shiv puran katha notes in hindi
ब्रह्मा जी शिवजी का स्मरण कर बोले- हे असुरों अमर तो मैं
भी नहीं हूं , तो अमृत त्याग और जो चाहो मांग लो । तब दैत्यों ने एक मुहूर्त
विचार कर कहा- हमारे पास ऐसे कोई दृण दुर्ग नहीं है जिसमें शत्रु प्रवेश न कर सके।
आप हमको ऐसे कोई सुरक्षित तीन पुर निर्माण कर दीजिए, जिसको
कोई तोड़े ना सके और उसमें अस्त्र-शस्त्र के भी सामग्रियां हो और जो अजेय हो।
तब ब्रह्मा जी ने तारकाक्ष को स्वर्ण का, कमलाक्ष
को चांदी का और विद्युन्माली को लोहे का पुर निर्माण कर प्रदान किया। ब्रह्मा जी
ने कहा शिव के द्वारा ही तुम सब मारे जाओगे और अन्य कोई भी तुमको नहीं मार सकेगा।
फिर ब्रह्मा जी के आज्ञा पर मैदानव ने तीनों पुरों का निर्माण किया।
इधर त्रिपुरों के तेज से दग्ध हो इंद्रादि देवता दुखित हो ब्रह्मा जी के पास गए।
अपना सब कष्ट कहा उसके बाद की प्रार्थना की तब ब्रह्मा जी इन्द्रादि देवताओं को
शिवजी के पास जाने की आज्ञा दी। तब दुखित देवता शंकर जी के पास गए, नमस्कार कर उनकी बड़ी स्तुति कि।
जब अनेक प्रकार से त्रिशूल धारी महादेव जी की इंद्र आदि देवताओं ने
स्तुति की और कहा कि- हे महादेव तारक के पुत्रों ने हम सब इंद्र आदि देवताओं को
पराजित कर दिया है। त्रिलोक को अपने वश में करके सारे संसार को उजाड़ दिया है ।
अतः आप हमारी और संसार की रक्षा करिए।
शिवजी बोले- देवताओं मैं तुम्हारे कष्टों को जान रहा हूं, परंतु क्या करूं ? त्रिपुरों के स्वामी अभी तक
पुण्यात्मा हैं इस कारण वे अवध्य हैं । जब तक वे मेरे भक्त हैं मैं उन्हें मार
नहीं सकता। तुम लोग विष्णु जी के पास जाओ और जैसा कहें वैसा करो।
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तब ब्रह्मा जी के साथ इंद्रादि देवता विष्णु जी के पास गए। विष्णु
जी के पास पहुंच देवताओं को बड़ी प्रसन्नता हुई उन्होंने अपने दुख का समस्त कारण
शीघ्र ही विष्णु भगवान को निवेदन किया। विष्णु जी ने कहा यह सत्य है जहां पर सनातन
धर्म हो वहां दुख नहीं होना चाहिए।
देवताओं ने कहा तो अब हम क्या करें ? हमारा
दुख कैसे दूर होगा? जैसे भी हो शीघ्र इनके वध का उपाय कीजिए
अन्यथा सब देवता बिना मृत्यु के ही मारे जाएंगे । तब देवताओं की इस प्रार्थना को
सुनकर नारायण भगवान ने अपने मन में यह विचार किया कि मैं देवताओं का कार्य कैसे
करूं , क्योंकि तारक के पुत्र तो शिव जी के भक्त हैं।
तब समर्थ नारायण ने यज्ञों का स्मरण किया उनके स्मरण करते ही यज्ञ
गण वहां उपस्थित हो गए और वह पुरुषोत्तम यज्ञपति विष्णु जी को प्रणाम किए । तब
विष्णु जी ने इन्द्रादि देवताओं से कहा कि आप यज्ञ करो , यज्ञों
से ही त्रिपुरों का विनाश होगा।
लेकिन जब यज्ञ से निकले असंख्य भूत गण, त्रिपुरों
को नष्ट करने को गए तो उसके तेज से स्वयं ही नष्ट होने लगे । तब विष्णु जी विचार
किए कि यह दैत्य जब तक वेद धर्म को त्यागेगें नहीं तब तक इनका मरना संभव नहीं है।
तब-
असृजच्च महातेजाः पुरुषं स्वात्मसंभवम्।
एकं माया मयं तेषां धर्मविघ्नार्थ मच्युतः।। रु-यु-4-1
उन्होंने महा तेजस्वी विष्णु ने उनके धर्म में विघ्न उत्पन्न करने के लिए , अपने ही शक्ति द्वारा एक मायामय मुनि रूप पुरुष को उत्पन्न किया। जिसका
सिर मुंडा था और मलिन वस्त्र पहने एक हाथ में काठ का पात्र और दूसरे हाथ में झाड़ू
लिए था।
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उसने विष्णु जी को प्रणाम किया बोला मैं क्या करूं ? तब भगवान विष्णु ने कहा मेरे शरीर से उत्पन्न हुए तुम मेरा कार्य करने में
समर्थ हो।
अरिहन्नाम ते स्यात्तु ह्यन्याविच शुभानि च।
तुम्हारा नाम अरिहन होगा । तुम्हारे अन्य भी शुभ नाम होंगे मैं तुम्हारे स्थान
को बाद में बताऊंगा इस समय मेरा प्रस्तुत कार्य आदर से सुनो। तुम सोलह हजार
श्लोकों वाला एक शास्त्र प्रयत्न पूर्वक बनाओ । जो मायामय, श्रुतिम स्मृति से विरुद्ध, वर्णाश्रम धर्म से रहित,
अपभ्रशं शब्दों से युक्त और कर्मवाद पर आधारित हो ।
आगे चलकर उसका विस्तार होगा, मैं तुम्हें उस
शास्त्र के निर्माण का सामर्थ्य देता हूं । अनेक प्रकार की माया भी तुम्हारे आधीन
हो जाएगी। विष्णु जी के इन वचनों को सुन उस मुंडी ने उन्हें प्रणाम किया और बोला
जनार्दन मुझे क्या करना है इसके लिए आज्ञा दीजिए।
ऐसा सुनकर विष्णु जी ने उसको वह शास्त्र पढ़ा दिया जिसमें स्वर्ग
नर्क यही है और अन्य कहीं नहीं और कहा कि इसी विधान से तुम उन असुरों को मन को मोह
लो। जिससे वे नष्ट हो जाए मेरी आज्ञा से तुम्हारे इस धर्म का विस्तार होगा।
तुम्हें मेरी गति प्राप्त होगी।
वहां से फिर मरुस्थल में जाकर कलयुग के आने तक वही अपने धर्म के साथ
निवास करना और उस कलियुग के आ जाने पर तुम शिष्य प्रषिष्यों के साथ अपने धर्म का
प्रचार करना और उसी का व्यवहार करना। ऐसा कह विष्णु जी अंतर्ध्यान हो गए ।
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मुंडी ने भगवान की आज्ञा से अपने बहुत से शिष्य बनाए और उनको वही
मायामय अपना शास्त्र पढ़ाया, वह भी चारों गुरु की तरह
वेशभूषा धारण कर लिये-
ऋषिर्यतिस्तथाकीर्य उपाध्याय इति स्वयम्।
ऋषि, यति, वीर्य एवं उपाध्याय के नाम चारों के प्रसिद्ध
होंगे ऐसा विष्णु जी ने कहा और यह भी बोले कि तुम सर्वदा मेरा अरिहन नामक शुभ नाम
ध्यान में रखना। फिर उस मायावी ने शिष्यों सहित शीघ्र ही त्रिपुर नगर को प्रसन्न
किया, वहां जाकर शीघ्र ही अपनी माया फैला दी और बालकों को
मोहित कर लिया ।
परंतु शिव जी की कृपा से उसकी माया त्रिपुर में सहज से नहीं फैल सकी
। तब उन्होंने भगवान का स्मरण किया तो वहां नारद जी उपस्थित हुए। वह
त्रिपुरवासियों के पास गए उनका कुशल मंगल पूछकर नारदजी बोले-
कश्चित्समागतश्चात्र यतिर्धर्मपरायणः।
सर्वविद्या प्रकृष्टो हि वेदविद्या परान्वितः।। रु-यु-4-49
हे राजन् धर्म परायण सभी विद्याओं में पारंगत कोई यति आपके नगर में आया है ।
हमने बहुत धर्म देखे हैं, परंतु इसके समान नहीं। इसलिए मैं भी
दीक्षित हो गया हूं उनसे। यदि आपकी इच्छा उस धर्म में हो तो आप भी उस धर्म की
दीक्षा ग्रहण करें।
नारद जी के अर्थगर्भित वचन सुनकर वह दैत्याधिपति मोहित हो गया। मन
में विचार करने लगा जब नारद जी ने स्वयं दीक्षा ली है तो हम भी उनसे दीक्षा ग्रहण
कर लें। ऐसा सोचकर वह स्वयं वहां गया उसके स्वरूप को देखकर मोहित दैत्य ने महात्मा
को नमस्कार कर बोला- हे ऋषि आप मुझे भी दीक्षा दीजिए मैं आपका शिष्य बनूंगा और वह
उन मुंडी से दीक्षित हो गया।
यह देखकर सारा त्रिपुर उनसे दीक्षित हो गया। जब राजा दीक्षित हो गया
तो अरिहन ने कहा मेरा ज्ञान वेदांत का सार है यह अनादि काल से चला आ रहा है। इसमें
कर्ता कर्म नहीं है यह आप ही प्रगट है। आहार, मैथुन, निद्रा सब इस देह में समान है, प्राणियों को स्वर्ग
नरक यहीं है और कहा कहीं सुख पूर्वक मरना ही मोक्ष है।
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उसने सृष्टि आदि की व्यवस्था जो वैदिक थी उसे असिद्ध कर अपने भाषण
द्वारा उन दैत्यों का वेद मार्ग नष्ट कर दिया। फिर क्या था उन दैत्यों ने शिवार्चन
छोड दुराचारी हो गए।
उस समय भगवान शंकर के पास विष्णु जी तथा ब्रह्मा जी के साथ इंद्रादि
देवता जाकर के स्तुति करते हैं। भगवान शंकर प्रसन्न होकर बोले- मैं दैत्यों का
अधर्म जान गया हूं । इससे अब त्रिपुरों का विनाश कर दूंगा। परंतु अभी भी कुछ दैत्य
तो मन से मेरे दृढ़ भक्त हैं उनका वध मैं नहीं करूंगा।
तब विष्णु आदि सभी देवता उदास हो गए, तब
ब्रह्मा जी ने शिवजी से कहा-
राज्ञस्तस्य न तत्पापं विद्यते धर्मतस्तव।
राजा का कर्तव्य है कि धर्म की रक्षा करें तथा पापियों का वध करे।
हे महादेव आप राजा हैं हम सब आपकी प्रजा हैं । भगवान शंकर ने कहा- ( रथो नास्ति
महादिव्य ) मेरे पास दिव्य रथ, सारथी व आयुध नहीं हैं । जैसे
राजाओं के पास होते हैं।