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संपूर्ण शिव पुराण 81

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संपूर्ण शिव पुराण 81

संपूर्ण शिव पुराण 81

 संपूर्ण शिव पुराण

   शिव पुराण कथा भाग-81  

संपूर्ण शिव पुराण

( ओंकारेश्वर महिमा )
सूत जी बोले- प्राचीन काल में नारद मुनि ने गोकर्ण शिव का पूजन कर विंध्याचल पर्वत पर पहुंचे, विंध्याचल ने श्री नारद जी का भली प्रकार सत्कार एवं पूजन आदि किया। इसके बाद विंध्याचल को अभिमान हो गया बातें करता हुआ नारद जी के सामने आकर बैठ गया। तब नारदजी बोले इसमें संदेह नहीं कि सारे पर्वत तुम्हारे में व्याप्त हैं किंतु सुमेरु नहीं, यह सब पर्वतों से मुख्य है । तुम सभी गुणों से संपन्न होकर भी उसके सामने छोटे हो।
नारद जी के वचन सुनकर विंध्याचल व्याकुल होकर खुद को धिक्कारने लगा और बोला मेरा तो जीवन व्यर्थ है अब मैं अपने आप को सुधारने हेतु शंकर भगवान का पूजन तथा तप करूंगा । इस प्रकार विचार करके उसने ओंकारेश्वर के पास पहुंच शंकर जी का पार्थिव लिंग बनाया उसे स्थापित करके छः महीने तक निरंतर उसी के द्वारा विधिपूर्वक पूजन शिव ध्यान में संलग्न होकर तप करता रहा। तब शंकर जी प्रकट हो गए वर मांगने को बोले- तब विंध्याचल ने प्रणाम कर कहा प्रभु मेरी बुद्धि को शुद्ध करके श्रेष्ठ विचार प्रदान करें।
यह सुनकर शिव जी प्रसन्न हो बोले तुम्हारी मनोकामना पूर्ण होगी। इसके बाद वहां ऋषि गणों ने आकर शिव पूजन किया फिर आराधना करके प्रार्थना करने लगे- प्रभो आप कृपा करके यहां विराजमान हो जाइए । ऋषियों के प्रार्थना के अनुसार जगत के कल्याण के लिए परमेश्वर नाम से वहां विराजमान हो गए और उसी नाम से प्रसिद्ध हुए। ऋषियों ओंकारेश्वर तथा परमेश्वर यह दोनों भिन्न है किंतु हैं एक ही । दोनों ही स्वर्ग मोक्षादिक फल देने वाले हैं।

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( केदारेश्वर महिमा )
सूत जी बोले- हे द्विजों! विष्णु के नर नारायण नमक जिन दो अवतारों ने भारतवर्ष के अंतर्गत भरत खंड में स्थित बद्रिका आश्रम में तप किया था , उनके द्वारा पूजन हेतु प्रार्थना किए जाने पर भक्ति के वसीभूत होने के कारण सदाशिव नित्य उनके पार्थिव लिंग में विराजमान हो जाते हैं। इस प्रकार शिव की पूजा करते हुए उन परम शिव भक्त विष्णु के अवतार भूत धर्म पुत्र नर नारायण का बहुत समय बीत गया, तब सदाशिव प्रसन्न होकर वर मांगने को कहा। तो नर नारायण बोले-
यदि प्रशन्नो देवेश यदि देयो वरस्त्वया।
स्थीयतां स्वेन रूपेण पूजार्थं शंकर स्वयम्।। को-19-6
हे देवेश यदि आप प्रसन्न हैं और यदि वर देना चाहते हैं तो अपने स्वरूप से पूजा के निमित्त स्वयं यहीं पर निवास करें । तब उस केदार क्षेत्र में स्वयं महादेव सदाशिव ज्योति रूप से विराजमान हो गए । पांडवों को देखकर जिन्होंने माया से महिष का रूप धारण कर पलायन किया था और जब इन पांडवों ने महिष रूप धारी उन शिव को तथा उनकी पूछ भी पकड़ ली तब वह उन पांडवों के प्रार्थना पर नीचे की ओर मुख कर वहां स्थित हो गये। उस रूप का शिरो भाग नेपाल में प्रकट हुआ। इस भारत खंड में सभी प्राणियों को नर नारायण तथा केदारेश्वर की भक्ति पूर्वक पूजा करनी चाहिए वह सभी के कामनाओं को पूर्ण करने वाले हैं ।

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( भीम शंकर ज्योतिर्लिंग )
एक समय रावण के छोटे भाई कुंभकरण ने जो करकटी नामक राक्षसी से भीम नामक दानव उत्पन्न किया था। वह असुर तप के द्वारा ब्रह्मा जी से वरदान प्राप्त कर संसार के प्राणियों व देवताओं को कष्ट देने लगा। तब सब देवता गण शिवजी की आराधना किये तब वह प्रसन्न होकर बोले जब वह असुर मेरे परम भक्त कामरूपेश्वर का तिरस्कार करने पर मैं उसका वध कर दूंगा। इधर शिव आराधना में तत्पर कामरूप का वध करने को जैसे ही वह भीम नामक असुर बड़ा वैसे ही उस पार्थिव लिंग से सदाशिव प्रकट हो गए और उनकी हुंकार मात्र से ही वह असुर जलकर नष्ट हो गया। तब ऋषियों के प्रार्थना पर शिवजी भीम शंकर के रूप में स्थित हो गए।

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( काशीपुरी शिव जी का आगमन )
तस्यैव कैवल्यरतेर्द्वितीयेच्छा ततोऽभवत्।
स एव सगुणो जातः शिव इत्यभिधीयते।। को-23-3
अपने कैवल्य ( अद्वैत ) भाव में ही रमने वाले उस अद्वितीय परमेश्वर को दूसरा रूप वाला होने की इच्छा हुई , वही सगुण हो गया जो शिव नाम से कहा जाता है । वही स्त्री तथा पुरुष के भेद से दो रूपों में हो गए ,उनमें जो पुरुष था वह शिव हुए तथा स्त्री थी वह शक्ति। शिव शक्ति के स्वभाव से पुरुष और प्रकृति प्रकट हुए। जब इस प्रकृति एवं पुरुष ने अपने जननी एवं जनक को नहीं देखा, तब वह महान संशय में पड़ गए । उस समय निर्गुण परमात्मा से आकाशवाणी उत्पन्न हुई कि तुम दोनों तप करो उसी से उत्तम सृष्टि होगी। प्रकृति पुरुष बोले हे प्रभु तप का कोई स्थान नहीं है फिर हम दोनों आपकी आज्ञा से कहां स्थित होकर तप करें ?

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तब निर्गुण शिव ने अंतरिक्ष में स्थित सभी सामग्रियों से संबंधित संपूर्ण तेजो का सारभूत पांच कोष परिमाण वाला एक सुंदर नगर बनाया। उस नगर को शिव जी ने पुरुष के समीप भेज दिया तब वहां स्थित होकर पुरुष रूप विष्णु ने सृष्टि की कामना से उन शिव जी का ध्यान करते हुए बहुत काल पर्यंत तप किया ,तपस्या के श्रम से अनेक जल धाराएं उत्पन्न हो गई। सभी जगह जल ही जल हो गया। विष्णु जी ने देखा कि यह क्या आश्चर्य है और अपना सर हिलाया तब उनके कान से एक मणि गिर पड़ी वह मणिकर्णिका नाम से एक महान तीर्थ हो गया।
वह काशी नगरी जब जल में डूबने लगी तो सदाशिव ने उसे अपने त्रिशूल के नोक पर धारण कर लिए । उसके बाद भगवान नारायण पुरुष तथा उनकी पत्नी प्रकृति इस नगर में सो गए। शंकर की प्रेरणा से विष्णु जी के नाभि कमल से ब्रह्मा जी प्रकट हुए तब उन्होंने शिव की आज्ञा पाकर अद्भुत सृष्टि की रचना की। उन्होंने ब्रह्मांड में चौदह लोकों का निर्माण किया।
योजनानां च पञ्चाशत् कोटि संख्या प्रमाणतः।
ब्रह्माण्डस्यैव विस्तारो मुनिभिः परिकीर्तितः।। को-22-18
मुनियों ने इस ब्रह्मांड का विस्तार पचास करोड़ योजन बताया है। ब्रह्मांड में अपने-अपने कर्मों से बंधे हुए सभी प्राणी मुझे किस प्रकार से प्राप्त करेंगे ? ऐसा विचार कर उन्होंने ( शिव जी ने ) पंचकोशी को ब्रह्मांड से अलग रखा । भगवान सदाशिव इस काशी के महिमा में कहा है कि-
इयं च शुभदा लोके कर्मनाशकरी मता।
मोक्ष प्रकाशिका काशी ज्ञानदा मम सुप्रिया।। को-22-20
यह काशी लोक में कल्याण करने वाली, कर्मबंधन का विनाश करने वाली, मोक्ष तत्व को प्रकाशित करने वाली, ज्ञान प्रदान करने वाली तथा मुझे अत्यंत प्रिय कही गई है।
बोलिए काशी विश्वनाथ भगवान की जय

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( बैद्यनाथेश्वर शिव महिमा )
सूत जी बोले- ब्राह्मणों! प्राचीन काल में मान पाने की इच्छा से लंकापति रावण कैलाश पहुंचा। श्रद्धा के साथ भगवान शंकर जी को प्रणाम किया किंतु शंकर जी प्रसन्न होते दिखाई ना दिए तब उन्हें प्रसन्न करने के लिए उसने एक गड्ढा खोदा उसमें अग्नि को आधीन करके उसके समीप शिव स्थापित किए। फिर गर्मी में पंचाग्नि तप कर और वर्षा में पानी सहकार तथा सीत में शीत की चिंता ना कर के कठिन तप करने लगा फिर भी सफल ना हुआ।
तब वह राक्षसपति अपने मस्तक काटकर चढ़ाने लगा और जब उसने अपना दसवां सिर काटना चाहा उसी समय शिवजी संतुष्ट होकर प्रकट हो गए। सदाशिव ने अपनी कृपा द्वारा उसके सभी मस्तक ज्यों का त्यों कर दिए और अतुल बल प्रदान किए। तब शंकर जी को प्रसन्न जानकर रावण ने नम्रता से प्रार्थना की कि हे प्रभु मेरे साथ लंका चलिए और मुझे कृतार्थ करिए। इतना सुनकर सदाशिव बोले हे लंकेश्वर मेरी आज्ञा से मेरा यह स्वरूप ज्योतिर्लिंग अपने साथ लंका में ले जाओ किंतु मार्ग में किसी स्थान पर भी रखना नहीं, नहीं तो यह फिर आगे नहीं जाएगा। इस प्रकार सुनकर रावण शिव जी के दिए ज्योतिर्लिंग को उठाकर चल पड़ा जब, चलते-चलते शिवजी की इच्छा से उसे लघु शंका करने की इच्छा हुई ।

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तब रावण ने वह लिंग तो किसी ग्वारिये को सौंपा और लघुशंका करने बैठ गया। उस ग्वारिये ने दो घड़ी तो लिंग को थामा किंतु बोझ अधिक होने के कारण वह संभाल ना सका आखिर में पृथ्वी पर रख दिया। उसके बाद तो लिंग वहां स्थित हो गया।
वैद्यनाथेश्वरं नाम्ना तल्लिंगमभवन्मुने।
प्रसिद्धं त्रिषु लोकेषु भुक्तिमुक्तिप्रदं सताम्।। को-28-20

वह लिंग तीनों लोको में बैद्यनाथेश्वर नाम से प्रसिद्ध हुआ वह सत्पुरुषों को भोग तथा मोक्ष प्रदान करने वाला है।
बोलिए बैद्यनाथेश्वर महादेव की जय

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( श्री राम देशिक प्रशिक्षण केंद्र )

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