bhagwat pratham skandha Story 2 श्रीमद्भागवत महापुराण कथानक प्रथम स्कंध(2)

भागवत कथानक प्रथम स्कंध , भाग- 2
श्रीमद्भागवत महापुराण सप्ताहिक कथा Bhagwat Katha story in hindi
राजा परीक्षित के जन्म की कथा--
यदा मृधे कौरवसृञ्जयानां
               वीरेष्वथो वीरगतिं गतेषु |
वृकोदराविद्ध गदाभिमर्श 
                भग्नोरूदण्डे धृतराष्ट्र पुत्रे ||
सौनक  जी =जब महाभारत युद्ध में कौरव और पांडवों के पक्ष के अनेकों वीर वीरगति को प्राप्त हो गए और भीमसेन के प्रचंड गदा के प्रहार से दुर्योधन की जंघा भग्न हो गई दुर्योधन कुरुक्षेत्र की समरांगण में अधमरा पड़ा-पड़ा कराह रहा था।

उस समय अश्वत्थामा उसके पास आया कहा मित्र यदि तुम चाहो तो मैं अकेला ही तुम्हारे भाइयों की मृत्यु का बदला पांडवों से ले सकता हूं अश्वत्थामा के इस  प्रकार कहने पर दुर्योधन ने अपने रक्त से अश्वत्थामा का तिलक कर दिया जिससे अश्वत्थामा की बुद्धि बिगड़ गई।

वह रात्रि में एक वृक्ष के नीचे बैठकर विचार करने लगा पांडवों को कैसे मारूं उसी समय उसने देखा एक उल्लू सोते हुए कौये के घोसले में घुसकर उन्हें मार रहा है यहीं से शिक्षा प्राप्त कर अश्वत्थामा हाथ में तलवार ले रात्रि में ही पांडवों को मारने के लिए निकल पड़ा यहां भगवान श्री कृष्ण ने पांडवों से कहा विजय की रात्रि शयन नहीं जागरण करना चाहिए भजन सत्संग करना चाहिए।

भगवान श्री कृष्ण की बात मान पांडव भजन सत्संग के लिए शिविर से बाहर निकल आए पांडवों के स्थान पर द्रोपती के पांच पुत्र प्रतिदिम्भ.श्रुतसेन. श्रुतकीर्ति शतानीक और श्रुतकर्मा सो रहे हैं जो देखने में बिल्कुल पांडवों की तरह ही लगते हैं| अश्वत्थामा ने उन्हें पांडव समझकर सोते हुए उनका सिर काट ले गया और दुर्योधन को भेंट किया।

दुर्योधन ने मृत पांडवों को देखा अत्यंत प्रसन्न हुआ परंतु जब चंद्रमा के प्रकाश में पास से पांडवों को सिर देखा समझ गया पांडव नहीं उनके पुत्र हैं अश्वत्थामा से कहा तुमने तो हमारा वंश ही नाश कर दिया दुर्योधन अत्यंत बेदना से पीड़ित हुआ उसे वरदान था जीवन में के साथ अत्यंत हर्ष और शोक होगा वही तुम्हारी मृत्यु का कारण होगा।

आज दुर्योधन का हर्ष और शोक के कारण प्राणांत हो गया यह अश्वत्थामा को जब यह मालूम हुआ पांडव जीवित है अब वे मुझे नहीं छोड़ेंगे तब भयभीत हो अश्वत्थामा वहां से भागा|
माता शिशूनां निधनं सुतानां
       निशम्य घोरं परितप्यमाना |
तदारूदद्वाष्प कलाकुलाक्षी 
       तां सान्त्वयन्नाह किरीट माली ||
यहां प्रातः काल द्रोपती ने अपने पुत्रों की मृत्यु का समाचार सुना अत्यंत दुखी हो गई विलाप करने लगी | अर्जुन ने कहा द्रोपती शोक मत करो जिस आतताई अधम ब्राह्मण ने तुम्हारे पुत्रों का वध किया है उसका सिर काट कर तुम्हें भेंट करूंगा तब तुम्हारे आंसू पोछूंगा|

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ऐसा कहा अर्जुन ने श्रीकृष्ण को सारथी बनाया और रथ में बैठ अश्वत्थामा का पीछा किया अश्वत्थामा जहां तक भाग सकता था भागा परंतु जब उसे कहीं शरण नहीं मिली उसका घोड़ा थक कर गिर गया तब आत्मरक्षा के लिए उसने ब्रह्मास्त्र छोड़ दिया |

वह ब्रह्मास्त्र दसों दिशाओं को जलाता हुआ अर्जुन को जलाने लगा यह देख अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण की शरण ली कहा हे श्रीकृष्ण यह भयंकर तेज मुझे सब ओर से जला रहा है यह क्या है इसे मैं नहीं जानता आप इससे मेरी रक्षा कीजिए |

भगवान श्री कृष्ण ने कहा अर्जुन यह अश्वत्थामा का चलाया हुआ ब्रह्मास्त्र है इसका प्रतिकार किसी और शस्त्र से नहीं हो सकता इसलिए तुम भी ब्रह्मास्त्र का प्रयोग करो भगवान श्रीकृष्ण इस प्रकार जब कहा अर्जुन ने आचमन किया भगवान की परिक्रमा की और ब्रम्हास्त्र का संधान किया वे दोनों अस्त्र आकाश में टकराकर त्रिभुवन को नष्ट करने लगे लोगों ने समझा प्रलय होने वाला है|

उस समय लोकों के नाश को देख भगवान श्रीकृष्ण की आज्ञा से अर्जुन ने दोनों ब्रह्मास्त्रों को लौटा लिया और रथ से उतरकर अश्वत्थामा को बंदी बना लिया उसे रस्सी से बांध लिया भगवान श्री कृष्ण ने कहा़...हे अर्जुन जो धर्म वेता पुरुष होते हैं वह असावधान मतवाले पागल सोए हुए बालक स्त्री मूर्ख शरण में आए हुए रथहीन और भयभीत शत्रु को भी नहीं मारते|

परंतु जो पुरुष दूसरों को मार कर अपने प्राणों का पोषण करता है उसका वध करना ही श्रेयस्कर है |तुमने द्रोपती से जो प्रतिज्ञा की थी कि मैं अश्वत्थामा का सिर काटकर तुम्हें भेंट करूंगा |

अपने इस प्रतिज्ञा को पूर्ण करो शीघ्र ही इस नराधम अश्वत्थामा का वध करो भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन के धर्म की परीक्षा लेनी चाहिए परंतु अर्जुन का हृदय महान था यद्यपि अश्वत्थामा ने उनके पुत्रों की हत्या की थी तथापि अर्जुन के मन में गुरु पुत्र को मारने की इच्छा नहीं हुई |

वह अश्वत्थामा को शिविर में ले आए द्रोपती ने पशु के समान बंधे हुए गुरु पुत्र अश्वत्थामा को देखा तो कहने लगी....
मुच्यतां मुच्यतामेष ब्राह्मणो नितरां गुरुः |
इन्हें छोड़ दो इन्हें छोड़ दो यह ब्राम्हण है हमारे पूज्यनीय है जिन गुरुदेव से आपने रहस्य के सहित धनुर्वेद की शिक्षा ग्रहण की वही गुरुदेव द्रोणाचार्य पुत्र के रूप में खड़े हुए हैं इनके मारे जाने पर जैसे मैं बिलाप कर रही हूं उसी प्रकार उनकी मां भी बिलाप करेगी इसलिए इन्हें छोड़ दो |

द्रोपती के धर्म और न्याय से युक्त वचनों को सुन धर्मराज युधिष्ठिर नकुल सहदेव अर्जुन और भगवान श्री कृष्ण ने भी उनका अनुमोदन किया भीमसेन को क्रोध आ गया उन्होंने अपनी गधा उठाई और अश्वत्थामा को मारने के लिए दौड़े उस समय भगवान श्री कृष्ण ने भीमसेन को रोका और अर्जुन से कहा...
ब्रह्मबन्धुर्न हन्तव्य आततायी वधार्हण: |
मयैवोभयमाम्नातं परिपाह्यनुशासनम्  ||
अर्जुन अधम ब्राम्हण को भी नहीं मारना चाहिए और आतताई को छोड़ना नहीं चाहिए यह दोनों बातें मैंने ही शास्त्रों में कहीं है तुम मेरी इन दोनों आज्ञाओं का पालन करो द्रोपती से तुमने जो प्रतिज्ञा की थी उसे भी पूर्ण करो तथा भीमसेन और मुझे भी जो प्रिय है वह करो अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण से गीता का ज्ञान प्राप्त किया था।

वह श्री कृष्ण की  मन की बात समझ गए तलवार निकाली और अश्वत्थामा की सिर में जो मणि थी वह मणि निकाल ली कई जगह से उसके बाल मोड़ कर उसे कुरूप बना दिया और अपमानित कर शिविर से बाहर निकाल दिया....
वपनं द्रविणादानं स्थानान्निर्यापणं तथा |
एष हि ब्रह्मबन्धूनां वधो नान्योस्ति दैहिकः ||
सिर मोड़ देना धन छीन लेना स्थान से निष्कासित कर देना यही ब्राह्मणों का वध है उनके लिए शारीरिक वध का विधान नहीं है यहां अपमानित अश्वत्थामा ने कुरुवंश के नाश के लिए उत्तरा के गर्भ में पल रहे शिशु पर ब्रह्मास्त्र का प्रयोग कर दिया उस समय दौड़ी दौड़ी उतरा श्री कृष्ण के शरण में आई और हाथ जोड़कर प्रार्थना करने लगी..
पाहि पाहि महायोगिन्देवदेव जगत्पते |
नान्यं त्वदभयं पश्ये यत्र मृत्युःपरस्परम्||
हे देवाधिदेव जगदीश्वर रक्षा कीजिए रक्षा कीजिए इस संसार में आपके अतिरिक्त अभय प्रदान करने वाला मुझे कोई और दिखाई नहीं दे रहा यह जलता हुआ बाड़मेरी और आ रहा है मुझे अपने प्राणों की चिंता नहीं है परंतु मेरे गर्भ में पल रहे इस शिशु की चिंता है आप इसकी रक्षा कीजिए क्योंकि इसे कुछ हो गया तो कलंक आपको लगेगा लोग कहेंगे जी स्कूल के रक्षक श्री कृष्ण थे उस स्कूल का वंश बीज नष्ट हो गया उस स्कूल में कोई दीपक जलाने वाला भी नहीं है।

देवी उत्तर ने जब इस प्रकार प्रार्थना कि भगवान श्री कृष्ण ने अपनी योग माया के द्वारा सूक्ष्म शरीर धारण  किया और उत्तरा के गर्भ में प्रविष्ट हो  उस गर्भ की रक्षा की जब उतरा स्वस्थ हो गई तो पांडवों से आज्ञा ले भगवान श्री कृष्ण द्वारिका की ओर प्रस्थान करने लगे उस समय बुआ कुंती आई हाथ जोड़कर उन्होंने श्रीकृष्णकी स्तुति की....
नमस्ये पुरुषं त्वाद्यमीश्वरं प्रकृतेः परम्|
अलक्ष्यं सर्वभूतानामन्तर्बहिर वस्थितम् ||
हे प्रभु मैं आपको प्रणाम करती हूं भगवान श्री कृष्ण ने कहा बुआ जी उल्टी गंगा क्यों बहा रही हो आप पूज्यनीय हो इसलिए प्रणाम मुझे करना चाहिए बुआ कुंती ने कहा प्रभु इसी संबंध के कारण ही आपने आजतक ठगा है आज मैं जान गई आप प्रकृति से परे साक्षात परब्रम्ह परमात्मा है।

जो समस्त प्राणियों के अंदर बाहर स्थित हैं भगवान श्रीकृष्ण ने कहा यदि सर्वत्र स्थित हूं तो दिखाई क्यों नहीं देता बुआ कुंती ने उत्तर दिया....
मायाजवनिकाच्छन्नमज्ञाधोक्षज मव्ययम् |
प्रभु आपने माया का पर्दा डाल रखा है इसलिए सब के मध्य होते हुए भी आप दिखाई नहीं देते...
यथा ह्रषीकेश खलेन देवकी 
         कंसेन रूध्दातिचिरं शुचार्पिताः |
विमोचिताहं च सहात्मजा विभो
         त्वयैव नाथेन मुहुर्विपद् गणात ||
प्रभु जिस प्रकार आपने दुष्ट कंस ने देवकी की रक्षा की उसी प्रकार आपने मेरे पुत्रों के साथ मेरी अनेकों बार विपत्तियों से रक्षा की आप माता देवकी से अधिक मुझसे स्नेह करते हैं क्योंकि दुष्ट कंस से आपने मात्र देवकी की ही रक्षा की उनके पुत्रों की रक्षा नहीं कर सके परंतु मेरी तो आपने मेरे पुत्रों के साथ सदा रक्षा किए जब भीमसेन छोटा था उस समय दुष्ट कौरवों ने उसे विश दे दिया था उस समय आपकी कृपा से वह भी अमृत बन गया और भीम को 1000 हाथियों का बल प्राप्त हुआ।

जब हम वन में थे उस समय हिडिंब आदि असुरों  से भी आपने ही रक्षा की महाभारत युद्ध में जहां भीष्म पितामह आदि रथी विद्यमान थे उस समय आपने मेरे पुत्रों को खरोच तक नहीं आने दी और कहां तक सुनाऊं आपने अभी-अभी अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्र से उत्तरा के गर्भ की रक्षा की इसलिए प्रभु मैं तो आपसे यही वरदान मांगती हूं......
विपदः सन्तु नः शश्वत्तत्र तत्र जगद्गुरू |
भवतो दर्शनं यत्स्यादपुनर्भव दर्शनम् ||
मुझे जीवन में प्रत्येक पग में विपत्तियों की ही प्राप्ति हो क्योंकि विपत्ति होगी तो आपके दर्शन की प्राप्ति होगी और आपका दर्शन संसार सागर से मुक्त कराने वाला है |
विपदो नैव विपदः सम्पदो नैव सम्पदः |
विपद् विष्मरणम् विष्णोः सम्पन्न नारायणं स्मृतिः||
विपत्ति विपत्ति नहीं है संपत्ति संपत्ति नहीं है भगवान का विस्मरण होना ही भगवान को भूल जाना ही विपत्ति है और भगवान का स्मरण करना ही संसार की सबसे बड़ी संपत्ति है परम पूज्य गोस्वामी जी कहते हैं.....
कह हनुमंत विपति प्रभु सोई |
जब तक सुमिरन भजन न होई ||
विपत्ति  वह है जब भगवान का विस्मरण हो जाता है---
सुख के माथे सिल पड़े जो नाम हृदय से जाए |
बलिहारी वा दुख की जो पल पल नाम जपाए ||
वह सुख किस काम का जिसके आने से भगवान का नाम ह्रदय से चला जाता है उससे अच्छा तो वह दुख है जिसके कारण निरंतर भगवान का जप होता है माता कुंती ने जब इस प्रकार स्तुति की तो भगवान श्रीकृष्ण गदगद हो गए उन्हें अविचल भक्ति का आशीर्वाद दिया और बुआ कुंती की प्रसन्नता के लिए कुछ दिन के लिए और हस्तिनापुर में रुक गए।

1 दिन भगवान श्री कृष्ण ने एकांत में राजा युधिष्ठिर को रोते हुए देखा भगवान ने धर्मराज युधिष्ठिर से कहा महाराज आप सार्वभौम सम्राट हैं समूची पृथ्वी पर आपका ही आधिपत्य है अतुलनीय ऐश्वर्य आपके पास है फिर आप इस प्रकार दुखी क्यों हैं प्रभु इस राज्य का मैं क्या करूं जब मैं सिंहासन पर बैठता हूं तो मुझे स्वजनों के वध  का स्मरण हो आता है मैं सोता हूं तो मुझे  कुरुकुल की विधवाएं नजर आती है।

ऐसे राज्य और संपत्ति का क्या लाभ धर्मराज युधिष्ठिर के दुख के निवृत्ति के लिए भगवान श्री कृष्ण पांडवों को साथ लेकर कुरुक्षेत्र की उस पावन भूमि में आए जहां भगवान श्री कृष्ण के परम भक्त भीष्म पितामह सरसैया पर पड़े हुए थे अनेकों ब्रम्हर्षि देवर्षि राजर्षि और देवता आदि भीष्म पितामह के दर्शन के लिए आए।

भीष्म पितामह ने देश काल के अनुसार यथायोग्य सबका स्वागत सत्कार किया पांडवों नेपितामह भीष्म को प्रणाम किया भीष्म पितामह ने पांडवों से कहा श्रीकृष्ण नहीं आए क्या पांडवों ने कहा पितामह आए हैं वह देखो साथियों के मध्य में खड़े हुए हैं |

पांडवों तुम लोग जानते हो यह कौन है सहदेव ने कहा यह हमारे ममेरे भाई हैं नकुल ने कहा यह हमारे मित्र हैं भीम ने कहा यह हमारे परम हितैषी हैं धर्मराज युधिष्ठिर ने कहा यह हमारे मंत्री हैं और अर्जुन ने कहा यह हमारे सारथी हैं | पांडवों की इस बात को सुन भीष्म पितामह ने कहा पांडवों तुम इन्हें नहीं जानते..
यं मन्यसे मातुलेयं प्रियं मित्रं सुह्रत्तमम् |
अकरोः सचिवं दूतं सौह्रदादथ सारथिम् ||
जिन्हें तुम अपना ममेरा भाई मित्र परम हितैषी मंत्री और सारथी समझ रहे हो |
एष वै भगवान साक्षादाद्यो नारायणः पुमान् |
यह साक्षात आदि अवतार सबके आदि कारण परमपुरुष भगवान नारायण हैं..
स देव देवो भगवान् प्रतीक्षतां 
        कलेवरं यावदिदं हिनोम्यहम् |
प्रसन्नहासारुणलोचनोल्लस-
         न्मुखाम्भुजो ध्यानपथश्चतुर्भुजो ||
वे ही देवाधिदेव श्री कृष्ण जब तक मैं अपने इस शरीर को छोड़ ना दूं तब तक वह प्रसन्न मुख से हंसते हुए चतुर्भुज रूप धारण कर मेरे सामने खड़े रहे भीष्म पितामह ने जब इस प्रकार आज्ञा दी भगवान श्रीकृष्ण चतुर्भुज रूप धारण कर पितामह भीष्म के सामने खड़े हो गए क्योंकि भगवान का तो कहना ही है |

मैं तो भक्तन  हाथ बिकानो |
धर्मराज युधिष्ठिर के प्रश्न करने पर पितामह भीष्म ने दान धर्म राज धर्म मोक्ष धर्म स्त्री धर्म और भगवत धर्म का संक्षेप में तथा विस्तार में वर्णन किया पितामह भीष्म इस प्रकार उपदेश दे ही रहे थे कि उसी समय उत्तरायण का वह पवित्र समय आया जिसकी योगी लोग प्रतीक्षा करते हैं।

पितामह भीष्म ने अपने मन को सब जगह से हटाकर भगवान श्री कृष्ण के चरणों में लगा दिया और हाथ जोड़कर पुष्पिताग्रा छंद में एकादश श्लोकों  के द्वारा अपने एकादश इंद्रिय रूप पुष्प भगवान श्री कृष्ण के चरणों में समर्पित करते हुए स्तुति  करने लगे...
इति मतिरुपकल्पिता वितृष्णा 
             भगवति सात्वतपुगंवे विभूम्नि |
स्वसुखमुपगते क्वचिद्विहर्तुं  
              प्रकृतिमपेयुषि यद्भवप्रवाहः ||
त्रिभुवनकमनं तमाल वर्णं 
                  रविकरगौरवराम्बरं दधाने |
वपुरलककुलावृताननाब्जं
                   विजयसखे रतिरस्तुमेनवद्या ||
प्रभु त्रिलोकी में आपके सामान सुंदर कोई दूसरा नहीं है श्याम तमाल के समान सांवरे शरीर पर सूर्य की रश्मियों के समान श्रेष्ठ पीतांबर शोभायमान हो रहा है मुख पर घुंघराली अलकावलिया लटक रही हैं ऐसे श्रीकृष्ण से मैं अपनी पुत्री का विवाह करना चाहता हूं।

भगवान श्री कृष्ण ने कहा पितामह भीष्य क्या बोल रहे हो आप तो नैष्ठिक ब्रह्मचारी हो फिर आप की पुत्री कैसे हो सकती है पितामह भीष्म ने कहा प्रभो यह जो मेरी बुद्धि है यही मेरी पुत्री है इसी का विवाह मैं आपसे करना चाहता हूं भगवान श्री कृष्ण ने कहा पितामह आप की पुत्री की योग्यता क्या है।

पितामह भीष्म ने कहा प्रभु यह तृष्णा से कामना से रहित है इसकी अपनी कोई कामना नहीं है ऐसी अपनी बुद्धि को मैं आपके चरणों में समर्पित करता हूं और प्रभु युद्ध में जब आप सारथी बने थे उस समय अर्जुन की आज्ञा पाकर आपने अपना रथ दोनों सेनाओं के मध्य खड़ा कर दिया तो प्रभु उस समय मैंने आपकी एक चोरी पकड़ी।

 

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प्रभु बोले क्या भीष्म पितामह कहते हैं आप ने शपथ ले रखी थी मैं युद्ध में शस्त्र नहीं उठाऊंगा अरे आपको शस्त्र की भी क्या आवश्यकता है जब अर्जुन युद्ध करता तो आप बैठे-बैठे इतना सुंदर स्वरूप बना लेते कि शत्रु पक्ष का सैनिक आपको देखता तो देखता ही रह जाता।

इसी अवसर को पाकर अर्जुन उसका बध कर देता अरे आप बैठे बैठे ही शत्रु पक्ष के सैनिक की आयु का हरण कर रहे थे |
स्वनिगममपहाय मत्प्रतिज्ञा -
            मृतमधिकर्तुमवप्लुतो रथस्थः |
धृतरथचरणोभ्ययाच्चलद्गु-
             र्हरिरिव हन्तुमिभं गतोत्तरीयः ||
जब युद्ध के प्रारंभ में के कुछ दिन व्यतीत हो गए और पांडवों का बाल भी बांका नहीं हुआ उस समय मामा शकुनी के बहकाने पर दुर्योधन ने पितामह भीष्म से कहा पितामह आप पक्षपाती हैं आपके हृदय में पांडवों के प्रति मोह है।

अन्यथा आप जैसा परशुराम के शिष्य के सामने त्रिलोकी मे युद्ध करने की सामर्थ्य  किस में है पितामह भीष्म ने कहा यदि ऐसी बात है तो कल पांडव जीवित रण भूमि से नहीं लौटेंगे..
जो पे वीर पारथ को रथ ना मिलाऊं धूरि 
तो पे कुरु वंशिन को अशं ही न जानिये | 
जो पे मेरे बांण पाण्डवन के ना भेदें प्राण 
तो पे कहि कायर प्रमाण ही बखानिये ||

और दुर्योधन तुम्हें यदि मृत्यु का भय है तो कल ब्रह्म मुहूर्त में अपनी पत्नी भानुमति को आशीर्वाद के लिए मेरे पास भेज देना भीष्म पितामह की बात सुनकर दुर्योधन प्रसन्न हो गया उत्सव मनाने लगा।

यहां जब श्रीकृष्ण को यह बात पता चली उन्हें नींद नहीं आई दौड़े-दौड़े धर्मराज युधिष्ठिर के पास पहुंचे देखा तो युधिष्ठिर ध्यान लगाए बैठे हुए थे भगवान श्री कृष्ण ने कहा युधिष्ठिर तुम्हें मालूम है भीष्म पितामह ने प्रतिज्ञा की है कल मैं युद्ध में पांडवों का वध कर दूंगा | युधिष्ठिर बोले--
जिनके रक्षक हैं घनश्याम 
उन्हें कोई मार नहीं सकता |
प्रभु दीनबंधु का दास 
कभी हार नहीं सकता ||
भगवान श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर की इस निश्चिंतता को देखा तो भीम के पास गए देखा तो भीम मजे से भोजन कर रहे थे भगवान श्री कृष्ण ने कहा भैया भीम यहां आप भोजन कर रहे हो वहां पितामह भीष्म ने पांडवों को मारने की प्रतिज्ञा की है तब भीमसेन ने कहा----
किसी की नाव पानी में 
यहां रहती में चलती है |
प्रभु घनश्याम जब सर पर 
तसल्ली दिल पर रहती है ||
भगवान श्री कृष्ण ने भैया भीम की इस मस्ती  को देखा तो सोचा द्रोपती चिंतित होगी जब द्रोपती के पास गए तो देखा द्रोपती निश्चिंत सो रही है भगवान श्री कृष्ण ने द्रोपती को जगाया कहा कृष्णा तुम यहां सो रही हो वहां कल के युद्ध में भीष्म पितामह तुम्हारे सौभाग्य को उजाड़ने के प्रतिज्ञा कि है|

द्रोपती ने कहा प्रभु आपके होते हुए मुझे चिंता करने की क्या आवश्यकता है भगवान श्री कृष्ण ने द्रोपती का हाथ पकड़ा और भीष्म के शिविर की ओर चल पड़े द्रोपती की जूतियां बहुत आवाज कर रही थी भगवान ने सोचा कहीं भेद ना खुल जाए इसलिए उन जूतियों को उतारकर श्री कृष्ण अपने बगल में दबा लिया पितामह भीष्म के शिविर के पास पहुंच कर भगवान ने द्रोपती से कहा कृष्णा कुछ बोलना मत एक दम शांत रहना और पितामह भीष्म जब तक तीन बार आशीर्वाद ना दे दे तब तक सिर उठाना मत।

द्रोपती गई पितामह भीष्म संध्यावंदन से निर्वित्त तो हो रहे थे उसी समय द्रोपती ने अपना सिर पितामह भीष्म के चरणों में रख दिया शिविर में रोशनी कम थी पितामह भीष्म ने समझा भानुमति आई है दुर्योधन की पत्नी आशीर्वाद दिया सौभाग्यवती भव सौभाग्यवती भव इतने पर भी जब द्रोपती में सिर नहीं उठाया तो पितामह अपना कर कमल द्रोपती के सिर पर रखा और बोले अखंड सौभाग्यवती भव।

जैसे ही तीन बार आशीर्वाद मिल गया द्रोपती ने घूंघट उठाया और कहां पितामह कल की प्रतिज्ञा सत्य है या आज का आशीर्वाद पितामह ने कहा द्रोपती तुम यहां किसके साथ आई हो द्रोपती ने कहा अपनी दासी  के साथ आई हूं पितामह ने कहा दासी कहां है द्रोपती बोली बाहर खड़ी है |

भीष्म ने जब बाहर आकर देखा तो  सर पर घूंघट बगल में जूतियां लिए   भगवान श्री कृष्ण बाहर खड़े हुए हैं भीष्म पितामह ने कहा  अरे भगवान कृष्ण जिनकी तरफ है उनका संसार क्या बिगाड़ सकता है| परंतु आज श्रीकृष्ण ने मेरी प्रतिज्ञा को भंग किया है इसलिए मैं प्रतिज्ञा करता हूं|
आज यदि हरिहिं न शस्त्र घहाऊं 
तो लाजौं गंगा जननी कौ शान्तनु सुत
 ना कहावौं ||
आज यदि मैंने युद्ध में श्री कृष्ण को शस्त्र नहीं उठवा दिया तो मैं अपनी मां का पुत्र नहीं भगवान श्री कृष्ण ने कहा..
 भाखत कहां हो ऐसी धारणा ना राखो चित्त 
 प्रण के विरुद्ध पक्षपात ना बिचारिहौं |
 बनो हूं सारथी रथ हांकन मेरो काम
 न्याय के विरुद्ध युद्ध को नियम ना विसारिहौं |
 जो मैं एक बाप को सबल सपूत हैं हों
 तो मैं काहूं भांति अस्त्र कर ना धारिहों ||
पितामह यदि मैं एक बाप का पुत्र हूं तो अस्त्र हाथ में धारण नहीं करूंगा आज महाभारत युद्ध प्रारंभ हुआ भीष्म पितामह ने सर्वप्रथम भगवान पर अस्त्र बरसाए परंतु जब भगवान मुस्कुराते रहे तो पितामह अर्जुन पर बाणों की वर्षा प्रारंभ कर दी ऐसे बाण छोड़े की दसों दिशाओं में अर्जुन को पितामह भीष्म ही दिखाई देने लगे और उनके बाण इस बाण वर्षा को देख अर्जुन विह्वल हो गए।

कहा हे कृष्ण हे माधव रक्षा करो रक्षा करो भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन की वेदना को देखा तो अपनी प्रतिज्ञा भूल गए रथ से कूद पड़े एक रथ का पहिया उठाया और भीष्म पितामह को मारने के लिए दौड़ पड़े पितामह भीष्म ने धनुष को छोड़ दिया भगवान श्री कृष्ण के चरणों में प्रणाम किया कहा कन्हैया पहले यह बताओ तुम्हारे कितने बाप हैं श्रीकृष्ण ने कहा...
भोले घनश्याम सुनो भीष्म भगतराज 
मोहे जन्म देने वाले जग में अपार हैं 
सिंधु खम्भ धरणि पाषाण से प्रगट होत 
कहां लव बखानौं मेरे अमित अवतार हैं |
कोऊ कहे वसुदेव देवकी को लाल हौं 
कोू कहे नंद यशुदा को कुमार हौं 
जाको एक बाप बचावे निज लाज सोई 
मेरी कौन लाज मेरे बाप को हजार हैं ||
पितामह भीष्म ने अंतिम समय भगवान के रास का स्मरण किया और अपने प्राणों को श्रीकृष्ण के चरणों में विलीन कर दिया |उस समय देवता जय जयकार करने लगे पुष्पों की वर्षा और ढोल नगाड़े बजाने लगे |
    ( बोलिए भक्तवत्सल भगवान की जय )

भागवत कथा के सभी भागों कि लिस्ट देखें 

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