शिव पुराण डाउनलोड
ब्राह्मं पाद्मं वैष्णवं च शैवं भागवतं तथा।
भविष्यं नारदीयं च मार्कण्डेयमतः परम्।।
आग्नेयं ब्रह्मवैवर्तं लैङ्गं वाराह मेव च।
वामनाख्यं ततः कौर्मं मात्स्यं गारुडमेव च।।
स्कान्दं तथैव ब्रह्माण्डाख्यं पुराणं च प्रकीर्त्तितम्।।
यशस्यं पुण्यदं नृणां श्रोतृणां शांकरं यशः।।
उ- 44-120,121,122
ब्रह्म, पद्म, विष्णु,
शिव, भागवत, भविष्य,
नारदीय, मारकंडेय, अग्नि,
ब्रह्मवैवर्त, लिंग, वराह,
वामन, कूर्म, मत्स्य,
गरुण, स्कंद तथा ब्रह्मांड ये अठारह पुराण कह
गए हैं। सूत जी बोले- व्यास जी आपने जिन अठारह पुराणों के नाम कहे हैं अब उनके
निर्वाचन कीजिए। व्यास जी बोले- यही प्रश्न ब्रह्मयोनि तण्डी ने नंदीकेश्वर से
किया था, तब उन्होंने जो उत्तर दिया था उसी को मैं कह रहा
हूं ।
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नंदिकेश्वर बोले- १-ब्रह्म पुराण! साक्षात चतुर्मुख ब्रह्मा
स्वयं जिसमें वक्ता हैं उस प्रथम पुराण को इसीलिए ब्रह्म पुराण कहा गया है । २-पद्म
पुराण! जिसमें पद्म कल्प का महात्म्य कहा गया है वह पद्म पुराण कहा गया है। ३-विष्णु
पुराण! पाराशर ने जिस पुराण को कहा है वह विष्णु का ज्ञान करने वाला पुराण
विष्णु पुराण कहा गया है। पिता एवं पुत्र में अभेद होने के कारण यह व्यास रचित भी
माना जाता है। ४-शिव पुराण! इसके पूर्व तथा उत्तरखंड में शिव जी का विस्तृत
चरित्र है उसे शिव पुराण कहते हैं। ऽ-देवी भागवत पुराण! जिसमें भगवती
दुर्गा का चरित्र है उसे देवी भागवत नामक पुराण कहा गया है।
६-नारदीय पुराण! नारद जी द्वारा कहा
गया पुराण नारदीय पुराण कहा गया है। ७-मार्कंडेय पुराण! जिसमें मारकंडेय
महामुनि वक्ता हैं उसे सातवां मार्कंडेय पुराण कहा गया है। ८-अग्नि पुराण! अग्नि
द्वारा कथित होने से अग्नि पुराण कहा गया है। ९-भविष्य पुराण! भविष्य का
वर्णन होने से भविष्य पुराण कहा गया है। १०- ब्रह्मवैवर्त पुराण ब्रह्म के
विवर्त का आख्यान होने से ब्रह्मवैवर्त पुराण कहा जाता है। ११- लिंग चरित्र
का वर्णन होने से लिंग पुराण कहा जाता है। १२-भगवान वराह का वर्णन होने से
बारहवां वाराह पुराण कहा जाता है। १३-जिसमें साक्षात महेश्वर वक्ता हैं और
स्वयं स्कंद श्रोता हैं उसे स्कंद पुराण कहा गया है। १४- वामन का चरित्र
होने के कारण वामन पुराण है। १ऽ- कूर्म का चरित्र होने के कारण कूर्म पुराण है। १६-
मत्स्य द्वारा कथित सोलहवां मत्स्य पुराण है । १७- जिसके वक्ता स्वयं
गरुड़ हैं वह गरुड़ पुराण है। १८- ब्रह्मांड के चरित्र का वर्णन होने के
कारण ब्रह्मांड पुराण है।
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इस प्रकार सत्यवती के गर्भ से पाराशर के द्वारा उत्पन्न हुए व्यास
जी ने पुराण संहिता तथा उत्तम महाभारत की रचना की। प्रथम सत्यवती का संयोग पाराशर
से और उसके बाद शांतनु से हुआ इसमें संदेह नहीं करना चाहिए। यह आश्चर्यकारणी
उत्पत्ति सकारण कही गई है।
महतां चरिते चैव गुणा ग्राह्य विचक्षणैः।
महान पुरुषों के चरित्र में बुद्धिमानों को गुण को ही ग्रहण करना चाहिए । जो
मनुष्य इस चरित्र को सुनता है अथवा पड़ता है वह सभी पापों से मुक्त होकर ऋषि लोक
में प्रतिष्ठा प्राप्त करता है।
( मधु कैटभ
वध- महाकाली वर्णन )
मुनि बोले- अब आप जगत की माता उमा का चरित्र सुनाइए? सूत जी बोले ऋषियों-
शृण्वतां पृच्छतां चैव तथा वाचयतां च तत्।
पादाम्बुज रजांस्येव तीर्थानि मुनियो विदुः।। उ- 45-7
मुनियों ने जगदंबा का चरित्र पूछने वालों सुनने वालों तथा पढ़ने वालों के चरण
कमल की धूलि को ही तीर्थ कहा गया है । पूर्व समय में महात्मा सुरथ ने मेधा ऋषि से
यही पूंछा था, तब मेधा ने जो कहा था उसी को मैं आपसे कह रहा हूं सुनिए- पहले
स्वरोचिष मन्वंतर में विरथ नामक राजा हुआ था उसका पुत्र सुरथ महाबली एवं महा
पराक्रमशाली था। वह दान में निपुण सत्यवादी देवी भक्त और प्रजा पालक था। इंद्र के
समान तेज संपन्न वह राजा जब पृथ्वी का शासन कर रहा था, उस
समय नौ राजा ऐसे थे जो उसका राज्य लेने को उद्यत हो गए। उन्होंने उस राजा की कोला
नामक राजधानी को घेर लिया और उसके साथ सुरथ का भयंकर युद्ध हुआ और उसमें सुरथ हार
गया।
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शत्रुओं ने उससे उसका राज्य छीन लिया वह घोड़े पर सवार होकर शिकार
के बहाने वन को चला गया। वन में जाकर उसने एक सुंदर आश्रम देखा जहां सभी जीव जंतु
शांत होकर विचरण कर रहे थे। वहां मुनी जनों से स्वागत पाकर राजा उसी आश्रम में
निवास करने लगा। एक दिन उसके मन में विचार आया कि मैं बडा़ मंद भाग्य हूं, जिससे अपना राज्य खो बैठा हूं। ठीक उसी समय एक वैश्य भी वहां आ पहुंचा
राजा ने उसे दुखी देखकर दुख का कारण पूंछा तथा नाम पूंछा। उस वैश्य ने राजा को
प्रणाम किया फिर आंखों में पानी भरकर बोला- हे राजन मैं एक धनाड्य कुल में उत्पन्न
हुआ समाधि नाम का वैश्य हूँ। मुझे अपने ही पुत्र पौत्रादिकों ने धन के लोभ में
पकड़कर घर से निकाल दिया है। इसी कारण में वन में आ पहुंचा हूं
अब अपने परिवार की कुशलता ना जान पाने के कारण दुखी हूं। राजा बोला
दुराचारी तथा धन के लोभी जिन पुत्र आदि ने तुम्हें घर से बाहर निकाल दिया, उनसे तुम मूर्ख प्राणी के समान प्रीति क्यों करते हो ? वैश्य बोला हे राजन आपने सचमुच सारगर्वित बात कही है किंतु स्नेहपास से
जकडे रहने के कारण मेरा मन अत्यंत मोहग्रस्त हो रहा है। इस प्रकार मोह से व्याकुल
दोनों सुमेधा ऋषि के पास गए और उनको प्रणाम किया और बोले- मुनिवर हमारा मोह दूर
करिए! ऋषि बोले- हे राजन वे जगत धात्री शक्ति सनातनी महामाया ही सबके मन को आकृष्ट
कर मोंह में डाल देती हैं। राजा बोला वह देवी महामाया कौन हैं? जो सभी को मोहित कर देती हैं ! ऋषि बोले- जगत के एकार्णव हो जाने पर जब
योगीराज विष्णु योग निद्रा का आश्रय लेकर शेष सैया पर सो रहे थे उसे समय-
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योगनिद्रां यदा विष्णुर्जगत्ये कार्ण वीकृते।
आस्तीर्य शेषमभजत्कल्पान्ते भगवान प्रभुः।।
तदा द्वावसुरौ घोरौ विख्यातौ मधु कैटभौ।।
विष्णु जी के कान के मैल से दो भयंकर असुर उतपन्न हुए जो मधु और कैटभ नाम से
विख्यात थे ।
विष्णु कर्णमलोद्भूतौ हन्तुं ब्रह्माणमुद्यतौ।
स नाभि कमले विष्णोः स्थितो ब्रह्मा प्रजापतिः।।
दृष्ट्वा तावसुरौ चोग्रौ प्रसुप्तं च जनार्दनम्।
तुष्टाव योगनिद्रां तामेकाग्रहृदयस्थितः।। दुर्गा 1-68,69
वे दोनों ब्रह्मा जी का वध करने को तैयार हो गए। भगवान विष्णु के नाभि कमल में
विराजमान प्रजापति ब्रह्मा जी ने जब उन दोनों भयानक असुरों को अपने पास आया और
भगवान विष्णु को सोया हुआ देखा तब एकाग्रचित होकर उन्होंने विष्णु जी को जगाने के
लिए उनके नेत्रों में निवास करने वाली योग निद्रा देवी का स्तवन आरंभ किया।
त्वं स्वाहा त्वं सुधा त्वं हि वषट्कारः स्वरात्मिका।
सुधा त्वमक्षरे नित्ये त्रिधा मात्रात्मिका स्थिता।।
अर्धमात्रा स्थिता नित्या यानुच्चार्या विशेषतः।
त्वमेव संध्या सावित्री त्वं देवी जननी परा। ।
त्वयैतद्धार्यते विश्वं त्वयैतत्सृज्यते जगत्।
त्वयैतत्पाल्यते देवि त्वमत्स्यन्ते च सर्वदा।।
विसृष्टौ सृष्टिरूपा त्वं स्थिति रूपा च पालने।।
दुर्गा-1-73,74,75,76
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ब्रह्मा जी ने कहा देवी तुम ही स्वाहा, तुम ही
स्वधा और तुम ही वषटकार हो, स्वर भी तुम्हारे ही स्वरुप हैं,
तुम ही जीवन दायिनी सुधा हो । नित्य अक्षर प्रणव में आकर उकार मकाप
इन तीनों मात्राओं के रूप में तुम्हें स्थित हो। तुमसे ही इस जगत की सृष्टि होती
है, तुमसे ही पालन होता है और सदा तुम ही कल्प के अंत में
सबको अपना ग्रास बना लेती हो। हे महामाये इन दैत्यों से मेरी रक्षा करो। आपको
बार-बार प्रणाम है, आप ही इन दैत्यों को मोहित करें। फिर
नारायण को जगा कर मेरी रक्षा करें। ब्रह्मा जी के इस प्रार्थना से ही महामाया
फाल्गुन शुक्ल पक्ष की द्वादशी को प्रकट होकर महाकाली नाम से प्रसिद्ध हुई और
आकाशवाणी करके कहा- हे ब्रह्मा जी तुम भय मत करों मैं युद्ध द्वारा इन दोनों का वध
करके तुम्हारी रक्षा करूंगी।
इस प्रकार कहकर विष्णु के नेत्रों से प्रकट होकर ब्रह्मा जी को
साक्षात उन देवी ने दर्शन दिया। तभी जनार्दन भगवान भी जाग गए, उन दोनों दैत्यों को विष्णु जी ने भी देखा तो क्रोध में आकर उन दोनों
दैत्य से युद्ध करने लगे।