शिव पुराण कथा Shiv Puran Kathanak
शिव पुराण कथा भाग-52
हे श्रेष्ठ बालक अब आप अपना संपूर्ण चरित्र मुझसे कहो ? तब वह प्रसन्न होकर अपना सारा चरित्र कहे और बोले-
विश्वामित्र वरान्मे त्वं ब्रह्मर्षिर्नात्र संशयः।
हे विश्वामित्र मेरे वरदान से आप ब्रह्मर्षि हैं इसमें संशय की बात नहीं है ।
वशिष्ठ आदि ऋषि गण भी आदर पूर्वक आपकी प्रशंसा करेंगे। शिवसुत बोले- आप मेरी आज्ञा
से मेरा संस्कार करें और यह सब रहस्य आपको गुप्त रखना है ,कहीं प्रगट नहीं करना है ।
तब विश्वामित्र जी शिवबालक के संपूर्ण संस्कार विधि विधान से किए ,महान लीला करने वाले शिव जी के पुत्र ने भी विश्वामित्र जी को दिव्य ज्ञान
प्रदान किया और उनको अपना पुरोहित बना लिया। उसी समय से वे द्विज श्रेष्ठ के रूप
में प्रतिष्ठित हुए।
ब्रह्माजी बोले- हे तात अब इन शिव कुमार की दूसरी लीला सुनो! उसी
समय श्वेत ने दिव्य तेज सम्पन्न बालक को देख कर उनको अपना पुत्र मान लिया। फिर
अग्नि देव उस बालक के समीप जाकर स्नेह किए और पुत्र कहकर अपनी शक्ति तथा अस्त्र
उसे प्रदान किया।
कार्तिकेय उस शक्ति को लेकर क्रौंच पर्वत के शिखर पर चले गए और उस
शक्ति से शिखर पर ऐसा प्रहार किया कि वह शीघ्र पृथ्वी पर गिर पड़ा। उस बालक का वध
करने के लिए सबसे पहले दस पद्म वीर राक्षस वहां आए। किंतु कुमार के प्रहार से सभी
शीघ्र ही विनष्ट हो गये।
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उस समय सभी जगह महान हाहाकार मच गया, पर्वतों
के सहित पृथ्वी और त्रिलोक्य कांपने लगा। उसी समय देव गणों के साथ देवराज इंद्र
वहां आ पहुंचे । इंद्र ने अपने वज्र से कार्तिकेय के दक्षिण पार्श्व में प्रहार
किया ,वज्र लगते ही उससे शाख नामक एक महान बलवान पुरुष प्रगट
हो गया ।
पुनः इंद्र ने उसके वाम पार्श्व में प्रहार किया जिससे विषाख नामक
बलवान पुरुष उत्पन्न हो गया। फिर इन्द्र उसके हृदय में प्रहार किया जिससे बलवान
नैगम नामक एक पुरुष प्रगट हो गया ।
तब स्कन्द, शाख, विशाख
तथा नैगम ये चारों महावीर इंद्र को मारने के लिए दौड़े । तब इंद्र देवगणों के साथ
अपने लोक को भागे। उसी समय कृतिका नाम वाली छः स्त्रियां वहां स्नान को आई। उस
बालक को देखकर कृतिका ने उस बालक को पुत्र के रूप में ग्रहण करना चाहा ।
उस समय उनमें आपस में विवाद होने लगा, उस
विवाद का शमन करने के लिए बालक ने छः मुख बना लिए और सबके स्तनपान किया, जिससे सभी प्रसन्न हो उठी और बालक को लेकर अपने लोक को चली गयी। वे
प्राणों से भी अधिक प्रिय उस बालक को कभी आंखों से ओट ना करती ( यः पोष्टा तस्य
पुत्रकः ) जो पोषण करता है, उसी का वह पुत्र होता है ।
इस प्रकार जब बहुत समय व्यतीत हो गया और पार्वती जी को उस बालक का
कुछ पता ना चला, तब उन्होंने एक दिन अपने स्वामी शंभूनाथ से
पूछा- हे देव आप मेरे पूर्व पुण्य से ही मुझे प्राप्त हुए हैं! कृपा कर यह बताइए
कि आपका वह तेज कहां गया जो पृथ्वी पर गिरा था ?
पार्वती के यह वचन सुनकर जगदीश्वर ने देवताओं और मुनियों को बुलाकर
पूछा, हे देवताओं मेरा वह अमोघ तेज कहां है ? उसको किसने छिपाया है ? शीघ्र बताओ! तब सब देवता डर
गए और पता लगाकर एक एक बात कहने लगे जैसे जैसे वह तेज जहां-जहां गया और जैसे
कृत्तिकाओं द्वारा पालित हुआ ।
उसका पता पाकर शिवजी बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने ब्राह्मणों को
बहुत सी दक्षिणा दी। देवताओं मुनियों एवं पर्वतों से प्रेरित होकर भगवान शिव ने
अपने गणों तथा दूतों को वहां भेजा जहां उनका पुत्र था।
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शिवजी के एक से एक बली गण ,लाखों क्षेत्रपाल
और लाख भूत रुद्र और भैरव ने स्वर्ग में उड़ कृतिकाओं का घर-घेर लिया। कृतिकायें
डर गईं तब कार्तिकेय ने कहा-
भयं त्यजत कल्याण्यो भयं किं वा मयि स्थिते।
दुर्निवार्योस्मि बालश्च मातरः केन वार्यते।। रु-कु-4-43
हे कल्याण कारिणी माताओं ,आप लोग भयभीत ना हों मेरे रहते आप को डरने
की जरूरत नहीं है । माताओं मैं यद्यपि अभी बालक हूं पर अजेय हूं। इस जगत में मुझे
जीतने वाला कौन है ?
उसी समय सेनापति नंदीकेश्वर कार्तिकेय जी के पास आकर बैठ गए और सारी
घटना का उनसे वर्णन किया। हे तात शिवजी ने तुम्हें खोजने के लिए मुझे भेजा है अब
तुम मेरे साथ पृथ्वी पर चलो, देवताओं सहित शिवजी तुम्हारा
अभिषेक करेंगे । तारकासुर को मारने के लिए तुमको सभी प्रकार के अस्त्र प्रदान
करेंगे ।
तुम विश्व के संहर्ता शिव जी के पुत्र हो ये कृत्तिकायें आपको पुत्र
रूप में प्राप्त करने में उसी प्रकार असमर्थ हैं जैसे -
नाग्निं गोप्तुं यथा शक्तः शुष्कवृक्षः स्वकोटरे।
सूखा वृक्ष अपने कोटर में अग्नि को छिपाने में समर्थ नहीं होता। कार्तिकेय
बोले- हे भाई जो त्रैकालिक ज्ञान है वह सब कुछ आप जानते हैं। आप मृत्युंजय भगवान्
सदाशिव के सेवक हैं, इसीलिए आप की जितनी प्रशंसा की जाए उतनी
थोड़ी है ।
लेकिन यह सभी कृतिकायें ज्ञानवती हैं, योगिनी
हैं और प्रकृति की कलायें हैं । इन्होंने अपना दूध पिला कर मुझे बड़ा बनाया है ।
इसलिए मेरे ऊपर निरंतर इनका महान उपकार है। मैं इनका पोष्य पुत्र हूं। मैं जिस
प्रकृति के स्वामी के तेज से उत्पन्न हुआ हूं, यह उसी
प्रकृति की कलाएं हैं ।
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आप मुझे लाने के लिए आए हैं इसलिए मैं आपके साथ चलूंगा और देवताओं
का दर्शन करूंगा । फिर वह कृतिकाओं से आज्ञा लेकर शंकर जी के गणों के साथ चल दिए।
कृतिकायें बोली-
विद्ययास्मान् कृपासिन्धो गच्छसि त्वं हि निर्दयः।
नायं धर्मो मातृवर्गान् पालितो यत् सुतस्त्यजेत्।। रु-कु-5-5
हे कृपासिंधो आप हम सब को छोड़कर इस प्रकार निर्दयी होकर जा रहे हैं ? पुत्र का धर्म यह नहीं है कि जिन माताओं ने पालन पोषण किया उनका परित्याग
कर वह चला जाए। तब कार्तिकेय ने उनको आध्यात्मिक वचनों से समझाया और पार्षदों के
साथ विमान में बैठे अपने पिता के घर गए ।
वह विमान शीघ्र ही कैलाश पर्वत पर अक्षय वट वृक्ष के समीप पहुंच गया
। इधर देवताओं द्वारा कार्तिकेय का कैलाश आगमन सुनकर शिव जी प्रसन्न होकर गंगा
पुत्र कार्तिकेय के पास गए। उस समय शंख भेरी आदि अनेकों बाजे बजने लगे महान उत्सव
हुआ।
कुमार शिव जी को प्रणाम कर उनकी गोद में बैठकर खेलने लगे, फिर शंकर भगवान एक दिव्य सिंहासन पर बिठाकर सब तीर्थों से आए हुए जलों को
वेद मंत्रों से पवित्र करके, सौ रत्न के कलशों से उन्हें
स्नान कराया ।
फिर विष्णु जी ने रत्नसार निर्मित किरीट कुन्डल, मुकुट, बाजूबंद, वैजयंती माला
और अपना चक्र प्रदान किया। शिव जी ने भी कुमार को शूल, पिनाक,
फरसा, शक्ति, पाशुपतास्त्र
और परम विद्या दी। ब्रह्मा जी ने यगोपवीत, वेदमाता गायत्री
ने कमंडलु ,ब्रह्मास्त्र।
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इंद्र ने अपना ऐरावत तथा वज्र दिया, वरुण ने
श्वेत छत्र और रत्नमाला प्रदान किया। सूर्य ने मन के समान गमन करने वाला रथ,
कवच। यमराज ने दंड इस प्रकार सभी देवताओं ने नाना प्रकार के शस्त्र
और उपाय दिए।
पार्वती जी ने चिरंजीव रहने का आशीर्वाद दिया। लक्ष्मी ने दिव्य
संपदा और मनोहार दिया। सावित्री ने सभी सिद्धियां दी इस प्रकार कुमार ने सब के
स्वामित्व को ग्रहण किया।
( कुमार का अद्भुत चरित्र )
कार्तिकेय जी वहां स्थित हो भक्ति दायिनी कई कथाएं कही। फिर एक
नारद नामक ब्राह्मण उनकी शरण में आया उसने कार्तिकेय के निकट जाकर कहा स्वामिन
मेरा कष्ट दूर कीजिए । मैं आपकी शरण में आया हूं, मैं एक
अजमेध यज्ञ कर रहा हूं। जो आज अपना बंधन तोड़ ना जाने कहां चला गया है । मेरा यज्ञ
भंग हो रहा है परंतु मुझे आशा है कि आप स्वामी के रहते मेरा यज्ञ भंग नहीं हो
सकता।
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