शिव पुराण संस्कृत श्लोक PDF
( यक्षेश्वर
अवतार )
नंदीश्वर बोले-
यक्षेश्वरावतारं च शृणु शंभोर्मुनीश्वर।
गर्विणं गर्वहन्तारं सतां भक्तिविवर्ध्दनम्।। श-16-1
हे मुनीश्वर अब आप भगवान शंभू के यक्षेश्वर अवतार
को सुनिए- जो अहंकार से युक्त जनों के गर्व को नष्ट करने वाला तथा सज्जनों की
भक्ति का संवर्धन करने वाला है। जब अमृत के लिए देवताओं और असुरों ने छीर सागर का
मंथन किया तो पहले उसमें हलाहल विष निकल संसार को भस्म करने लगा। उसे देख सब भयभीत
हो विष्णु जी को साथ ले शिव जी के पास गए , अपना
सारा दुख कहा। शिवजी ने दयाद्र होकर सारा विष का पान कर लिया।
जिससे उनके कंठ में श्यामलता आ गई और वे नीलकंठ हो गए, इसके बाद देव दानवों ने फिर समुद्र को मथा तो उसमें से रत्न निकले और अमृत
का प्रादुर्भाव हुआ। तब अमृत को केवल देवताओं ने पान किया और दैत्यों ने नहीं पाया
इससे देवता दैत्यों का बड़ा युद्ध हुआ और राहु के भय से पीड़ित चंद्रमा भाग गए।
शिवजी चंद्रमा को अपने सिर पर धारण कर उसकी रक्षा की।
शिव पुराण संस्कृत श्लोक PDF
इधर अमृत का पान कर देवता दैत्यों से जीत गए तो उनमें अभिमान छा गया,
शिवजी की माया से मोहित हो अपने बल की बड़ी प्रशंसा करने लगे। तब
शिवजी यक्ष रूप धारण कर उनके पास आए और उनसे पूछे तुम लोग यहां किस कारण स्थिर हो
ठीक ठीक बताओ ? देवताओं ने कहा हमने बड़ा भारी युद्ध दैत्यों
से जीता है। यक्षेश्वर ने कहा-
गर्वमेनं न कुरुत कर्ता हर्ता परः प्रभुः।
देवताओं यह तुम्हारा गर्व मिथ्या है, तुम्हारा निर्माण करने वाला स्वामी कोई दूसरा ही है
। क्या तुम उन महादेव को भूल गए जो व्यर्थ ही अपना बल बखानते हो ? यदि तुम्हें अपने बल का ऐसा ही अभिमान है तो उसकी परीक्षा करो, मैं यहां एक तिनका स्थापित करता हूं तुम लोग इस तिनके को अपने अस्त्रों से
काट दो। ऐसा कहकर सत पुरुषों को गति देने वाले उन यज्ञरूपी रुद्र ने देवताओं के
आगे एक तिनका फेंककर सबका मद दूर कर दिया।
सभी देवता अपना पुरुषार्थ कर उस पर अपने अस्त्र चलाने लगे, अनेक प्रहार किए किंतु उस पर तो शिवजी का प्रभाव था , देवताओं के सब अस्त्र-व्यर्थ हो गए, वे उस तृण को
काट ना सके। देवताओं को बड़ा आश्चर्य हुआ तब आकाशवाणी हुई- हे देवताओं
यक्षोयं शङ्करो देवाः सर्वगर्वा पहारकः।
ये यक्ष रूप में सब के अहंकार का अपहरण करने वाले
सदाशिव ही हैं। आकाशवाणी को सुन देवताओं ने यक्षेश्वर को प्रणाम कर उन्हें संतुष्ट
करने लगे- देवताओं ने शिवजी की बड़ी स्तुति कि तब यक्ष नाथ सब देवताओं को समझा कर
वहीं अंतर्ध्यान हो गए। यक्षेर के रूप में शिव जी ने सबका मद हरण किया।
बोलिए यक्षेश्वर महादेव की जय
शिव पुराण संस्कृत श्लोक PDF
( शिव दशावतार )
नंदीश्वर बोले- मुने अब शिवजी के दश अवतारों को सुनो- (1)-
महाकाल अवतार- जो सज्जनों को भोग मोक्ष
प्रदान करने वाला है, इस अवतार में उनकी शक्ति महाकाली हैं
जो भक्तों को अभीष्ट फल प्रदान करती हैं।
(2) तार अवतार- नाम से विख्यात है
जिनकी शक्ति तारा हैं, यह दोनों ही अपने भक्तों को सुख
प्रदान करने वाले एवं मोक्ष देने वाले हैं। (3) बाल
भुवनेश्वर अवतार- नाम से पुकारा जाता है, उनकी शक्ति बाला भुवनेश्वरी कही जाती हैं, यह
सतपुरुषों को सुख देती हैं। (4) षोडश नामक विद्येश
अवतार- रूप में हुआ, षोडशी श्री
विद्या उनकी महाशक्ति हैं।
(5) भैरव अवतार- नाम से प्रसिद्ध है,
इनकी महाशक्ति गिरजा भैरवी नाम से प्रसिद्ध है। (6)
छिन्नमस्तक अवतार- कहा गया है उनकी
महाशक्ति छिन्नमस्तिका गिरजा हैं। (7) धूमवान
अवतार- नाम से है, उनकी शक्ति धूमावती
हैं। (8) बगलामुख अवतार-
कहा गया है, उनकी शक्ति बगलामुखी कही गई हैं, जो परम आनंद स्वरूपिणी हैं। (9) मातंग
अवतार- नाम से विख्यात है उनकी शक्ति मातंगी हैं जो
समस्त कामनाओं का फल प्रदान करती हैं।
(10) कमल अवतार- है उनकी शक्ति पार्वती
का नाम कमला है जो भक्तों का पालन करती हैं। शिव जी के ये दस अवतार हैं जो सज्जनों
एवं भक्तों को सर्वदा सुख देने वाले तथा उन्हें मुक्ति एवं भुक्ति प्रदान करने
वाले हैं।
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( एकादश रूद्रों की उत्पत्ति )
पूर्व समय में जब इंद्र अमरावती छोड़कर भाग गए थे तब उनके शिवभक्त
पिता कश्यप को बड़ा दुख हुआ, उन्होंने इंद्र को बढ़ा धैर्य
बधाकर स्वयं विश्वेश्वर की पूरी काशी को प्रस्थान किया। वहां पहुंचकर उन्होंने
गंगा जी में स्नान कर विश्वेश्वर महादेव का पूजन किया और एक शिवलिंग की स्थापना कर
देवताओं के हितार्थ प्रीति पूर्वक शिव जी का तप किया।
तप करते करते उनको बहुत दिन व्यतीत हो गए, तब
ऋषि को वर देने के लिए शिव जी प्रकट हो गए। कश्यप जी से बोले वर मांगो? तब मुनि बड़ स्तुति कर बोले- मेरी कामना पूर्ण कीजिए मैं विशेषकर पुत्र के
दुख से दुखी हूं। मुझे सुखी कीजिए। आप ही मेरे पुत्र रूप में अवतार लेकर देवताओं
को आनंद प्रदान कीजिए। तब शिव जी प्रसन्न होकर तथास्तु कह अंतर्ध्यान हो गए। कश्यप
जी प्रसन्न हो अपने स्थान को आए।
ततः स शङ्करः शर्वः सत्यं कर्त्तुं स्वकं वचः।
सुराभ्यां कश्यपाञ्जज्ञे एकादश स्वरूपवान्।। श-18-25
उसके बाद संघर्ता शंकर जी ने अपना वचन सत्य करने के लिए ग्यारह रूप
धारण कर कश्यप जी से उनकी सुरभि नामक पत्नी से अवतार ग्रहण किया। कपाली, पिंगल,भीम, विरुपाक्ष, विलोहित, शास्ता, अजपाद,
अहिर्बुध्न्य, शम्भु, चण्ड
तथा भव। ये ग्यारह रुद्र सुरभि के पुत्र कहे गए। उस समय बड़ा भारी उत्सव हुआ।
इन ग्यारह रूद्रों ने देवताओं के हितार्थ संग्राम में बहुत से
दैत्यों को मारा और देवताओं ने निर्भय हो अपना राज्य प्राप्त कर लिया। जो सावधान
होकर इसको सुनता है अथवा सुनाता है वह इस लोक में सब प्रकार का सुख भोग कर अंत में
मुक्ति प्राप्त कर लेता है।
बोलिए सांब सदाशिव भगवान की जय
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( दुर्वासा चरित्र )
ब्रह्मा जी के परम तपस्वी एवं ब्रह्मावेता अत्रि नामक पुत्र हुए
वह बड़े बुद्धिमान ब्रह्मा जी की आज्ञा का पालन करने वाले एवं अनुसूया के पति थे।
एक समय ब्रह्मा जी के निर्देशानुसार पुत्र की इच्छा से पत्नी सहित तप करने के लिए
त्र्यक्षकुल नामक पर्वत पर गए। उन मुनि ने निर्विन्ध्या नदी के तट पर अपने प्राणों
को रोककर, निर्द्वन्द्व हो सौ वर्ष पर्यन्त विधिपूर्वक
महाघोर तप किया।
उनके तप के ज्वाला से संसार जलने लगा, तब उनके
सामने ब्रह्मा विष्णु महेश प्रगट हो गए। अत्रि बोले मैंने तो सपत्नीक तपोनिरत होकर
पुत्र की कामना से केवल एक मात्र जो इस सारे जगत के ईश्वर हैं उन्हीं का ध्यान
किया था। लेकिन आप तीन यहां कैसे उपस्थित हो गए ? मेरे इस
संशय को दूर करिए । उनकी बात सुनकर उन तीनों देवताओं ने कहा- हे मुनि-
वयं त्रयो भवेशानाः समाना वरदर्षभाः।
अस्मदंशभवास्तस्माद्भविष्यन्ति सुतास्त्रयः।। श-19-21
जैसा आप ने संकल्प किया था वैसा ही हुआ है, हम ब्रह्मा
विष्णु महेश तीनों ही समान रूप से इस जगत के ईश्वर हैं। इसीलिए वर देने के लिए
उपस्थित हुए हैं। अतः हम लोगों के अंश से आप के तीन पुत्र होंगे वह सभी जगत प्रसिद्ध
होकर माता एवं पिता की कीर्ति को बढ़ाने वाले होंगे। ऐसा कह कर वे तीनों देवता
प्रसन्न होकर अपने अपने धाम को चले गए।
समय पूर्ण होने पर मुनीश्वर के द्वारा अनुसूया के गर्भ से ब्रह्मा
के अंश रूप में चंद्रमा उत्पन्न हुए, किंतु देवताओं के
द्वारा समुद्र में डाल देने के कारण वे पुनः समुद्र से उत्पन्न हुए। विष्णु के अंश
से दत्तात्रेय उत्पन्न हुए, जिन्होंने सर्वोत्तम सन्यास
पद्धति का संवर्धन किया। रुद्र के अंश से श्रेष्ठ धर्म का प्रचार करने वाले मुनि
श्रेष्ठ दुर्वासा उत्पन्न हुए, रूद्र ने दुर्वासा के रूप में
प्रकट होकर ब्रह्म तेज को बढ़ाया और दया पूर्वक बहुतों के धर्म की परीक्षा भी ली।