तथा इसकी माता को कर्क ने क्यों पकड़ा ? तब भिक्षुक ने कहा-
अमुष्य बालस्य पिता स विदर्भ महीपतिः।
पूर्वजन्मनि पाण्ड्योसौ बभूव नृपसत्तमः।। श-31-47
विदर्भ देश का राजा जो इस बालक का पिता था वह पूर्व जन्म में पांड्य देश का श्रेष्ठ राजा था, वह शिव भक्त था। एक समय जब वह शिवार्चन में तल्लीन था कि सहसा आक्रमण का समाचार सुन बाहर आया और शत्रु पक्ष के सामंतों को देख क्रोधित हो धर्माधर्म का बिना विचार किए, सबको अपने तलवार से मार डाला और उसकी बुद्धि का भ्रम जो अपने शिवपूजन समाप्त किए बिना ही यह सब कार्य किया, उस पर पाप चढ़ बैठा जिसके फलस्वरूप जब वह फिर विदर्भ नगर में जन्मा तो शिव पूजा के समाप्त न करने से, सुखों के मध्य में ही शत्रुओं द्वारा मारा गया।

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पूर्व जन्म का जो इसका पुत्र था वहीं इस जन्म में भी हुआ, लेकिन पूजा समाप्त किए बिना ही उठने के कारण उस दोष के चलते यह सारे ऐश्वर्य से रहित है । इसकी माता ने पूर्वजन्म में अपनी सौत को छल से मरवा दिया था। उस पाप से इस जन्म में उसे ग्राह ने निगल लिया।
अनर्चितशिवा भक्त्या प्राप्नुवन्ति दरिद्रताम्।
भक्ति पूर्वक शिव की अर्चना न करने वाले मनुष्य दरिद्र हो जाते हैं, यह सब कह शिवजी ने उस ब्राह्मणी को अपना सत्य रूप दिखा दिया। ब्राह्मणी प्रशन्न हो स्तुति करने लगी। शिव जी अंतर्ध्यान हो गए। बड़ा होकर वह पुत्र शिव पूजन करने लगा । एक दिन वह वन में जाकर एक गंधर्व कन्या से विवाह कर अकंटक राज्य करने लगा। इस प्रकार उस राज्य पुत्र को शिव जी की कृपा से सब सुख प्राप्त हुआ।
बोलिए शंकर भगवान की जय

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( सुरेश्वर अवतार )
व्याघ्र पाद का पुत्र उपमन्यु जो कि जन्मों से सिद्ध होकर इस जन्म में फिर कुमारपन को प्राप्त हुआ, अपनी माता सहित अपने मामा के घर रह रहा करता था। दैववश बड़ा दरिद्र हो गया था। उसे अपने मामा के यहां बहुत थोड़ा सा दूध पीने को मिलता था, जिससे उसकी दुग्ध की इच्छा बनी रही, वह बारम्बार अपनी माता से दुग्ध मांगता परंतु माता क्या करे उसके घर में रहता ही नहीं।


तब उसने घर के भीतर जाकर एक उपाय किया खेतों में बीनने से जो बीज मिले थे, उन बीजों को पीसकर और जल में मिलाकर बालक को देती यह लो बेटा दूध पी लो । एक दिन वह बालक ने कहा यह दुग्ध नहीं है और रोने लगा। तब माता उसकी उदास होकर उसके आंसुओं को पोंछते हुई बोली कि हम वनवासियों के पास दूध कहां है बेटा ? बिना शंकर भगवान की कृपा से कुछ नहीं होता तब अपनी माता के ऐसे वचनों को सुन कर मात्रवत्सल तथा शोकाकुल व्याघ्र पाद का पुत्र बोला मां यदि भगवान शंकर कल्याण करने वाले हैं तो कल्याण ही होगा।

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यदि महादेव जी कहीं है तो शीघ्र ही या देर से दूध देंगे ही, मैं उनकी कृपा के लिए साधन करूंगा ऐसा कह कर वह बालक अपनी माता को प्रणाम कर विदा हो तप करने चल दिया। उसने हिमालय पर जाकर ओम नमः शिवाय इस पंचाक्षरी मंत्र को जपते हुए शिवजी का पूजन कर परम तप करना प्रारंभ किया। फिर तो उस महात्मा बालक उपमन्यु के तप से चराचर जलने लगा। भगवान शंकर इन्द्र का और पार्वती जी इन्द्राणी का रूप धारण कर उस नादिए के स्थान पर ऐरावत पर बैठ उस बालक के पास गए और बोले कि मैं तुम्हारे तप से प्रसन्न हूं, जो इच्छा हो वर मांगो ?

शिव पुराण कथा इन हिंदी

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