bhagwat pratham skandha story3 श्रीमद् भागवत महापुराण कथानक प्रथम स्कंध(3)

भागवत कथानक प्रथम स्कंध ,भाग- 3
श्रीमद्भागवत महापुराण सप्ताहिक कथा Bhagwat Katha story in hindi
 परीक्षित के जन्म कर्म की कथा और ब्राह्मण के द्वारा  श्राप देना
धर्मराज युधिष्ठिर ने पितामह की अंत्येष्टि क्रिया की तत्पश्चात पांडवों से आज्ञा लेकर श्रीकृष्ण  द्वारिका को प्रस्थान किए द्वारिका पहुंच कर उन्होंने सर्वप्रथम अपने माता-पिता को प्रणाम किया और फिर महल में प्रवेश किया..
अश्वत्थाम्नोपसृष्टेन ब्रह्मशीर्ष्णोरुतेजसा |
उत्तराया हतो गर्भ ईशेनाजीवितः पुनः ||
तस्य जन्म महाबुद्धेः कर्माणि च महात्मनः |
निधनं च यथैवासीत्स प्रेत्य गतवान यथा ||
सौनक जी श्री सूतजी से पूछते हैं अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्र से उत्तरा का जो गर्भ नष्ट हो गया था और जिसे भगवान श्रीकृष्ण ने पुनः जीवित कर दिया था उन महाराज परीक्षित के जन्म कर्म और किस प्रकार उन्हें मोक्ष की प्राप्ति हुई है बताइए|

सूत जी कहते हैं सौनक जी उत्तरा के गर्भ में स्थित उस  दशमास  के शिशु ने अपने सामने एक अंगुष्ठ मात्र के सुंदर पुरुष का दर्शन किया उनका श्यामल वर्णा था और श्यामल शरीर पर पीतांबर शोभायमान हो रहा था सुंदर चारभुजायें थी वह अपने हाथ में जलती हुई गदा लेकर शिशु के चारों ओर घूम रहे थे और जैसे सूरज अपनी किरणों से कोहरे को नष्ट कर देता है उसी प्रकार ब्रह्मास्त्र के तेज को शांत कर भगवान श्री कृष्ण अंतर्ध्यान हो गए।

और जब उत्तम समय आया सभी ग्रह अनुकूल हुए उस समय उस बालक ने जन्म लिया जन्म होते ही जिसकी गोद में जाता परीक्षण करता गर्भ में मैंने जिस पुरुष को देखा था क्या वह यह है|

परीक्षण करने के कारण उस बालक का नाम परीक्षित हुआ परीक्षित के जन्म के पश्चात महाराज युधिष्ठिर ने ब्राह्मणों से स्वस्तिवाचन कराया बालक का जातकर्म संस्कार कराया और जब नामकरण हुआ तो ब्राह्मणों ने बालक का नाम विष्णुरात रखा गर्भ  में भगवान श्री कृष्ण ने इनकी रक्षा की इसलिए इनका एक नाम विष्णुरात हुआ |

दैवज्ञों ने उनके भविष्य का वर्णन करते हुए कहा महाराज आप का यह पौत्र दशरथ नंदन श्री राम कि तरह ब्राह्मण भक्त होगा और सत्य प्रतिज्ञ होगा |

महाराज शिवि के समान दाता और शरणागत वत्सल होगा दुष्यंत के समान यशस्वी धनुर्धरों में वह सहस्त्रार्जुन और कौन्तेय अर्जुन के समान होगा |अग्नि के समान दर्धष समुद्र के समान दुस्तर आश्रय देने वालों में लक्ष्मीपति भगवान विष्णु के समान होगा रंतिदेव के समान उदार और ययाति के समान धार्मिक होगा यह धर्म की रक्षा के लिए कलयुग का निग्रह करेगा |

ब्राह्मण के श्राप के कारण तक्षक के डसने से इसकी मृत्यु होगी  परंतु महाराज आप चिंतित ना हो मृत्यु के समय निकट आने पर यह अपना राज्य छोड़कर चले जाएंगे वहां श्री सुखदेव जी जैसे महापुरुष से आत्म ज्ञान प्राप्त करके मोक्ष को प्राप्त कर लेंगे ज्योतिषियों ने जब इस प्रकार वर्णन किया महाराज युधिष्ठिर प्रसन्न हो गए ब्राह्मणों को बहुत सी  दक्षिणा दी  ब्राह्मण गण युधिष्ठिर से आज्ञा लेकर अपने-अपने स्थान को चले गये |
विदुरस्तीर्थयात्रायां मैत्रेयादात्मनो गतिम् |
ज्ञात्वागाध्दास्तिनपुरं तयावाप्तविवित्सितः ||
सौनक जी महात्मा विदुर महर्षि मैत्रेय जी से आत्म ज्ञान प्राप्त करके तीर्थ यात्रा से हस्तिनापुर लौट आए धर्मराज युधिष्ठिर और पांडवों ने महात्मा विदुर को आया देखकर प्रसन्न हो गए उनका स्वागत सत्कार किया।

 महात्मा विदुर एक दिन एकांत में महाराज धृतराष्ट्र के पास आए और उनसे कहा महाराज आप के चाचा ताऊ भाई बंधु पुत्र सभी मारे गए आपका शरीर भी बुढ़ापे का शिकार हो गया फिर भी आप  दूसरे के घर में पड़े-पड़े भीमसेन के दिए हुए टुकड़ों को खाकर कुत्ते के समान अपमानित जीवन बिता रहे हैं |

आपके जीवन को धिक्कार है आपने जिन्हें अग्नि से जलाने का प्रयास किया विष देकर मारना चाहा भरी सभा में जिनकी पत्नी को अपमानित किया जिनका राज्य धन सब कुछ छीन लिया उन्हीं के यहां पड़े हुए हैं आपके इस जीवन से क्या लाभ महाराज  इसके बाद आने वाला जो समय है वह बड़ा भयानक है इसलिए आप मोह ममता का त्याग करो और उत्तर दिशा की ओर यात्रा करो महाराज धृतराष्ट्र ने कहा विदुर तुम सही कह रहे हो परंतु हम वृद्ध हैं अंधे हैं कहीं जा नहीं सकते महात्मा विदुर ने कहा महाराज |
यदि हृदय में आस्था है तो 
बंद दरवाजे में भी रास्ता है |
 महात्मा विदुर रात में ही बिना किसी को बताए धृतराष्ट्र और गंधारी को साथ लेकर उत्तराखंड आ गए यहां प्रातः काल धर्मराज युधिष्ठिर ने संध्या वंदन अग्निहोत्र करके जब महाराज  धृतराष्ट्र और गांधारी को प्रणाम करने आए और उन्हें वहां नहीं देखा तो अत्यंत दुखी हो गए।

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कहने लगे संजय मुझसे ऐसा कौन सा अपराध हो गया जिसके कारण चाचा जी मुझे छोड़ कर चले गए उनके ना रहने पर हम अनाथ हो गए धर्मराज  इस प्रकार विलाप कर ही रहे थे उसी समय तुम्बरू के साथ देवर्षि नारद वहां पधारे देवर्षि नारद ने कहा धर्मराज युधिष्ठिर  महाराज धृतराष्ट्र  देवर्षि नारद जी के साथ हिमालय के दक्षिण भाग जहां गंगाजी सप्तर्षियों के लिए  अपने को7 भागों में विभक्त कर दिया है।

ऐसे पवित्र क्षेत्र हो गए हैं वहां त्रिकाल स्नान करते हैं अग्निहोत्र करते हैं जिसके कारण उनकी  उत्तेष्णा लोकेषणा और वित्तेष्णा  इन तीनों प्रकार की इच्छाओं  की निवृत्ति  हो  गई |

उन्होंने अपने आसन को जीतकर प्राणों को वश में कर लिया है| इंद्रियों को विषयों से लौटा कर अंतर्मुखी हो गए भगवान की धारणा करने से उनके तमोगुण रजोगुण सतोगुण के मल नष्ट हो गए आज से पांचवें दिन वे अपने शरीर का त्याग कर देंगे उनका शरीर जलकर भस्म हो जाएगा उनकी पत्नी गांधारी सती हो जाएगी महात्मा विदुर  महाराज धृतराष्ट्र का मोक्ष देखकर प्रसन्न हो जाएंगे और तीर्थयात्रा में निकल जाएंगे |

देवर्षि नारद ने जब इस प्रकार बताया धर्मराज युधिष्ठिर का शोक दूर हो गया उन्होंने देवर्षि नारद का पूजन किया और  देवर्षि नारायण नारायण का जप करते हुए वहां से चले गए |
सम्प्रस्थिते द्वारकायां जिष्णौ बन्धुदिदृक्षया |
अर्जुन भगवान श्रीकृष्ण क्या करना चाहते हैं यह जानने के लिए तथा द्वारिका वासियों की कुशल-क्षेम जानने के लिए द्वारिकापुरी गए हुए थे जब कई महीने व्यतीत हो गए और अर्जुन नहीं आए |

और महाराज युधिष्ठिर को अनिष्ट सूचक अपशकुन दिखाई देने लगे तो उन्हें बड़ी चिंता हुई उन्होंने भीम से कहा 7 महीने बीत गए अर्जुन नहीं आए इस समय मुझे अनेकों प्रकार के अपशगुन दिखाई दे रहे हैं जिससे मेरा हृदय बड़ा घबरा रहा है मेरी बाई जाघं और आंख बारंबार फड़क रही है |

प्रातः काल सूर्य की ओर मुख करके सियार रो रहे हैं गाय आदि पवित्र पशु मुझे बाये करके जाते हैं दिशाएं धूमिल हो गई है पर्वतों के सहित पृथ्वी में कंपन हो रहा है सूर्य की प्रभा बंद पड़ गई है |

देवताओं की मूर्तियों की आंखों से अश्रु प्रवाह हो रहा है यह देख कर मुझे भविष्य के प्रति बड़ी चिंता हो रही है धर्मराज युधिष्ठिर इस प्रकार बोल ही रहे थे कि उन्होंने सामने से अर्जुन को आते देखा अर्जुन का मुंह लटका हुआ था आंखों से अश्रुप्रवाह हो रहा था शरीर कांति से हीन था |

अर्जुन का मुख तथा इस भाषा को देखकर युधिष्ठिर ने पूंछा.......
कच्चिदानर्तपुर्यां नः स्वजनाः सुखमासते |
अर्जुन द्वारिका में हमारे स्वजन संबंधी मामा-मामी प्रद्युम्न शुषेन  चारुद्रेष्ण और साम्ब आदि  सभी कुशलपूर्वक तो हैं|

तुम इस प्रकार रो क्यों रहे हो कहीं तुम बहुत दिनों तक द्वारिका में रुक गए इसलिए किसी ने तुम्हारा अपमान तो नहीं कर दिया अथवा ब्राह्मण गाय वृद्ध रोगी स्त्री अथवा शरण में आए हुए किसी का तुमने त्याग तो नहीं कर दिया अथवा भोजन कराने योग्य बालक और वृद्धों को छोड़कर तुमने अकेले तो भोजन नहीं कर लिया धर्मराज  युधिष्ठिर के इस  प्रकार पूछने पर भी जब अर्जुन ने कुछ नहीं कहा  केवल रोते ही जा रहे थे तो धर्मराज युधिष्ठिर ने कहा ...
कच्चित् प्रेष्ठतमेनाथ हृदयेनात्मबन्धुना |
शून्योस्मि रहितो नित्यं मन्यसे तेन्यथानरुक ||
हो ना हो अर्जुन जिसे तुम अपना प्रियतम परम हितैषी समझते थे उन्हीं श्रीकृष्ण से तुम रहित हो गए हो | इसके अलावा तुम्हारे दुख का कोई दूसरा कारण नहीं हो सकता जब धर्मराज युधिष्ठिर की इस प्रकार बात सुने तो अर्जुन ने अपने आंसुओं को पोंछा और रूधें हुए गले से गदगद वाणी में कहा....
वञ्चितोहं महाराज हरिणा बन्धुरूपिणा |
येन मेपहतं तेजो देवविस्मापनं महत् ||
भैया भगवान श्री कृष्ण ने मित्र का रूप धारण कर मुझे ठग लिया जिन श्री कृष्ण की कृपा से मैंने राजा द्रुपद के स्वयंवर में मत्स्य भेद कर द्रोपती को प्राप्त किया था|

इंद्र पर विजय प्राप्त कर अग्नि को खांडव वन प्रदान किया और मैदानव से इंद्रप्रस्थ सभा को प्राप्त किया जिनकी कृपा से युद्ध में मैं भगवान शंकर को आश्चर्य में डाल पाशुप अस्त्र प्राप्त किया उन्हीं श्री कृष्ण से मैं रहित हो गया द्वारिका से श्री कृष्ण की पत्नियों को ला रहा था मार्ग में भीलों ने मुझे अबला की भांति परास्त कर दिया |
तद्वै धनुष्त इषवः स रथो हयास्ते 
     सोहं रथी नृपतयो यत आनमन्ति |
सर्वं क्षणेन तदभूदसदीशरिक्तं
    भस्मन् हुतं कुहकराद्धमिवोप्तमूष्याम् ||

 यह मेरा वही गांडीव धनुष है वही बांण वही रथ वही घोड़े और वही रथी मैं अर्जुन हूं |जिसके सामने बड़े-बड़े दिग्विजयी राजा सिर झुकाया करते थे परंतु श्री कृष्ण के ना रहने पर सब शक्तिहीन हो गए हैं |
मनुज बली नहीं होत है 
समय होत बलवान |
भीलन लूटी गोपिका 
वही अर्जुन वही बाण ||
महाराज सभी द्वारिका वासी ब्राह्मणों के श्राप से मोहग्रस्त हो वारुणी मदिरा पीकर आपस में लड़ झगड़ कर मर गए मात्र चार पांच ही शेष बचे हैं माता कुंती ने जैसे ही श्री कृष्ण के स्वधाम गमन की बात सुनी वही अपने प्राणों को त्याग दिया |पांडवों ने परीक्षित को राज्य सौंपा और चीर वत्कल धारण कर स्वर्गारोहण कर भगवान को प्राप्त कर लिया |
  बोलिए श्री कृष्ण चंद्र भगवान की जय  


महाराज परीक्षित ब्राह्मणों की शिक्षा के अनुसार राज्य करने लगे उन्होंने उत्तर की पुत्री इरावती से विवाह किया जिससे जनमेजय आदि  चार पुत्र हुये|

एक बार दिग्विजय के समय  महाराज परीक्षित ने देखा धर्म वृष का रूप धारण कर एक पैर से पृथ्वी पर घूम रहा था उस समय उसने अत्यंत दुखी गोरूप धारणी पृथ्वी से कहा देवी आप दुखी क्यों हैं क्या मेरे तीन पैर टूट जाने पर मैं एक पैर का हो गया हूं इसलिए आप दुखी हैं या अब शूद्र राजा तुम पर राज्य करेंगे इसलिए दुखी है |

अथवा जिन भगवान श्री कृष्ण ने तुम्हारा भार उतारने के लिए अवतार लिया था वे अब अपने धाम चले गए हैं इसलिए उनकी याद में आप दुखी हैं | पृथ्वी देवी ने कहा धर्म तुम मुझसे जो भी कुछ पूछ रहे हो वह सब तुम स्वयं जानते हो जिन भगवान के सारे तुम संसार को सुख पहुंचाने वाले अपने चारों चरणों से युक्त थे उन श्री कृष्ण के ना रहने पर यह संसार अत्यंत पापी कलयुग की कुदृष्टि का शिकार हो गया है |

यही देखकर मुझे दुख हो रहा है धर्म और प्रथवी इस प्रकार वार्ता कर रहे थे कि उसी समय एक शुद्र जिसने राजा के वेष को धारण किया था वहां आया और उन दोनों को पीटने लगा यह देख महाराज परीक्षित ने विचार किया...
जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी |
सो नृप अवस नरक अधिकारी ||
जिस राजा के राज्य में प्रजा को दुख की प्राप्ति होती है उस राजा को नरक की प्राप्ति होती है महाराज परीक्षित ने उस पुरुष को मारने के लिए तलवार निकाली यह देख वह पुरुष महाराज परीक्षित के चरणों में गिर गया महाराज परीक्षित ने बृषरूप धारी धर्म से पूछा आपके तीन पैर किसने काटे हैं आप बताइए मैं उसे दंड दूंगा|
 धर्म नहीं कहा......
दैवमन्ये परे कर्म स्वभावमपरे प्रभुम |
राजन कुछ लोग प्रारब्ध को दुख का कारण मानते हैं कुछ लोग स्वभाव को दुख का कारण मानते हैं कुछ लोग ईश्वर को दुख का कारण मानते हैं इस विषय में कौन-सा मत आपको ठीक लगता है उसका विचार कर लीजिए महाराज परीक्षित ने कहा आप धर्म का उपदेश कर रहे हैं क्योंकि जो दोष अधर्म करने वालों को लगता है वही दोष उसका वर्णन करने वाले को भी प्राप्त होता है|
आप वृषभ के रूप में साक्षात धर्म है|
सुखस्य दुखस्य ना कोपि दाता |
परो ददातीति कुबुद्धि देशः ||
सुख और दुख देने वाला कोई दूसरा नहीं है जो दूसरों को दुख देने वाला मानता है वह अज्ञानी है
कोउ न काहू सुख दुख कर दाता |
निज कृत कर्म भोग सब भ्राता  ||
तपः शौचं दया सत्यमिति पादाः कृते कृताः |
अधर्माशैस्त्रयो भग्नाः स्मयसन्ग मदैस्तव ||
 सतयुग में आपके तपस्या पवित्रता दया और सत्य यह चार चरण थे इस समय अधर्म के अंस अभिमान के कारण तपस्या का नाश हो गया. आशक्ति के कारण पवित्रता का नास हो गया और मद के कारण दया का नाश हो गया इस समय मात्र आपका चौथा चरण सत्य ही शेष बचा है |

परंतु आप दुखी ना हो मैं आपके चारो चरणों को पुनः स्थापित करूगा और ये गौरूप धारणी साक्षात पृथ्वी देवी हैं| जो भगवान के स्वधाम गमन के पश्चात दुखी है माता आप भी दुख का त्याग कर दीजिए मैं इस दुष्ट पुरुष को दंड दूंगा इसके पश्चात महाराज परीक्षित ने अपने चरणों में पड़े हुए कलयुग को देखा तो विचार किया..
 शरणागत कहू जे तजहि
 निज अनहित अनुमान |
ते नर पावत पाप भय 
 तिनहिं बिलोकत हानि ||
शरण में आए हुए का त्याग नहीं करना चाहिए महाराज परीक्षित को लगा इसे राज्य से निकाल देना चाहिए | वह आदेश दिए जा अभी निकल जा तू मेरे राज्य से महाराज मैं जहां भी दृष्टि डालता हूं वहां मुझे आपका ही राज्य दिखाई देता है इसलिए मुझे आप रहने के लिए स्थान बताइए महाराज परीक्षित ने कलियुग  को रहने के लिए 4 स्थान  दिए |
द्यूतं पानं स्त्रियः सूना यत्राधर्मश्चतुर्विधः |
पुनश्च याचमानाय जातरूपमदात्प्रभुः |
ततोनृतं मदं कामं रजो वैरं च पञ्चमम् ||
जहां जुआ सट्टा खेला जाता है वहां कलयिग झूठ के रूप में निवास करता है |जहां मदिरापान होता है वहां कलयुग मद के रूप में निवास करता है जहां भ्यविचार होता है वहां कलयुग काम के रूप में निवास करता है जहां हिंसा होती है वहां कलयुग रजोगुण के रूप में निवास करता है |

कलयुग ने कहा यह चारों तो आपके राज्य में है ही नहीं इसलिए मुझे रहने का कोई और स्थान दीजिए महाराज परीक्षित ने पांचवा स्थान सोना दिया स्वर्ण | भगवान श्री कृष्ण ग्यारहवे स्कन्ध में  कहते हैं |
धातुनामस्मि काञ्चनम् |
धातुओं में मैं कांचन हूं सज्जनों जो स्वर्ण अधर्म के धन से कमाया जाता है उसमें कलयुग का वास होता है और जो स्वर्ण मेहनत से धर्म  पूर्वक कमाया जाता है |

भगवान को समर्पित कर धारण किया जाता है उस में भगवान का वास होता है इस पांचवे स्थान को पाकर कलयुग ने अपना सम्राज्य संपूर्ण पृथ्वी पर बना लिया 1 दिन महाराज परीक्षित ने जरासंध का वह मुकुट जो जरासंध नेअनेकों निरपराध नर पतियों की बलि देकर उनके  धन से बनवाया था जिसे जरासंध के मृत्यु के पश्चात भीमसेन अपने साथ ले आए थे उस मुकुट को धारण कर महाराज परीक्षित शिकार खेलने गए शिकार खेलते खेलते मध्यान्ह हो गया महाराज परीक्षित को बहुत जोर की भूख और प्यास लगी|

समीप में किसी जलासय को ना देख एक आश्रम में घुस गए वहां ऋषि समिक समाधिस्थ बैठे थे महाराज परीक्षित ने उनसे ऐसी स्थिति में जल की याचना की जब ऋषि समीक ने कोई उत्तर नहीं दिया तो महाराज परीक्षित ने समझा ये झूठ में ही आंख बंद कर के बैठे हुए हैं एक मरा हुआ सर्प उठाया और ऋषि समीक के गले में डाल दिया इतने पर भी ऋषि समीक ने कोई उत्तर नहीं दिया तो राजा परीक्षित अपने राज्य में लौट आए।

यहां यह बात बालकों के साथ खेलते हुए ऋषि समीक के पुत्र श्रृंगी ने सुनी तो उसी समय क्रोध में आकर उसने कौशिकी के जल में आचमन कियी और महाराज परीक्षित को श्राप दिया |
इति लघिंतमर्यादं तक्षकः सप्तमेहनि |
दङक्षति स्म कुलाङ्गारं चोदितो मे ततद्रुहम् ||
आज से सातवें दिन तक्षक नामक नाग के डसने से महाराज परीक्षित की मृत्यु होगी इस प्रकार  श्राप दे ऋषि श्रृंगी आश्रम में लौट आए और जोर जोर से रोने लगे पुत्र का रुदन सुनकर ऋषि समीक ने नेत्र खोलें अपने गले में मरा हुआ सर्प दिखा तो उसे एक तरफ फेंका और श्रृंगी से कहा बेटा क्यों रो रहे हो तुम्हारे दुख का क्या कारण है।

ऋषि श्रृंगी ने कहा पिता जी महाराज परीक्षित ने आपका अपराध किया था इसलिए मैं उन्हें श्राप दे दिया आज से सातवें दिन उन्हें तक्षक सर्प डस लेगा ऋषि समीक ने यह बात सुनी तो उन्हें बहुत दुख हुआ उन्होंने कहा बेटा परीक्षित परम भगवत भक्त हैं उनके कारण ही हम सब ऋषि मुनि निर्भय होकर जप तप आदि साधनों को करते हैं तुम ने उन्हें श्राप देकर अच्छा नहीं किया |

ऋषि समीप एक शिष्य को महाराज परीक्षित के पास भेजा यहां महाराज परीक्षित जब अपने महल में पहुंचे और उन्होंने जैसे  ही अपना मुकुट उतारे  विचार करने लगे आज मैंने  ऋषि का अपराध किया है |

इसके बदले मुझे ऐसा दंड मिले की जीवन में ऐसा अपराध कभी ना हो महाराज परीक्षित ऐसा विचार कर ही रहे थे उसी समय ऋषि समीप  का शिष्य आया उसने बताया महाराज परीक्षित ऋषि श्रृंगी ने आप को श्राप दे दिया है आज से सातवें दिन तक्षक नाम का सर्प आप को डस लेगा|

महाराज परीक्षित ने जैसे ही यह सुना अपना राज्य जन्मेजय को सौंपा और गंगा के तट सुकताल में आकर बैठ गए.. अत्रि वशिष्ठ  च्यवन भृगु अंगिरा पाराशर विश्वामित्र भरद्वाज गौतम और वेदव्यास आदि अनेकों ऋषि मुनि वहां पधारे महाराज परीक्षित ने सभी का स्वागत सत्कार किया और उनसे प्रश्न किया कि जो सर्वथा मृयमाण हैं मरने वाला है उसे क्या करना चाहिए जब ऋषि गण किसी एक निर्णय पर नहीं पहुंचे |
  तत्रा भवद भगवान व्यास पुत्रो |
उसी समय भगवान श्री सुखदेव जी प्रकट हो गए |     बोलिए श्री सुखदेव भगवान की जय    

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सुंदर षोडश वर्ष की उनकी अवस्था देख सुकोमल कर कमल और चरणा रविंद्र थे उन्हें देखते ही सभी ऋषि गण खड़े हो गए महाराज परीक्षित ने उनका पूजन किया उन्हें उत्तम आसन में विठाला और जब वे सुखपूर्वक बैठ गए तो उनसे प्रश्न किया |
अतः पृच्छामि संसिद्धिं योगिनां परमं गुरुम् |
पुरुषस्येह यत्कार्यं म्रियमाणस्य सर्वथा  ||
यच्छृोतव्यमथो जप्यं यत्कर्तव्यं नृभिः प्रभो |
स्मर्तव्यं भजनीयं वा ब्रूहि यद्वा विपर्ययम् ||
हे योगियों के परम गुरु जो सर्वथा मृयमाण है जिनकी मृत्यु 7 दिन में होने वाली है ऐसे पुरुष को क्या करना चाहिए | किसका श्रवण करना चाहिए किसका जप करना चाहिए किस का स्मरण करना चाहिए किसका भजन करना चाहिए और क्या करना चाहिए क्या नहीं करना चाहिए सब बताने की कृपा करें महाराज परीक्षित के इस प्रकार प्रश्न करने पर श्री सुखदेव जी उनके प्रश्न की प्रशंसा करते हुए कहते हैं....|
      प्रथम स्कन्ध सम्पूर्णम्.     

भागवत कथा के सभी भागों कि लिस्ट देखें 

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