shiv puran katha notes
तब ब्रह्मादिक देवता बोले- महादेव हम सब ही आपके रथ आयुध
आदि सारे दिव्य रूप हो जाएंगे आप युद्ध के लिए तैयार हो जाइए। तब शरणागत वत्सल
युद्ध के लिए तैयार हो गए । उसी समय पार्वती देवी अपने पुत्र को गोद में लिए वहां
आईं, तब विष्णु आदि सभी देवता नम्र हो उन्हें प्रणाम करने लगे ।
इसके बाद भवानी के साथ महादेव भवन के अंदर चले गए तब देवताओं के दुख
की सीमा ना रही। तब विष्णु जी ने देवताओं को ओम नमः शिवाय मंत्र जपने को कहा और
स्वयं भी जपने लगे। शिव मंत्र के एक करोड़ नाम जपते ही महादेव प्रसन्न हो गए और
उन्होंने दर्शन दिया और वरदान मांगने को कहा।
तब देवताओं ने त्रिपुर संघार का वर मांगा। शिवजी ने कहा मेरे लिए
दिव्य रथ , सारथि और धनुष बाण लाओ। यह सुन देवता प्रसन्न हो
विश्वकर्मा के पास गए विष्णु जी की आज्ञा से विश्वकर्मा ने संसार के हितार्थ शिवजी
के लिए परम सुंदर देवमय रथ आदि का निर्माण कर दिया।
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( शिव जी के रथ का निर्माण )
व्यास जी बोले- सनत्कुमार जी विश्वकर्मा ने वह रथ का निर्माण कैसे
किया ? तो सनत्कुमार जी बोले-
शृणु व्यास महाप्राज्ञ रथादेर्निर्मितिं मुने।
यथामति प्रवक्ष्येहं स्मृत्वा शिव पदाम्बुजम्।। रु-यु-8-4
हे मुने मैं शिव जी के चरणों का ध्यान कर अपनी बुद्धि के अनुसार रथ आदि के
निर्माण का वर्णन करूंगा आप सुने । विश्वकर्मा ने शिवजी के लिए दिव्य रथ तैयार
किया, उनके समान किसी लोक में ऐसा रथ ना था।
सूर्य और चंद्रमा दोनों पहिए बने थे। बारह महीने रूपी आरे, बारहों आदित्य तथा ब्रम्हांड की जो कुछ वस्तु है सभी उस रथ में विद्यमान
थी । बड़ा ही अद्भुत और अलौकिक रथ था।
उस रथ पर आरूढ़ होकर महादेव त्रिपुरों को नष्ट करने चल दिए।
इंद्रादिक देवता भी अपने गणों के साथ युद्ध में चल दिए। ब्रह्मा, विष्णु भी अपने-अपने वाहनों में चढ़कर उनके साथ चले। आकाश से सिद्ध चारण
पुष्पों की वर्षा करने लगे।
त्रिपुर वध के लिए शिवजी रथारूढ हो धनुष चढ़ाकर वहां स्थित हुए,
परंतु हजारों वर्षों तक हुए वैसे ही आरूढ़ स्थित आसन मे खड़े रहे और
उनका बाण ना चला । तब आकाशवाणी सुनाई पड़ी जब तक आप गणेश जी का पूजन नहीं करेंगे
तब तक त्रिपुर संघार ना कर सकेंगे ।
यह सुनते ही शंकर जी ने गणेश जी का पूजन किया। तब गणेश जी प्रसन्न
हो उनके मार्ग से हट गए , फिर शंकर जी धनुष में पाशुपतास्त्र
करोड़ों सूर्य के समान प्रकाशमान बांण को असुर पर चला दिया। देखते हि देखते तीनों
पुर जलकर भस्म हो गए और भूमि पर गिर पड़े ।
हजारों की संख्या में दैत्य भष्म हो गए , जब
भाइयों सहित तारकाक्ष भस्म होने लगा तो उसने भक्तवत्सल शंकर जी की ओर देखा और बोला
प्रभु मुझे आपके हाथों मरने में दुख नहीं है बस आपके चरणों में यही प्रार्थना है
कि हमारी बुद्धि जन्म जन्मांतर तक आप में ही लगी रहे। ऐसा कह कर के वे दानव शिव जी
के वह्नि में भस्म हो गए। केवल एक विश्वकर्मा मैदानव को छोड़कर स्थावर तथा जंगम
कोई भी बिना जले ना बचा।
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मैदानव देवताओं का विरोधी नहीं था और जो दैत्य शिवपूजन में तत्पर थे
वे सब शिव जी के गण हुए।
( शंकर जी द्वारा देव गणों को वरदान )
व्यास जी बोले- महर्षि त्रिपुरों के नष्ट होने पर देवताओं ने
क्या किया ? मयदानव कहां चला गया ? और
त्रिपुर पति कहां कहां चले गए ? व्यास के पूंछने पर सनत
कुमार जी बोले- शिव जी द्वारा त्रिपुर वासियों का संघार होने पर देवताओं को बड़ा
आश्चर्य हुआ परंतु प्रलयकारी उस रौद्र तेज को देखकर सर उठाने तक की हिम्मत ना
पड़ी।
तब ऋषि यों ने बिना कुछ कहे शंकर जी को प्रणाम किया इसके बाद
ब्रह्मादिक देवता पार्वती सहित शिवजी की स्तुति करने लगे। तब महादेव प्रसन्न होकर
वर मांगने को कहा- देवताओं ने कहा देवेश अगर आप हमको बर ही देना चाहते हैं तो यही
वर दीजिए कि जब भी हम पर कोई संकट आवे आप हमारी सहायता के लिए प्रकट हों। शिव जी
प्रसन्न होकर कहा तथास्तु । ऐसा ही होगा।
शिवजी को प्रसन्न जानकर उनकी कृपा से ही जो बचा हुआ मैदानव था वह
वहां आया और भगवान शंकर के साथ सभी देवताओं को उसने प्रणाम किया और गदगद वाणी में
शिव की स्तुति करने लगा।
देवदेव महादेव भक्तवत्सल शकंर।
कल्पवृक्ष स्वरूपोसि सर्वपक्षविवर्जितः।। रु-यु-12-4
हे देव देव -महादेव भक्त वत्सल शंकर आप कल्पवृक्ष स्वरूप हैं तथा सभी पक्षों
से रहित हैं । भव मैं आपकी शरण में आया हूं । आप मेरी रक्षा कीजिए। शंकर जी उससे
भी वर मांगने को कहा- उसने उनकी भक्ति मांगी शिव जी ने तथास्तु कहकर उसे अपनी दृण
भक्ति प्रदान की ।
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वह महात्मा शंकर को प्रणाम कर उनकी आज्ञा से बितललोक में वास करने
चला गया। इसके बाद सब मुंडी भी वहां आए और शिव जी सहित सभी विष्णु आदि देवताओं को
प्रणाम किए और अपने कर्म पर पश्चाताप करने लगे। तब विष्णु जी ने कहा तुम सब किसी
प्रकार की चिंता ना करो यह सब शिव की आज्ञा से हुआ है ,तुम्हारी
कुगति नहीं होगी, लेकिन जो मनुष्य तुम्हारे इस चलाए मत को
मानेंगे उन्हीं की कुगति होगी।
अब हमारी आज्ञा से तुम सब मुंडी मरुभूमि में जाकर निवास करो। तब वे
सब चले गए । फिर सदाशिव भगवान समस्त आयुधों सहित अंतर्ध्यान हो गए।
( बृहस्पति और इंद्र का कैलाश जाना )
व्यास जी बोले- ब्रह्मन हमने यह बात पहले सुनी है कि भगवान शंकर
ने जलंधर का वध किया था ,यदि यह सत्य है तो कृपया कर मुझे
शंकर जी का यह चरित्र भी सुनाइए । तब सनत कुमार जी बोले- मुने एक समय जब देव गुरु
बृहस्पति और देवराज इंद्र कैलाश में शंकर जी के दर्शन करने गए तो शंकर जी ने अपने
भक्त की परीक्षा ली।
तो वह महात्मा दिगंबर भेष धारण कर उनका मार्ग में अवरोध कर दिया,
यद्यपि वे तेजस्वी ,शांत लंबी भुजा और सिर पर
जटाधारी वैसे ही बैठे थे फिर भी उनको ना पहचान कर इंद्र ने उनसे उनका परिचय पूंछा।
शंकर जी अपने स्थान पर ही हैं या कहीं गए हैं ?
इस पर उस तपस्वी ने कुछ ना कहा परंतु त्रिलोकी के ऐश्वर से गर्वित
इंद्र कहां चुप रहने वाले थे , उन्होंने क्रोध कर तपस्वी से
कहा अरे मैं पूछता हूं उत्तर क्यों नहीं देता है? अभी तुझे
बताता हूं । क्रोध में आकर हाथ में वज्र लेकर दिगंबर को मारने को दौड़ा । तब
सदाशिव ने वज्र सहित इन्द्र का हांथ स्तभिंत कर दिया और विकराल नेत्र कर शंकर जी
ने ज्यों ही उसे देखा त्यों ही ऐसा विदित हुआ मानो वह दिगम्बर प्रज्ज्वलित हो उठा
है और तेज से जला देगा।
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भुजाएं स्तम्भित होने के कारण इंद्र के क्रोध और दुख का अंत ना रहा।
परंतु ज्यों ही बृहस्पति ने यह दृश्य देखा तब शंकर जानकर प्रणाम किया और स्तुति की
और इंद्र से भी प्रणाम करवाया और शिवजी से बोले- हे दिनानाथ क्रोध शांत कर इन्द्र
के अपराधों को क्षमा कीजिए।
बृहस्पति जी के वचन सुनकर महेश्वर गंभीर वाणी से बोले- कि मैं अपने
नेत्रों से निकलते हुए क्रोध को कैसे रोकूं? बृहस्पति ने कहा
आप अपने इस तेज को कहीं अन्यत्र स्थापित करके इन्द्र का उद्धार कीजिये।
शिव जी बोले- हे तात मै तुम्हारी स्तुति से प्रशन्न होकर उत्तम वर
देता हूँ। इन्द्र को जीवन दान देने के कारण तुम जीव इस नाम से विख्यात होओ।
मेरे नेत्र की अग्नि अब इन्द्र को पीड़ित न करेगी। बृहस्पति से ऐसा
कहकर भगवान ने अग्निमय तेज को हाथों में लेकर समुद्र में डाल दिया फिर लीलाधारी
भगवान अंतर्धान हो गए । इन्द्र और बृहस्पति भय से मुक्त हो परम सुखी हुए और अपने
स्थान को चले आए।
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