संपूर्ण शिव पुराण PDF
( व्यास जी द्वारा पांडवों को शिव पूजन का
उपदेश )
नंदीश्वर बोले- जब श्रेष्ठ पांडवों को दुर्योधन ने जुयें में हरा दिया तो वे
अपनी साध्वी द्रोपती को साथ ले द्वैतवन में जाकर सूर्य की द्वारा दी गई स्थाली
यानी बटलोयी का आश्रय ले सुख पूर्वक अपना समय बिताने लगे। तब दुर्योधन ने पांडवों
को कष्ट देने के अभिप्राय से ऋषि पुंगम दुर्वासा को उनके स्थान पर भेजकर एक और ही
कपट करवा दिया। वहां जाकर अपने दस हजार शिष्यों के साथ दुर्वासा ने मनोनुकूल भोजन
उन पांडवों से प्रेम पूर्वक मांगा।
पांडवों ने स्वीकार कर उन तपस्वियों को स्नान के लिए भेजा, फिर अन्न के अभाव से दुखी पांडव प्राण विसर्जन करने लगे तब द्रोपती ने
श्रीकृष्ण का स्मरण किया तो कृष्ण तक्षण वहां उपस्थित हो गए और स्वयं साग को खा कर
उन सब को तृप्त कर दिया। दुर्वासा अपने शिष्यों को तृप्त हुआ जान वहां से चले गए ।
श्री कृष्ण जी की कृपा से पांडवों का यह संकट टल गया। श्री कृष्ण पांडवों को शिव
आराधना बता द्वारका चले गए।
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पांडवों ने दुर्योधन के गुणों की परीक्षा करने के लिए एक भील को
भेजा वह दुर्योधन के पास जा उसमें गुणोदय को जान पांडवों के पास आया, उनसे दुर्योधन के गुण सुन पांडवों को बड़ा क्रोध आया। युद्ध का विचार किया
परंतु उपयुक्त समय ना जानकर वह मौन ही रहे। इसके बाद जटा जूट विभूषित रुद्राक्ष
धारी मंत्र जपते व्यास जी उनके पास आए । पांडवों ने देखा तो व्यास जी शिव के प्रेम
में मगन तेजपुंज साक्षात दूसरे धर्म के समान ही शरीर धारण किए थे। तब ऐसे व्यास जी
को देख पांडवों ने खड़े हो उनकी अभ्यर्चना की और कुशासन पर बैठा कर विधिवत उनका
पूजन किया।
पांडवों ने व्यास जी से निवेदन कर उनसे ऐसे उपदेश की याचना की
जिसमें उनका कष्ट शीघ्र ही दूर हो जावे। तब उन महामुनी व्यास जी ने प्रसन्न होकर
कहा पांडव तुम कष्ट के योग्य नहीं थे क्योंकि तुमने सत्य का लोप नहीं किया है,
तुम धन्य हो ।
सुजनानां स्वभावोऽयं प्राणान्तेऽपि सुशोभनः।
धर्मं त्यजन्ति नैवात्र सत्यं सफल भाजनम्।। श-37-38
सतपुरुषों का ऐसा अति उत्तम स्वभाव होता है कि वह मृत्यु पर्यंत मनोहर फल देने
वाले सत्य तथा धर्म का त्याग नहीं करते । हमारे लिए तो तुम और कौरव दोनों ही समान
हो तो भी बुद्धिमानों का धर्मात्माओं में पक्षपात होता ही है । पहले तो इस अंधे
धृतराष्ट्र ने लोभ वश स्वयं का धर्म परित्याग किया और तुम्हारा राज्य अपहरण कर
लिया। उसने दुर्योधन को अनर्थ से ना रोका लेकिन तुम लोग चिंता ना करो, क्योंकि जो बीज बोया जाता है उसी का अंकुर निकलता है।
व्यास जी ने कहा धर्म बुद्धि पांडवों कृष्ण जी का कहना सत्य था तुम
लोग बड़े प्रेम से शिवजी की आराधना करो इससे तुम अतुल सुख प्राप्त करोगे। फिर
व्यास जी ने उन पांच पांडवों में अर्जुन को शिवजी की आराधना के लिए उसे इंद्र
संबंधी विद्या का उपदेश कर पार्थिव पूजन का विधान बतलाया।
अर्जुन इंद्रकील पर्वत के निकट गंगा जी के तट पर तप करने चले गए ।
व्यास जी सब पांडवों में श्रेष्ठ युधिष्ठिर से बोले तुम सर्वदा धर्म में ही स्थित
रहना इससे निसंदेह तुम्हें सर्वश्रेष्ठ सिद्धि प्राप्ति होगी। ऐसा कह व्यास जी शिव
जी के चरणों का ध्यान करते हुए अदृश्य हो गए ।
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( शिवजी का किरात अवतार )
शिव मंत्र के अतुल्यतेज से अर्जुन प्रकाशमान हो गए, अर्जुन को ऐसा देख पांडवों को अपनी विजय में संदेह है ना रहा । उन्हें
अपने में विपुल तेज दिखाई पड़ा। तब अर्जुन शिवजी के लिए तप करने चले तो द्रोपति
सहित पांडवों ने बड़े दुख से उन्हें विदा किया किंतु उन्हें यह विश्वास था कि
व्यास जी के उपदेश अनुसार शिवजी की आराधना से हमारा कल्याण होगा।
इस प्रकार अर्जुन को तप के लिए भेज पांडव खिन्न हो द्रोपती सहित वहां
रहने लगे। परंतु अर्जुन के वियोग से उन्हें कभी शांति ना प्राप्त होती थी। तब
उन्हें दुखी जान कृपा सिंधु व्यास जी फिर उनके पास पहुंचे और पांडवों ने उनकी पूजा
की और कुछ दिनों के लिए अपने पास ठहरने की प्रार्थना की। व्यास जी पांडवों के सुख
के लिए कुछ दिन के लिए ठहर गए और उन्हें उपदेश की कथाओं से संतुष्ट करते रहे ।
एक दिन युधिष्ठिर ने व्यास जी से पूंछा-
ईद्रशं चैव दुःखं च पुरा प्राप्तश्च कश्चन।
वयमेव परं दुःखं प्राप्ता वैनैव कश्चन।। श-38-17
क्या इस प्रकार का दुख पहले और किसी को प्राप्त हुआ है अथवा यह महान दुख हमें
ही मिला है ? अन्य किसी को नहीं । व्यास जी बोले नहीं औरों ने भी हमसे कठिन
दुख पाए हैं । पूर्व समय में निषध देश के अधिपति राजा नल तो आप से भी अधिक दुख पा
चुके हैं। राजा हरिश्चंद्र ने बड़ा दुख पाया है।
दुःखं तथैव विज्ञेयं रामस्याप्यथ पाण्डव।
यच्छ्रुत्वा स्त्रीनराणां च भवेन्मोहो महत्तरः।। श-38-20
हे पांडव वैसा ही दुख श्री रामचंद्र का भी जानना चाहिए जिसे सुनकर स्त्री
पुरुष को अत्यधिक कष्ट होता है।
येनेदं च धृतं तेन व्याप्त मेव न संशयः।
प्रथमं मातृगर्भे वै जन्म दुःखस्य कारणम्।।
कौमारेऽपि महादुःखं बाललीला नुसारि यत्।
ततोऽपि यौवने कामान्भुञ्जानो दुःखरूपिणः।।
गतागतैर्दिनानां हि कार्यभारैरनेकशः।
आयुश्च क्षीयते नित्यं न जानाति ह तत्पुनः।।
अन्ते च मरणं चैव महादुःख मतः परम्।
नाना नरक पीडाश्च भुज्यन्तेऽज्ञैर्नरैस्तदा।।
श-38-22, 23,24,25
जिस किसी ने यह शरीर धारण किया है वह दुखों से व्याप्त हुआ है, इसमें संदेह नहीं है । सर्वप्रथम माता के गर्भ में जन्म लेना ही दुख का
कारण होता है फिर कुमार अवस्था में भी बालको की लीला अनुसार महान दुख होता है ।
इसके बाद मनुष्य युवावस्था में दुख रूपी कामनाओं का भोग करता है । अनेक प्रकार के
कार्यभारों से तथा दिनों दिन के गमनागमन से पुरुष की सारी आयु इसी प्रकार नष्ट हो
जाती है और मनुष्य को उसका ज्ञान नहीं रहता।
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अंत समय में जब पुरुष की मृत्यु होती है, उस
समय उसे इससे भी अधिक कष्ट उठाना पड़ता है ,इसके बाद भी
अज्ञानी मनुष्य अनेक प्रकार के नरकों की पीड़ा को प्राप्त करते हैं । अतः यह सब
मिथ्या है । तुम सत्य का आचरण करो शिवजी सत्य से ही प्रसन्न होते हैं। अतः मनुष्य
को वही करना चाहिए।
इधर तो यह अवस्था थी उधर अर्जुन मार्ग के अनेक कष्टों को पार करते
हुए इंद्रकील पर्वत पर गंगा जी के तट पर पहुंचे, फिर जैसा
व्यास जी ने उपदेश किया था उसके अनुसार उन्होंने भेषादि बनाए फिर इंद्रियों को वश
में कर पार्थिव बना शिवजी की आराधना करने लगे। उस उपासना से अर्जुन के सिर से तेज
निकलने लगा जिसे देखकर जीवो को भय होने लगा कि यह तेज कब शांत होगा ?
यह कहने के लिए लोग इंद्र के पास गए अर्जुन के कठिन तप का वृतांत
कहा। सचीपति वृद्ध ब्राह्मण का ब्रह्मचारी वेष बना अर्जुन की परीक्षा करने चले तब
उन्हें अपनी ओर आते देख अर्जुन ने उनकी पूजा की और पूछा कि इस समय आप कहां से आ
रहे हैं ? ब्राह्मण भेष इंद्र ने वह ना कह अर्जुन से यह कहा
कि तुम इतनी छोटी अवस्था में तप कर रहे हो। यह तुम्हारा तप मुक्ति के लिए है या जय
के लिए है ? तब अर्जुन अपना मंतव्य कहा। यह सुन ब्राह्मण ने
कहा तुम्हारा यह तप क्षत्रिय धर्म से युक्त संगत नहीं है क्योंकि यह तप तो
मुक्तिदाता है और इंद्र मोक्ष का नहीं सुख का दाता है।
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तुमको यह तप करना योग्य नहीं , यह सुन अर्जुन
ने क्रुद्ध हो इंद्र से कहा- आप ऐसा क्यों कहते हैं ? मैं तो
व्यास जी के वचनों के लिए तप कर रहा हूं। हे ब्रह्मचारी जी आप कृपा कर यहां से चले
जाइए आप मुझे पतित करना चाहते हैं । इस पर ब्रह्मचारी इंद्र ने अर्जुन को अपना
वास्तविक रूप दिखाया। अर्जुन से वर मांगने को कहा अर्जुन ने कहा शत्रुओं से विजय
दीजिए । शक्र बोले- हे तात दुर्योधन आदि तुम्हारे शत्रु बड़े बलवान हैं और द्रोण,
भीष्म एवं कर्ण ये सब निश्चय ही युद्ध में दुर्जय हैं।
अश्वत्थामा द्रोणपुत्रो रौद्रांऽशों दुर्जयोऽति सः।
मयासाध्या भवेयुस्ते सर्वथा स्वहितं शृणु।। श-38-54
साक्षात रुद्र अंश द्रोण पुत्र अश्वत्थामा तो अत्यंत दुर्जय है वे सभी भीष्म
द्रोण आदि मुझसे भी असाध्य हैं, तो भी अपने हित की बात सुनो! तुम एकमात्र
शिवजी की आराधना करो तुमको अचल सिद्धि प्राप्त होगी। अर्जुन से ऐसा कह इंद्र उनकी
रक्षा के लिए वहां अपने कुछ अनुचरों को नियुक्त कर शिव जी के चरणों का ध्यान करते
हुए अपने भवन को चले गए। अर्जुन संग्राम में विजय पाने के लिए वहां रह उसी विधि से
शिवजी के प्रसन्नता के लिए तप करने लगे।