शिव पुराण कथा आज की
( पशुपतिनाथ
शिवलिंग महात्म्य )
सूत जी बोले- हे ऋषियों उत्तर दिशा में एक और भी
गोकर्ण नामक तीर्थ है जो कि संपूर्ण पापों का नाशक है महापवित्र स्थान है ।
दाधीचं शिवलिंगं तु मिश्रर्षिवरतीर्थके।
दधीचिना मुनीशेन सुप्रीत्या च प्रतिष्ठितम्।। को-11-10
मिश्रर्षि ( मिसरिख ) नामक उत्तम तीर्थ में दाधीच
नामक शिवलिंग है, जिसे दधीचि मुनि ने
परमप्रीत पूर्वक स्थापित किया। वहां जाकर उस तीर्थ में विधि पूर्वक स्नान कर
दाधीचेश्वर शिवलिंग का आदर पूर्वक पूजन अवश्य करना चाहिए ।
बोलिए दाधीचेश्वर महादेव की जय
देवप्रयाग में सभी पापों के नाशक ललितेश्वर नामक ज्योतिर्लिंग है।
पृथ्वी पर प्रसिद्ध नेपाल नामक पुरी में पशुपतिस्वर नामक शिवलिंग है जो संपूर्ण
कामनाओं का फल प्रदान करता है , वह शिवलिंग सिरों भाग मात्र
से वहां स्थित है।
सोमनाथ ईश्वर की उत्पत्ति की कथा हम
सुन चुके हैं जब चंद्रमा को श्राप लगा तब वह प्रभाव क्षेत्र में शिव जी का ध्यान
तप किया तो शिवजी सोमनाथेश्वर के रूप में प्रकट हुए ।
मल्लिकार्जुन की उत्पत्ति की कथा भी हम
श्रवण कर चुके हैं जब नारद जी द्वारा यह पता चला कार्तिकेय को गणेश जी का विवाह हो
गया तब वह क्रोधित होकर क्रौंच पर्वत पर चले गए, तब पार्वती
शंकर दोनों पुत्र के पास गए तो उनका वहां आगमन जान तीन कोष और दूर चले गए। तब
शिवजी पार्वती सहित क्रौञ्चं पर्वत पर लिंग रूप में विराजमान हो गए।
अमावास्यादिने शंभुः स्वयं गच्छति तत्र ह।
पौर्णमासी दिने तत्र पार्वती गच्छति ध्रुवम्।। को-15-18
अमावस्या के दिन साक्षात शिव वहां जाते हैं तथा पूर्णमासी के दिन पार्वती वहां
निश्चित रूप से जाती हैं। उसी दिन से लेकर ( मल्लिका ) पार्वती तथा ( अर्जुन ) शिव
जी का मिलित रूप वह अद्वितीय शिवलिंग तीनों लोकों में प्रसिद्ध हुआ।
शिव पुराण कथा आज की
( महाकालेश्वर उत्पत्ति )
अवंतिका नामक पुरी में शिव के परम भक्त बुद्धिमान एक ब्राह्मण
रहते थे वे नित्य ही विधिपूर्वक पार्थिव शिव पूजन किया करते थे। शिव जी की कृपा से
उस विद्वान वेदज्ञ विप्र को धन-धान्य की कमी नहीं थी। सभी प्रकार के सुख भोग कर
अंत में उन्होंने शिवलोक गति प्राप्त की। उनके चार पुत्र थे- देवप्रिय, मेधाप्रिय , सुकृत एवं धर्मबाहु यह उनके नाम थे। इन
चारों के आचार विचार अपने माता पिता के समान थे ।
वहीं उनके पास रत्नमाला नामक एक पर्वत था उस पर दूषण नामक एक राक्षस
रहता था। ( दूषैःतीति दूषणः ) जो सबको दूषित करता उसे दूषण कहते हैं । वह दूषण तप
के द्वारा ब्रह्मा जी को प्रसन्न करके वर पा लिया था। तभी से वह धर्म का दोषी बन
गया, धर्म का नाश करने लगा । अपने बल से सभी देवता तथा तीनों
लोकों को अपने अधीन कर लिया।
फिर अपने चार दूतों को भेज अवंतिका के ब्राह्मणों को वश में करने को
कहा। तब वह देैत्य बहुत उपद्रव मचाये लेकिन शिव भक्तों ब्राह्मणों का कुछ नहीं कर
सके। क्योंकि वह शिवपूजन में लगे थे। इधर सारे पुरी के वाशी ब्राह्मणों के शरण में
आए कि इन दुष्टों से हमारी रक्षा करिए। ब्राह्मणों ने कहा हमारे पास तो अस्त्र-शस्त्र
हैं नहीं बस शिवजी के ही आश्रित हैं और जब वह दैत्य पूजा में तत्पर ब्राह्मणों को
मारना चाहा तो-
गर्तात्ततः समुत्पन्नः शिवो विकटरूपधृक्।
महाकाल इति ख्यातो दुष्ट हंता सतां गतिः।। को-16-37
गड्ढे से विकट रूप धारी महाकाल नाम से विख्यात दुष्टों का संहार करने वाले एवं
सज्जनों को गति देने वाले शिव जी प्रकट हो गए और हुंकार मात्र से दैत्यों का संघार
कर दिए। भगवान शिव जी के इस अद्भुत चरित्र को देखकर मुनि तथा देवता सभी प्रसन्न हो
गए। आकाश से पुष्प वर्षा होने लगी । तब श्री भगवान शंकर ने ब्राह्मण पुत्रों से
कहा कि तुम वर मांगो ? ब्राह्मण पुत्र बोले हमको अपने चरणों में
स्थान दीजिए और आप के दर्शन करने वालों की मनोकामना पूर्ण होती रहे। ब्राह्मणों को
वर देकर सदाशिव वहां महाकालेश्वर नाम से विराजमान हुए।
बोलिए महाकालेश्वर महादेव की जय
शिव पुराण कथा आज की
( महाकाल महिमा )
उज्जैन नामक नगरी में चंद्रसेन राजा थे वह शिवभक्त तथा
जितेंद्रिय थे। इसी चंद्रसेन राजा की सदाशिव के मुख्य सेवक मणिभद्र के साथ घनी
मित्रता थी। एक बार मणिभद्र चंद्रसेन राजा पर प्रसन्न हो गए तब राजा को उन्होंने
सूर्य के समान चमकती चिंतामणि प्रदान करी। जो भी धातु खनिज का उस मणि से स्पर्श
होता तो वह स्वर्ण हो जाता था।
स तु चिन्तामणिं कंठे बिभ्रद् राजा शिवाश्रयः।
चन्द्रसेनो रराजाति देवमध्ये च भानुमान्।। को-17-8
चिंतामणि को गले में धारण करके वह परम शिव भक्त राजा चंद्रसेन इस प्रकार शोभित
होता था जैसे देव गणों के बीच सूर्य शोभित होते हैं। उस मणि को राजा के पास देखकर
अन्य राजा ईर्ष्या करते हुए अनेक उपायों से मणि को हथियाने की चेष्टा करने लगे।
राजा के पास आकर उन्होंने वह मणि मांगी भी, राजा ने सभी को
फटकार दिया। तब क्रोध में आकर राजाओं ने युद्ध की तैयारी कर ली अपनी अपनी चतुरंगणी
सेना लेकर राजा पर चढ़ाई कर दी।
यह देखकर उस राजा ने महाकालेश्वर महादेव की शरण ली थी। उसी समय एक
गोपी आई उसकी गोद में पांच वर्ष का बालक था। गोपी विधवा थी वह दोनों वहां बैठकर
राजा द्वारा की जा रही शिवपूजन को देखा , फिर उस बालक को
लेकर वह गोपी अपने घर चली आयी। उस पांच वर्ष के बालक के मन में आया कि राजा की
भांति मैं भी शिवपूजन करूं। तब वह कहीं से पत्थर ढूंढ लाया उसे घर में स्थापित
करके गंध पुष्प धूप नैवेद्य आदि का मन में विचार कर वैसे ही पूजन करने लगा।
शिव पुराण कथा आज की
इतने में गोपी ने स्नेह करके उसे भोजन के लिए बुलाया परंतु बालक तो
शिव पूजन कर रहा था माता को क्या मालूम की बालक क्या कर रहा है। बालक ने माता का
बुलाना सुना ही नहीं तो माता बालक के लिए स्वयं वहां पहुंची , देखी की बालक आंखें बंद किए आसन पर बैठा है । गोपी ने उसे पकड़ कर खींच
लिया और उसे फटकारने लगी-
तां पूजांनाशयामास क्षिप्त्वा लिगं च दूरतः।
बालक के सामने रखे हुए पूजा के पत्थर को उठाकर कहीं फेंक दिया और उसे खींचकर
घर में ले गई। तब तो वह पांच साल का बालक व्याकुल होकर शिव शिव करता हुआ पृथ्वी पर
गिर पड़ा और उसके होश जाते रहे। कुछ समय बीत जाने पर बालक को चेतना आई और उसने आंखें
खोल कर देखा कि मैं महाकाल भगवान शिव के अत्यंत सुंदर मंदिर में बैठा हूं और इस
मंदिर के मध्य में सदाशिव का रत्नमय ज्योतिर्लिंग स्थित है।
ऐसा देखकर आश्चर्य करता हुआ अपने मन में अत्यंत प्रसन्न हुआ और
भगवान शिव का ध्यान करता वह अपने घर की ओर गया। वह अपने रहने का बहुत सुंदर घर
देखकर आश्चर्य में पड़ गया फिर माता की ओर देखा उसकी माता तो अमूल्य भूषण धारी
रत्न जड़ित पलंग पर सो रही थी। तब बालक माता को जगाया और प्रसन्नता का समाचार
सुनाया यह सुन तथा देख वह प्रसन्न हो गई ।
इधर जब राजा के शिव पूजन का नियम पूर्ण हुआ तो गोपी पर शंकर जी की
कृपा का समाचार राजा को मालूम हुआ तो राजा भी मंत्रियों साथ गोपी के घर पहुंचा।
वहां शंकर कृपा का प्रभाव देख आश्चर्य की सीमा न रही। राजा एवं अन्य लोग मिलकर रात
भर बड़ा भारी उत्सव किया। प्रातः काल यह समाचार नगर भर में फैल गया।
गोपी के घर भगवान शंकर जी का दर्शन करने वाले नगर भर के लोग आने
लगे। चंद्रसेन राजा पर चढ़ाई करने वाले राजाओं ने भी यह सुना तब उन्होंने मान लिया
कि उज्जैन नगरी पर सदाशिव की कृपा है , इस नगरी का महाराज
चंद्रसेन महाकालेश्वर शंकर का परम भक्त है जिसको हम कभी नहीं जीत सकते । इसके साथ
मित्रता करने में ही हमारा कल्याण है और वह सब भी गोपी के घर जाकर ज्योतिर्लिंग का
दर्शन कर राजा से मित्रता कर लिए । तब वहां-
प्रादुर्बभूव तेजस्वी हनुमान वानरेश्वरः।
हनुमान जी प्रत्यक्ष रूप से प्रकट हो गए जिनकी समस्त देवता पूजा किया करते
हैं। सभी राजा लोग चकित होकर उनकी पूजा करने लगे,,उसके बाद
हनुमान जी ने गोपी के बालक को उठाकर अपने गले से लगाया फिर राजाओं की ओर देखकर
बोले राजाओं तथा मनुष्य गण सभी चराचर प्राणियों कल्याणकर्ता तो सदाशिव हैं । देखो
इस गोपी के बालक ने केवल राजा चंद्रसेन को पूजा करते देखा था, उसने अपने घर आकर उसी विधि से केवल पूजन का अनुसरण किया है उसका परिणाम आप
लोगों के सामने है, इसका परम कल्याण हुआ है। इस लोक में सभी
सुख भोगकर अंत में यह मोक्ष पद प्राप्त करेगा। इसके कुल-
अस्य वंशेऽष्टमो भावी नन्दो नाम महायशाः।
प्राप्स्यते तस्य पुत्रत्वं कृष्णो नारायणः स्वयम्।। को-17-68
इसके वंश की आठवीं पीढ़ी में महा यशस्वी नंद नामक गोप उत्पन्न होंगे जिनके
पुत्र रूप में श्री कृष्ण नाम से साक्षात् नारायण ही अवतीर्ण होंगे। आज से लेकर यह
गोपकुमार इस लोक में श्रीकर नाम से महती लोक प्रसिद्धि प्राप्त करेगा । इतना कह
श्री हनुमान जी सभी के देखते-देखते वहां अंतर्ध्यान हो गए ।
आए हुए सभी राजाओं का चंद्रसेन ने सत्कार किया, राजा लोग प्रसन्न होकर अपनी अपनी राजधानी चले गए। उसके बाद ब्राह्मणों के
साथ श्रीकर तथा चंद्रसेन महाराज ने भगवान महाकालेश्वर शंकर जी को विधिपूर्वक पूजन
आराधन करना आरंभ किया। इस लोक में सब सुख आनंद भोगकर अंत में सब को मोक्ष प्राप्त
हुआ।
बोलिए महाकालेश्वर भगवान की जय