शिव पुराण कथा Shiv Puran Kathanak
शिव पुराण कथा भाग-51
इसके बाद
शंकर भगवान श्री पार्वती जी को लेकर अत्यंत मनोहर निर्जन स्थान में चले गए । वहां
देवताओं के सहस्त्रों वर्षों तक बिहार लीला करते रहे । उस बहुत समय को भगवान ने एक
क्षण के समान व्यतीत कर दिया। यह देख समस्त इंद्र आदि देवताओं ने सुमेरु पर्वत पर
एक गोष्ठी की और विचार किया कि योगीश्वर शंकर ने अभी तक कोई पुत्र उत्पन्न नहीं
किया , अब वे किस लिए विलंब कर रहे हैं।
तब ब्रह्माजी को अग्रणी बना कर सब देवता विष्णु जी के पास गए और
उनसे अपने मन की बात कही और निवेदन किया कि भगवान अभी तक कोई पुत्र महादेव से नहीं
हुआ है । भगवान शिव हजारों वर्षों से रति लीला से विरत नहीं होते हैं ।
तब विष्णु जी ने कहा वे स्वयं अपनी इच्छा से ही विरत हो जाएंगे,
जो मनुष्य किसी स्त्री पुरुष का वियोग कराता है उसे जन्म जन्म में
स्त्री पुरुष का वियोग सहना पड़ता है। हे देवताओं एक हजार दिव्य वर्ष पूर्ण हो
जाने पर ,आप लोग वहां जाकर इस प्रकार उपाय करें, जिससे भगवान शंकर का तेज पृथ्वी पर गिरे ।
उसी तेज से प्रभु शंकर का स्कन्द नामक पुत्र होगा। इस प्रकार कहकर
लक्ष्मीपति भगवान विष्णु शीघ्र ही अपने अंतःपुर में चले गए और सभी देवता भी
अपने-अपने स्थान में चले गए।
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इधर बहुत दिनों तक शक्ति एवं शक्तिमान के विहार से भाराक्रांत यह
पृथ्वी शेष एवं कक्षप के धारण करने पर भी कांप उठी । संपूर्ण त्रैलोक्य भय से
व्याकुल हो उठा । फिर सभी देवता ब्रह्मा जी के साथ भगवान विष्णु की शरण में गए और
दुखी देवता सारी बात भगवान विष्णु से निवेदन किया।
देवता बोले- हे रमानाथ आप हमारी रक्षा कीजिए पता नहीं किस कारण
तीनों लोकों के प्राणभूत वायुदेव स्तम्भित हो गए हैं और सब भयभीत व व्याकुल हो गए
हैं।
इस बात को सुनकर सभी को साथ लेकर भगवान विष्णु कैलाश को गए ,
किंतु भगवान शिव को वहां न पाकर गणों से पूछां तब गणों ने कहा - हे
भगवन देवाधिदेव महादेव भगवती पार्वती के स्थान पर गये हैं । तो सभी देवता आवास
स्थान के बाहर द्वार पर खड़े होकर ऊँचे स्वर में सदाशिव की स्तुति करने लगे।
किं करोषि महादेवाभ्यन्तरे परमेश्वर।
तारकार्तान्सुरान्सर्वान् पाहि नः शरणागतान्।। रु-कु-1-61
विष्णु जी बोले- हे महादेव आप गुहा के भीतर क्या
कर रहे हैं ? तारकासुर से पीड़ित आप की शरण में
आए हुए हम सभी देवताओं की रक्षा कीजिए। इस प्रकार स्तुति करने पर महादेव द्वार पर
आए और कहने लगे देवताओं मेरे तेज को कौन धारण करेगा ?
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तब देवताओं से प्रेरणा प्राप्त कर अग्नि ने कपोत होकर अपनी चोंच से
पृथ्वी पर गिरे तेज को ग्रहण कर लिया । उसी समय शिव के आगमन में विलंब देखकर भगवती
गिरिजा वहां पर आ गई और संपूर्ण वृतांत जानकर पार्वती क्रोधित हो गई ।
तब उन्होंने सभी देवताओं से कहा-
रे रे सुरगणाः सर्वे यूयं दुष्टा विशेषतः।
स्वार्थ संसाधका नित्यं तदर्थं परदुःखदाः।। रु-कु-2-14
हे देवताओं तुम लोग बड़े दुष्ट हो, तुम हमेशा अपने स्वार्थवश तथा स्वार्थ साधन के
निमित्त दूसरों को कष्ट देते हो । तुम लोगों ने अपने स्वार्थ के लिए परम प्रभु
शिवजी की स्तुति कर मेरा विहार भंग किया। इसी कारण मैं वन्ध्या हो गई, मेरा विरोध करने से तुम देवताओं को कभी सुख प्राप्त नहीं होगा और देवी ने
सभी को श्राप दे दिया।
आज से सब देवताओं की स्त्रियां वन्ध्या हो जाएं और मेरा विरोध करने
वाले सभी देवता दुखी रहें। फिर भगवती ने अग्नि को भी श्राप दे दीं-
सर्वभक्षी भवशुचे पीडितात्मेति नित्यशः।
आज से तुम सर्वभक्षी होकर सदैव दुख प्राप्त करोगे।
ऐसा श्राप देकर पार्वती जी महेश्वर के साथ अपने आवास पर चली गईं। वहां जाकर
पार्वती ने प्रयत्न पूर्वक शंकर जी को समझाया फिर उनके सर्वश्रेष्ठ गणेश नामक
पुत्र उत्पन्न हुए।
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इन गणेश जी का संपूर्ण वृतांत आगे आएगा । इस समय आप प्रेम पूर्वक
कार्तिकेय की उत्पत्ति का वृतांत सुनिए। देवता लोग अग्नि के मुख से भोजन करते हैं
ऐसा- ( वेदवाण्येति ) वेद का वचन है। अतः अग्नि के गर्भ धारण करने से ( सगर्भा
अभवन्सुरा ) सभी देवता गर्भयुक्त हो गए।
शिव के
तेज को सहन ना करते हुए वे देवता पीड़ित हो गए, तब सभी देवता
भगवान शंकर की शरण में गए और पार्वती सहित महादेव की स्तुति कर बोले- हे महादेव हम
लोग गर्भ युक्त होकर आपके तेज से जले जा रहे हैं आप हमारी रक्षा कीजिए।
देवताओं की दीन वाणी सुनकर शिव ने हंसते हुए कहा सभी देवगण मेरे तेज
का शीघ्र वमन कर दें ,आपको सुख मिलेगा । भगवान शिव की आज्ञा
से सभी देवताओं ने शीघ्र ही तेज का वमन कर दिया।
शंभू का स्वर्णिम आभा वाला वह तेज भूमि पर गिरकर पर्वताकार हो गया
और अंतरिक्ष का स्पर्श करने लगा । सभी देवता प्रसन्न हो शिव की स्तुति करने लगे।
किंतु अग्नि देव प्रसन्न नहीं हुए और उन्होंने भी भगवान शंकर से निवेदन किया कि
प्रभु मेरा भी कष्ट दूर करें।
महादेव प्रसन्न होकर बोले कि हे अग्नि अब तुम मेरी शरण में आ गए
तुम्हारा सारा दुख दूर हो जाएगा। तुम किसी सुलक्षणा स्त्री में मेरे तेज को
स्थापित कर दो। इससे तुम दाह मुक्त होकर विशेष रूप से सुखी हो जाओगे। तब अग्निदेव
बोले- नाथ यह आपका तेज असह्य है । शक्ति स्वरूपा भगवती के अतिरिक्त इसको धारण करने
का सामर्थ्य तीनों लोकों में किसी के नहीं हैं ।
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तब भगवान शंकर ने अग्नि को उपाय बताया-
तपोमास
स्नान कर्त्र्यः स्त्रियो याः स्युः प्रगे शुचे।
हे शुचे माघ मास में प्रातः काल जो स्त्रियां स्नान करती हों इस महान तेज को
तुम उनके शरीर में स्थापित कर दो। उसी अवसर में माघ मास के स्नान निमित्त प्रातः
काल सप्तर्षियों की स्त्रियां वहां आईं स्नान करने।
स्नान करके वे स्त्रियां अत्यंत ठंड से पीड़ित हो गई और उनमें से छह
स्त्रियां अग्नि ज्वाला के समीप जाने की इच्छा से वहां चल पड़ीं। उस समय अरुंधति
ने शिवजी की आज्ञा से उन्हें रोका परंतु शिव माया से मोहित हो ऋषि पत्नियां अपने
शीत का निवारण करने हट पूर्वक वहां चली गयी।
उस समय वह तेज के कण रोम कूपों के द्वारा ऋषि पत्नियों के देहों में
प्रविष्ट हो गए और अग्नि दाह से मुक्त हो अंतर्ध्यान हो गए और अपने लोक को चले गए।
वह छः स्त्रियां गर्भवती हो गई ,अपनी
स्त्रियों की गर्भावस्था देखकर उनके पति क्रोध में आकर उनका त्याग कर दिया । तब वह
बहुत दुखी हो गई ,उन मुनि पत्नियों ने शिव के उस गर्भ रूप
तेज को हिमशिखर पर त्याग दिया और वे दाह रहित हो गई ।
भगवान शिव के उस असहनीय तेज को धारण करने में असमर्थ होने के कारण
हिमालय प्रकम्पित्त हो उठे और दाह से पीड़ित होकर उन्होंने शीघ्र ही उस तेज को
गंगा में विसर्जित कर दिया।
गंगा भी उस दुःसह तेज को तरंगों द्वारा सरकण्डो के समूह में स्थापित
कर दिया । वहां गिरते ही वह तेज एक सुंदर बालक के रूप में परिणित हो गया ।
मार्गमासे सिते पक्षे तिथौ षष्ठ्यां मुनीश्वर।
प्रादूर्भावो भवत्तस्य शिवपुत्रस्य भूतले।। रु-कु-2-68
मार्गशीर्ष अगहन मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को उस शिवपुत्र का पृथ्वी पर
प्रादुर्भाव हुआ।
बोलिए स्कंद भगवान की जय
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इस अवसर पर अपने कैलाश पर्वत पर हिमालय पुत्री पार्वती तथा भगवान
शंकर भी अकस्मात आनंदित हो उठे। वात्सल्य भाव के कारण भगवती के वक्षस्थल से दुग्ध
का स्त्राव होने लगा । त्रिलोकी में सभी सज्जनों के यहां अत्यंत सुख देने वाले
मांगलिक वातावरण हो गया।
अंतरिक्ष में महान दुन्दुभि नाद होने लगा और उस बालक पर पुष्पों की
वर्षा होने लगी । सभी विष्णू आदि देवता आनंदित हो गए।
तब ब्रह्माजी ने नारदजी से आगे का वृतांत कहना शुरू किया- हे नारद
उस समय भगवान की इच्छा से महा प्रतापी विश्वामित्र स्वेच्छा से घूमते घूमते वहां
जा पहुंचे। वह तेजस्वी बालक के अलौकिक तेज को देख कर कृतार्थ हो गए और उन्होंने
प्रसन्न होकर उस बालक को नमस्कार किया।
तब शिवपुत्र बोले- हे महाज्ञानी आप अचानक शिवेच्छा से यहां आ पहुंचे
हैं, अतः हे तात वेदोक्त रीति से मेरा विधि संस्कार कीजिए।
आज से आप प्रसन्नता पूर्वक मेरे पुरोहित हो जाएं इससे-
भविष्यामि सदा पूज्यः सर्वेषां नात्र संशयः।
आप सदा सबके पूज्य होंगे इसमें संशय नहीं है, बालक की यह बात
सुनकर विश्वामित्र बोले- हे तात सुनो- ( शृणु तात न विप्रोहं ) मैं ब्राह्मण नहीं
हूं, किंतु गाधि सुत छत्रिय कुमार हूं, मेरा नाम विश्वामित्र है ,मैं तो ब्राह्मण सेवक
क्षत्रिय हूं।