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तस्यां विनिर्गतायां तु
कृष्णाभूत्सापार्वती।
कालिकेति समाख्याता हिमाचल कृताश्रया।।
कौशिकी के प्रकट होने के बाद पार्वती देवी का शरीर
काले रंग का हो गया अतः वे हिमालय पर रहने वाली कालिका देवी के नाम से विख्यात हुई
। इसके बाद शुंभ निशुंभ के भृत्य चंड मुंड वहां आए और उन्होंने परम मनोहर रूप धारण
करने वाली अंबिका देवी को देखा तो वे शुम्भ के पास जाकर बोले- महाराज एक अत्यंत
सुंदर स्त्री अपनी दिव्य कांति से हिमालय को प्रकाशित कर रही है। यह सुनकर उन
असुरों ने महादैत्य सुग्रीव को उस सुंदरी को लाने को भेजा। तब वह दैत्य हिमालय
पहुंचकर जगदंबा से बोला- हे देवी जो इंद्रादिक देवताओं को वश में करके सभी रत्नों
के भोक्ता शुंभ निशुंभ नामक महादैत्यों ने आपको लेने के लिए भेजा है।
देवी ने कहा- हे दूत तुम सत्य कह रहे हो शुम्भ
निशुम्भ दोनों पराक्रमी वीर हैं किंतु मैंने एक प्रतिज्ञा कर रखी है जो वीर युद्ध
में मुझे जीत लेगा मैं उसके साथ विवाह करूंगी। यह संदेश तुम अपने स्वामी तक पहुंचा
दो,
तब वह दैत्य शुम्भ को आकर सारा वृत्तांत कह दिया तो क्रोधित हो
शुम्भ ने धूम्राक्ष को लेकर आने को भेजा। वह धूम्राक्ष जाकर देवी से कहने लगा
चुपचाप मेरे साथ चलो नहीं तो मेरे पास इस समय साठ हजार गण हैं, उनसे पकड़वा कर तुमको ले जाऊंगा। तब देवी ने कहा बिना युद्ध में जीते तुम
नहीं ले जा सकते मुझे, तब वह दैत्य क्रोधित हो शस्त्र लेकर
देवी तरफ दौड़ा-
इत्युक्तः सोऽभ्य धावत्ता मसुरो धूम्र
लोचनः।
हुंकारेणैव तं भष्म सा चकाराम्बिका
ततः।।
तब अंबिका ने हूं शब्द के उच्चारण मात्र से उसे
भस्म कर दिया, उसके भस्म हो जाने पर देवी जी के वाहन सिंह ने
क्रोध में आकर उसकी सेना के राक्षसों को भक्षण कर लिया और कुछ भाग गए। जब उस शुम्भ
ने अपने सेनापति धूम्राक्ष का मारा जाना सुना तो उसे क्रोध हुआ तब चंड मुंड एवं
रक्त बीज आदि दैत्यों को बुलाकर युद्ध के लिए भेज दिया। तब सिंह वाहिनी उस जगदंबा
को देखकर वे दैत्य बोले- देवी तू प्रेम पूर्वक शुम्भ निशुम्भ में से किसी को अपना
पति बनकर शोभा को प्राप्त कर। इतना सुन कर वह देवी बोली जिनकी विष्णु आदि सभी देवता
स्तुति करते हैं और जिनके तत्व का भेद भी नहीं जा सकते उसी परमात्मा की मैं
सूक्ष्म प्रकृति हूं । फिर भला किसी और को किस प्रकार अपना पति बनाऊँ?
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हे दैत्य लोगों यदि कुछ शक्ति है तो मुझे जीतकर ले
जाओ । दैत्य बोले हम अबला नारी समझ कर मारना तो नहीं चाहते थे किंतु तुम स्वयं
मरना चाहती हो इसलिए अब तैयार हो जाओ । यह कहकर बांणो की वर्षा करने लगे । तब
युद्ध में देवी ने चंड मुंड रक्तबीज आदि सभी दैत्य का अपने खड़्ग के द्वारा वध कर
दिया। देवी काली रूप में चंड मुंड को मार कर चंडिका देवी को भेंट की। तब देवी ने
कालिका से कहा-
यस्माच्चण्डं च मुण्डं च गृहीत्वा
त्वमुपागता।
चामुण्डेति ततो लोके ख्याता देवि
भविष्यसि।।
तुम चंड और मुंड को लेकर मेरे पास आई हो इसलिए
संसार में चामुंडा नाम से तुम्हारी ख्याति होगी।
( सरस्वती देवी द्वारा शुंभ निशुंभ
वध )
राजा ने कहा- स्वामिन चंड मुंड आदि के मर जाने पर
शुंभ निशुंभ ने क्या किया ? अब आप कृपा करके पाप विनाशिनी
महामाया का चरित्र सुनाते जाइए । ऋषि बोले चंड मुंड आदि दैत्यों का मारा जान सुनकर
तब काल, केय, मौर्य, दोहृद बड़े-बड़े दैत्यों को युद्ध करने के लिए भेज दिया और स्वयं भी रथ पर
सवार होकर युद्ध के लिए चल पड़ा । तब जगदंबा ने शत्रु सेना को देखा तो अपने धनुष
पर बाण चढ़ाकर बांणो की वर्षा करने लगी और मूली गाजर की भांति समस्त सेना को काट
डाली। तब निशुंभ देवी के सम्मुख गया उसी समय चंडिका ने उसका वध कर दिया। दैत्यराज
शुंभ अपने छोटे भाई को मरता देखकर स्वयं युद्ध के लिए देवी के सम्मुख आया, उसको देखकर चंडिका ने भयानक अट्टहास किया।
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जिससे दैत्यगण घबरा गए उस समय शुम्भ ने प्रज्वलित
शक्ति चंडिका के ऊपर फेंकी। महामाया ने अपने बांणो से उसके हजारो टुकड़े कर डाले
और क्रोध में आकर उस दैत्य की छाती में त्रिशूल घुसेड दिया और उसकी छाती फट गई तब
वह चक्र लेकर देवी को मारने दौड़ा, चंडिका ने
त्रिशूल से वह चक्र काटकर उसका सिर काट डाला। इस प्रकार मृत्यु प्राप्त कर उस
दैत्य ने परम गति प्राप्त की।
बोलिए मां जगदंबा की जय
उमा संहिता विश्राम
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कैलाश - संहिता
नमः शिवाय साम्बाय सगणाय ससूनवे।
प्रधानपुरुषेशाय सर्गस्थित्यन्त हेतवे।।
कै-1-1
जो प्रधान प्रकृति और पुरुष के नियंता तथा सृष्टि
पालन संहारण के कारण हैं, उन पार्वती सहित शिव जी को
पार्षदों और पुत्रों के साथ नमस्कार है । ऋषियों ने कहा-
श्रुतोमांसहिता रम्या नानाख्यान
समन्विता।
कैलाश संहिता ब्रूहि शिवतत्व
विवर्धिनीम्।। कै-1-2
हमने अनेक आख्यानों से संबंधित मनोहर उमा संहिता
सुनी अब आप शिव तत्व को बढ़ाने वाली कैलाश संहिता का वर्णन कीजिए। व्यास जी बोले-
पुत्र अब तुम प्रेम सहित कैलाश संहिता को सुनो जो परम दिव्य शिव तत्व को बढ़ाने
वाली है। एक समय की बात है जब हिमालय पर्वत स्थित तपस्वी मुनियों ने काशीपुरी चलने
की इच्छा की, तब काशी में पहुंचकर उन लोगों ने मणिकर्णिका
में जाकर गंगा जी में स्नान किया और विश्वेश्वर का दर्शन किया । उसी समय उनका मिलन
सूतजी से हुआ । उन्हें देखकर सब ऋषियों ने उनका अभिवादन किया और सूत जी ने उनकी
कुशल पूंछे ? मुनियों ने अपना कुशल समाचार कहा। तब प्रणव का
अर्थ जानने वाले उन मुनियों ने कहा- हे व्यास जी के शिष्य परम पौराणिक सूत जी आप
धन्य हैं कि जो आप में इतनी प्रगाढ़ शिव भक्ति विद्यमान है। आपसे बढ़कर हमारा कोई
गुरु नहीं है अतएव कृपा करके हमें महेश्वर का परम ज्ञान सुनाइये?
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सूत जी कहने लगे- हे मुनीश्वरों आप बड़े ही
भाग्यशाली हैं जो की कथाओं के सुनने में आपकी इतनी दृढ़ मति है। हमारे गुरु व्यास
जी ने नैमिषारण्य के वासी मुनियों को जो उपदेश दिया था वही मैं आपसे कहता हूं। जब
स्वरोचिष मनु थे तब उसके अंत में दृढ़वृती तपस्वी ऋषियों ने नैमिषारण्य में सब
सिद्धियों का देने वाला एक हजार वर्षों तक चलने वाला यज्ञ किया। परम ऐश्वर्य की
जानकारी के लिए उन्होंने व्यास जी का स्मरण किया। तब व्यास जी वहां उपस्थित हो गए
तब मुनियों ने स्वर्ण का आसान देकर उन्हें बिठाया और संपूर्ण उपचारों से उनकी पूजा
की। जब व्यास जी सुखपूर्वक बैठ गए तो उन मुनियों ने कहा हम परमेश्वर के उस परम भाव
को सुनना चाहते हैं जो महेश्वर का परम रूप है ।
व्यास जी बोले- हे विप्रो यह तो आपने बड़ा ही
उत्तम प्रश्न किया है, जिससे प्रणव का अर्थ प्रकाशित
करने वाला शिव का दुर्लभ ज्ञान निहित है। शिव का वास्तविक ज्ञान ही प्रणव अर्थ का
प्रकाश करने वाला है और उसी को प्राप्त है जिस पर शुलपाणि शंकर जी प्रसन्न होते
हैं। शिवभक्ति विहीनों को इसकी प्राप्ति नहीं होती और यह दीर्घ ज्ञान अंबिका पति
भगवान के ही उपासकों को प्राप्त होता है। इस पर मैं आप लोगों को एक इतिहास कहता
हूं जो उमा महेश संवाद से युक्त है जब पूर्व काल दक्षायणी सती ने अपने पिता दक्ष
के यज्ञ में जाकर शिव निंदा सुन अपना शरीर त्याग दिया था तो फिर उन्होंने ही
हिमालय के घर जन्म लिया और नारद के उपदेश से फिर शिव के निमित्त उन्होंने तप किया
था।
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हिमालय ने स्वयंवर की विधि से उन पार्वती का शंकर
जी के साथ विवाह कर दिया ,जिससे देवी देवों ने महान सुख की
प्राप्ति की। एक समय महा शिखर पर बैठी हुई पार्वती जी ने अपने पति शंकर जी से कहा
कि- हे देव आप मुझे मंत्र दीक्षा के विधान से विशुद्ध तत्व की प्राप्ति कर देवें।
तब शिवजी देवी साथ हिमालय से उठ कैलाश को गए वहां उन्होंने देवी पार्वती को प्रणव
मंत्र से दीक्षित किया। पार्वती जी ने पूंछा हे देव प्रणव कैसे प्रकट हुआ ?
इसकी कितनी मात्रा है ? और वेद के आदि में यह
कैसे कहा जाता है ? इसके कितने देवता हैं ? तथा इसकी क्या व्यापकता है ?
देवी के इस प्रकार पूछने पर शिवजी पार्वती की
प्रशंसा करते हुए बोले- हे देवी जो कुछ तुमने मुझसे पूछा है वह मैं तुमसे कहता हूं
ध्यान देकर सुनो इसके श्रवण मात्र से जीव शिव
के समान हो जाता है। प्रणवात्मक मंत्र सब मत्रों का बीज है। इतना ही नहीं-
एनमेव हि देवेशि सर्वमन्त्रशिरोमणिम्।
काश्यामहं प्रदास्यामि जीवानां
मुक्तिहेतवे।। कै-3-11
हे देवी मैं काशी में जीवन की मुक्ति के लिए सभी
मत्रों में श्रेष्ठ इसी प्रणव का उपदेश करता हूं। ब्रह्मा से लेकर सब प्राणियों तक
यह प्रणव ही सबका प्राण है। ( ईशानः सर्वविद्यानाम् ) इत्यादि श्रुतियां मुझसे ही
प्रकट हुई हैं। ऐसा वेदों ने सत्य कहा है इसलिए वेद का आदि मैं ही हूं और प्रणव
मेरा वाचक है। मेरा वाचक होने के कारण यह प्रणव वेदों का आदि भी कहा जाता है ।
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आकर इसका महान बीज है जो रजोगुण युक्त सृष्टि करता
ब्रह्म स्वरुप है। उकार उसकी योनिरूपा प्रकृति है जो सत्वगुण युक्त पालन कर्ता हरि
का स्वरूप है। मकार बीज युक्त पुरुष है जो तमोगुण से युक्त संघार कर्ता सदा शिव का
स्वरूप है । बिंदु साक्षात प्रभु महेश्वर हैं उन्हीं से जगत का तिरोभाव कहा गया है
। जो सब पर अनुग्रह करने वाले हैं, नाद रूप मूर्धा
में परात्परतर शिव का ध्यान करना चाहिए।
इसके बाद संन्यास का अचार का बड़ा सुंदर वर्णन
किया गया है।